
सरकारों और प्रशासन से जब हमें न्याय नहीं मिलता तो हम सुप्रीम कोर्ट की ओर न्याय के लिए टकटकी लगाते हैं लेकिन सुप्रीमकोर्ट तक पहुंच पाना आम नागरिक की हैसियत से बाहर होता है। बड़े बड़े लाखों रुपए फीस लेने वाले वकील जिनकी फीस सुनाकर माथे पर पसीना और शरीर में कंपकपी उठने लगती है। संविधान में विधायक कार्यपालिका और न्यायपालिका को लोकतंत्र का वाहक कहा है। ये तीनों ही तंत्र स्वतंत्र कहे जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट में पिछले समय में सरकार का इकबाल चरम पर था। इसके लिए सरकार ही नहीं वी लोभी जस्टिस भी दोषी थे जो रिटायर होने के बाद सरकार से कोई मलाईदार पद पाने की अभिलाषा रखते थे। पिछले समय में सरकार के पक्ष में निर्णय देने वाले एक जस्टिस को राज्यपाल बनाकर पुरस्कृत किया गया तो दूसरे को राज्यसभा की सदस्यता सरकार से वफादारी का इनाम मिला। सुप्रीम कोर्ट से न्याय की आशा थोड़ी क्षीण होने लगी थी। विश्वास, अविश्वास में, आशा निराशा में और न्याय के बदले अन्याय की आशंका बालावती होने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट को संविधान की रक्षा, आम जन को न्याय देने की भूमिका निर्वहन करने की जिम्मेदारी मिली है। यद्यपि उसके संवैधानिक अधिकार सीमित हैं। वह कानून नहीं बना सकता। हर मसाले पर सरकार को निर्देश नहीं दे सकता। अब ऐसा दौर आया है कि न्यायालय के प्रति नागरिकों का खोया विश्वास पुनर्जीवित हो उठा है जिसका सारा श्रेय मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ को जाता है जिन्होंने अपने सभी सहसयोगी न्यायाधीशों को निडर होकर फैसले लिखने के लिए प्रेरित किया जिससे सुप्रीम कोर्ट का खोया विश्वास फिर से जगने लगा है। सीजेआई चंद्रचूड़ प्रशंसा और बधाई के पात्र हैं। जिन्होंने निर्भीक होकर न्याय करते हुए ऐसे अनेक निर्णय दिए हैं जिनसे केंद्र सरकार असहजता महसूस करने लगी है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस को पद से हटाने के लिए सरकार को अविश्वास प्रस्ताव लाकर उसे पास कराने होते हैं। जिसके लिए महामहिम राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया अपनानी होती है जो केंद्र सरकार के लिए टेढ़ी खीर है। महिला पहलवान जिनमें एक नाबालिक भी है। ये सभी जनवरी 2023 में जंतर मंतर पर धरने पर बैठने को मजबूर हो गईं क्योंकि कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष, बाहुबली सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों के यौन उत्पीडन के आरोप लगाए थे। सरकार अपने सांसद को बचाने में लगी हुई है। पिछले धरने में महिला पहलवानों के साथ पुरुष पहलवान भी समर्थन में धरने पर बैठ गए थे। तब सरकार ने टालने के लिए एक कमेटी गठित करने का फैसला किया ।न्याय का आश्वासन भी दिया। धरना खत्म हो गया। उक्त जांच कमेटी में एक महिला पहलवान सहित कुल छः लोग थे।जिनमे पांच सरकारी पक्ष के थे। ऐसे में जांच रिपोर्ट निष्पक्ष होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। जांच कमेटी केवल दिखावे के लिए गठित की गई थी। जांच रिपोर्ट पूर्व लिखित या कहें कि सरकार द्वारा लिखी गई थी जिससे आरोपी बाहुबली सांसद को बेदाग बचाया जा सके। जांच समिति में शामिल महिला पहलवान का आरोप है कि जब वे जांच रिपोर्ट थोड़ा ही पढ़ पाई थीं तभी एक और महिला सदस्य ने उनके हाथ से रिपोर्ट छीन लिया। आखिर क्यों? जब महिला पहलवान जांच कमेटी में शामिल थी तो उसे रिपोर्ट पढ़ने क्यों नहीं दिया गया? इससे साफ है कि रिपोर्ट एक तरफा थी जिसमें आरोपी सांसद को निर्दोष बताया गया होगा। महिला पहलवान के अनुसार उसने असहमति दर्ज कर हस्ताक्षर किए। करना ज़रूरी भी था। तीन महीने बीत गए लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। सरकार की विशेषकर पीएम ने इस पर चुप्पी साध ली जिससे मामले की गंभीरता हो समझा जा सकता है। दोबारा जंतर मंतर पर धरने पर बैठने को मजबूर महिला पहलवानों ने दिल्ली पुलिस की कनॉट प्लेस थाने में लिखित आरोप देकर एफआईआर लिखाने की कोशिश भी की लेकिन किसके इशारे और आदेश पर दिल्ली पुलिस ने एफ आई आर नहीं लिखी यह जांच का विषय होना चाहिए। दिल्ली पुलिस जो केंद्र सरकार के अधीन है से सहयोग नहीं मिलने पर वे मजबूर हो गईं सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर एफआईआर दर्ज करने के आदेश देने गुहार के साथ। सुप्रीम कोर्ट ने सात पहलवानों की याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, इन्होंने यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए हैं, ऐसे में सुनवाई ज़रूरी है। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को एफआईआर दर्ज नहीं करने पर नोटिस दी थी। अब कोर्ट में दिल्ली पुलिस घुटनों पर आ गई। जान गई कि आका बचा नहीं पाएंगे। पुलिस ने शिकायत दर्ज करने जा रही कहा, देर रात एफआईआर दर्ज कर देंगे। बताते चलें कि दोबारा महिला पहलवान जिन्होंने देश की झोली गोल्ड मेडल से भर दी थी, उनके साथ क्रिकेटर, कुछ राजनेता और समाजसेवी आ गए हैं जो विभिन्न मीडिया में समर्थन दे रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य कहें या सरकार की महिला पहलवानों के धरने जो 23 अप्रैल से दोबारा दिए जा रहे हैं। जंतर-मंतर से भगाने के लिए पानी और बिजली के कनेक्शन ही काट दिए गए हैं। यही है सरकार का महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव। छी। खिलाड़ियों के समर्थन में ट्वीटर पर अभियान चलाया जा रहा है।देर रात नाबालिक खिलाड़ी के यौन शोषण मामले में पास्को एक्ट के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया और अन्य के मामले में दूसरा एफआईआर दर्ज कर लिया गया है। काश दिल्ली पुलिस में मानवता और देश के प्रति प्रेम, खिलाड़ियों के प्रति सम्मान होता तो वह अपने आका के आदेश नहीं मानकर एफ आई आर दर्ज कर देती पहले ही। अब जब सुप्रीमकोर्ट का डंडा चला है तब उन्हें अपना कर्तव्य याद आया है। यहां भी संदेह है कि पुलिस निष्पक्ष जांच और कार्रवाई करेगी।धरनास्थल पर खिलाड़ियों ने बकायदा पोस्टर लगाकर बाहुबली बृजभूषण सिंह पर विभिन्न थानों में केस दर्ज हैं जिसे देखकर उक्त सांसद के अपराधों का पता चलता है। जिसने कभी गोंडा जिले के एस पी की कनपटी पर पिस्टल तान दी थी।बीजेपी को सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे ही आरोपियों की जरूरत है। दूसरी तरफ यौनशोषण का आरोपी बाहुबली अपने गृह जनपद में जाकर कहता है, में इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं बशर्ते खिलाड़ी मेरे खिलाफ लगाए आरोप वापस लेकर धरना खत्म करें और भूल जाएं। इसे क्या कहा जाएगा?इस तरह की शर्त बाहुबली ही रख सकते हैं यानी उसे अपने कुकृत्यों का कोई भी क्षोभ और पश्चाताप नहीं है। सभी खिलाड़ियों ने एक स्वर में बाहुबली आरोपी बृजभूषण को तुरंत गिरफ्तारी की मांग की है। यदि सचमुच में गिरफ्तारी नहीं हुई तो सारे साक्ष्य मिटाने की कोशिश की जा सकती है। संभव है महिला पहलवानों को भी क्षति पहुंचाई जा सके। यहां सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस माननीय और आम आदमी में फर्क करने वाली दोहरी नीति नहीं चलाती?अगर बाहुबली सांसद की जगह कोई आम आदमी, नेता जो सत्ता में नहीं है, दो घंटे भी नहीं लगते उसे गिरफ्तार कर जेल में भेज देने में। लगता है बिलकुल झूठ है यह कहना कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं। असली परीक्षा अब दिल्ली पुलिस की होगी। क्या ईमानदारी से बाहुबली सत्तापक्ष के सांसद और महिला यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण के विरुद्ध साक्ष्य सुरक्षित रखेगी जुटने के बाद? क्या निष्पक्ष अपने आका के दबाव से मुक्त होकर पीड़िता महिला पहलवानों को न्याय दिलाने में समर्थ सिद्ध होगी? अभी तक के दिल्ली पुलिस के कार्य थोड़ी बहुत आशा ज़रूर बढ़ा रहे कि कोर्ट के दबाव में ही सही एफआईआरदर्ज कर लिया। एक बार एफआईआर दर्ज कर लेने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पैनी निगाह से बचना असंभव होगा। आज की राजनीति में बदजुबानी बहुत खतरनाक स्तर पर जा पहुंची है। कब कौन सा नेता क्या किसके लिए बोलेगा, कोई भरोसा नहीं। पिछले नौ दस वर्षों से हेट स्पीच में बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा हो गई है।राजा से प्यादा तक की जुबान कब फिसलेगी, दिल का गुबार जुबान पर कब आएंगे कोई भरोसा नहीं। ताजा मामला सिर्फ कर्नाटक चुनाव प्रचार का नहीं है जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने मोदी की तुलना जहरीले सांप से कर दी और भाजपा नेता ने कांग्रेस नेता को सपोला कह दिया। दोनो दल चुनाव आयोग पहुंचकर एक दूसरे के खिलाफ शिकायत दर्ज भी करा दी लेकिन चुनाव आयोग क्या करेगा? इसी बीच सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के एम जोसेफ और जस्टिस बी बी नागरतना ने नफराती भाषणों को ऐसा गंभीर अपराध माना है जो देश के धर्मनिरपेक्ष ताने बाने को प्रभावित करने में सक्षम है। पीठ ने अपने 21 अक्तूबर 2022 का आदेश हर धर्म पर लागू होने की बात पर जोर दिया। चेतावनी भी कि मामले दर्ज करने में किसी भी तरह की देरी को अदालत की अवमानना माना जाएगा। पिछले वर्ष ही कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा था, धर्म के नाम पर हम कहां पहुंच गए हैं? हमने धर्म को जो बना दिया है, वास्तव में दुखद है। साथ ही उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड को नफरती भाषण देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का निर्देश दिया था। संविधान के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष देश में पुलिस स्वतः संज्ञान लेकर अपराधियों के विरुद्ध तत्काल आपराधिक मामले दर्ज करने का निर्देश दिया था। जस्टिस जोसेफ ने पत्रकार शाहीन अब्दुल्ला की याचिका पर कहा कि कोर्ट व्यापक जनहित और कानून के शासन की स्थापना सुनिश्चित करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में नफरती भाषणों के विरुद्ध याचिकाओं पर विचार कर रहा है। शीर्ष कोर्ट की पीठ ने सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों में शीर्ष अदालत के 21 अक्तूबर 2022 के आदेश को लागू होने का निर्देश दिया है। उच्च संवैधानिक पदों पर अपात्र लोगों के कब्जा करने के कारण ही बदजुबानी का आलम देश भर में है। किसी के दिमाग में असल समस्या का समाधान आ ही नहीं रहा और न सोच रहा कोई। देश की हरेक समस्या चाहे नफरती भाषण हो या सत्ता पाने की गला काट कूटनीतिक षडयंत्र धूर्तों की धूर्तता की उपज है। जिस दिन पात्रतानुसार पद नियोजन लागू होगा।एस क्यू वाले नेतृत्व कर्ता और ई क्यू वाले प्रशासक बनेंगे कभी कोई समस्या ही उत्पन्न नहीं होगी।