Business News :पिछले कुछ हफ्तों में अमेरिकी डॉलर (US dollar) मजबूत हुआ है जिस कारण रुपये समेत विश्व की कई मुद्राएं दबाव में हैं. लेकिन कुछ दिन से दुनिया की रिजर्व करेंसी के मुकाबले दूसरी करेंसियों में तेजी भी देखी जा रही है.यूरो, ब्रिटिश पाउंड, कैनेडियन डॉलर, ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (Australian dollar) और सबसे महत्वपूर्ण रूप से चीनी युआन पुरानी स्थिति में वापस आ गए हैं. चीन-अरब राज्यों के शिखर सम्मेलन और चीन-जीसीसी (Gulf Cooperation Council) शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खाड़ी की यात्रा की जिसके अंत में वह सऊदी अरब पहुंचे.
इस यात्रा ने चीन को खाड़ी देशों के काफी करीब ला दिया जो पारंपरिक रूप से अमेरिका के सहयोगी रहे हैं. व्यापार और ताइवान को लेकर अमेरिका-चीन के बीच मौजूदा गतिरोध को देखते हुए यह यात्रा काफी महत्वपूर्ण है. 10 दिसंबर को समाप्त हुई अपनी चार दिन की यात्रा के दौरान शी ने लगभग 20 क्षेत्रीय नेताओं से मुलाकात की. शी जिनपिंग की यात्रा के बाद चीन और खाड़ी देशों द्वारा जारी किए गए बयानों में ज्यादातर चीन और खाड़ी देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने के बारे में बात की गई. मगर इसमें एक बिंदु काफी महत्वपूर्ण रहा. खबर आई कि बीजिंग की पहल पर सउदी से खरीदे गए तेल के लिए दोनों देश चीनी युआन में भुगतान करने पर सहमत हो गए हैं. कहा जाता है कि इसी तरह के समझौते जीसीसी के साथ भी हुए.
खाड़ी के शेखों और चीन द्वारा व्यापार में अमेरिकी डॉलर को दरकिनार करना अमेरिका के लिए चिंता का विषय होगा. अकेले चीन-सऊदी व्यापार 97 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. दिलचस्प बात यह है कि यात्रा के दौरान वहां की रिपोर्ट आने पर डॉलर टूटने लगा क्योंकि दुनिया इसे इस रूप में देखने लगी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर का विकल्प ढूंढा जाने लगा है. रूस और भारत के बीच डॉलर की जगह रुपया-रूबल में व्यापार की योजना की खबर के तुरंत बाद यह खबर महत्वपूर्ण हो गई. रूस ने अपने ग्राहकों को ईंधन बेचने के लिए रूबल में भुगतान का शर्त रख दिया है. इससे रूबल यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के 120 डॉलर के स्तर से 60 डॉलर के स्तर तक मजबूत हो गया.
यूक्रेन युद्ध और रूस के खिलाफ पश्चिमी प्रतिबंध के अलावा जी7 और उसके सहयोगियों द्वारा लगाए गए 60 डॉलर प्रति बैरल तेल के मूल्य ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को कमजोर करने के बजाय पश्चिमी देशों को ही पीछे धकेल दिया है. ईंधन की अप्रत्याशित बढ़ी कीमतों ने यूरोप में मुद्रास्फीति को अभूतपूर्व स्तर पर ला दिया है. यूरोप, भारत और चीन को तेल, कच्चे तेल और गैस के निर्यात से रूस का खजाना लबालब है. इसके उलट यूरोप के लोगों को काफी महंगा तेल खरीदना पड़ रहा है. उन्होंने सस्ती रूसी गैस की आपूर्ति से मना कर दिया और अमेरिका से काफी अधिक कीमतों पर एलएनजी खरीद रहे हैं.
रूस ने यूरोपीय संघ के सदस्यों को चेतावनी दी है कि प्रतिबंधों के कारण वो पाइपलाइन के माध्यम से सस्ता रूसी तेल नहीं ले पा रहे हैं और अमेरिका टैंकरों का भी दाम जोड़ कर उन्हें काफी ऊंची कीमतों पर एनएलजी की आपूर्ति कर रहा है. जी7 और दूसरे अमेरिकी सहयोगियों द्वारा लगाया गया तेल मूल्य कैप भी कारगर नहीं लग रहा है. समुद्री मार्ग से रूसी कच्चे तेल के आयात पर यूरोपीय संघ का प्रतिबंध 9 दिसंबर से लागू हुआ और रूसी पेट्रो उत्पादों के आयात पर रोक 5 फरवरी से प्रभावी होगा.
अगर कार्गो को 60 डॉलर प्रति बैरल से अधिक कीमत पर खरीदा गया तब मूल्य कैप नीति यूरोपीय संस्थाओं को रूसी तेल ले जाने वाले जहाजों को फाइनेंसियल ब्रोकरेज, शिपिंग और बीमा सेवाएं प्रदान करने से प्रतिबंधित करता है. लेकिन रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत जैसे ग्राहकों को टैंकर बनाने या उन्हें पट्टे पर देने में रूस मदद कर रहा है ताकि वे पश्चिमी कंपनियों के स्वामित्व वाले टैंकरों का इस्तेमाल नहीं करें जिन पर यूरोपीय संघ के दंडात्मक उपाय लागू हो सकते हैं.
सवाल यह है कि रूसी तेल के खरीदारों द्वारा गैर-डॉलर मुद्राओं में व्यापार करने के प्रयासों के खिलाफ अमेरिका कैसे कार्रवाई करेगा. फिलहाल डॉलर के अलावा यूरो, जापानी येन, ब्रिटिश पाउंड, ऑस्ट्रेलियाई और कनाडाई डॉलर और चीनी युआन या रॅन्मिन्बी में भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार हो रहा है.डॉलर की ताकत उसे मिली हुई वैश्विक स्वीकृति है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की जगह दूसरी मुद्रा के चलन से अमेरिका की महाशक्ति वाली स्थिति को गंभीर चुनौती मिलेगी. सऊदी-चीन व्यापार में डॉलर को हटा कर दूसरी मुद्रा में व्यापार ने निश्चित रूप से अमेरिका नाराज होगा.