
मान लें किसी चोर की चोरी पकड़ ली जाए और वह गांव पर हमला का जुमला फेंके तो क्या पूरा गांव उसे बचाने दौड़ पड़ेगा? नहीं न? चोर ने जिसे फायदा पहुंचाया होगा या चोर को संरक्षण देने वाले तिलमिला कर कहेंगे अरे यह कैसे चोर कह दिया? चोरी मैंने नहीं की। यह गांव को बदनाम करने की साजिश है। भला इस बात पर कोई यकीन क्यों कर करेगा? कुछ ऐसा ही मामला भारतीय उद्योगपति गौतम अडानी का भी है। अमेरिकी हिंडनबर्ग की शोध कंपनी जो विदेशों में हुई गड़बड़ी का पर्दा फाश कर चुके हैं ने ही अडानी पर वित्तीय लाभ पाने के लिए विदेशों में अपनी फर्जी कंपनिया बनाकर कैपिटल ग्रोथ अधिक दिखाई जिससे उनके ग्रुप के शेयर महंगे मूल्य पर बिकने लगे जिससे अडानी विश्व के दूसरे नंबर के अरबपति बन गए। इसी बीच वित्तीय अनियमितता की रिपोर्ट हिंडनबर्ग ने दुनिया के सामने खोलकर रख दिया जिसपर अडानी ने उन्हें बदनाम करने, देश पर हमला करने के आरोप लगाए। हिंडनबर्ग ने प्रश्नों का बंच अडानी के सामने रख दिया। उसका जवाब देने की जगह अडानी ने आरोप लगा दिए और उस रिपोर्ट को भारत की साख पर हमला बताकर मामले को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास किया। यह बात सत्य है कि यूपीए सरकार के शासनकाल में अडानी का कैपिटल कैप चंद हजार करोड़ का ही था। बीते आठ वर्षों में उन्होंने इतनी प्रगति कर ली कि वे दुनिया के दूसरे नंबर के धनी बन गए लेकिन आर्थिक फायदे के लिए कायदा बिगड़ने के आरोप ने अडानी के कंपनियों की सेहत बिगाड़ दी। की दो नंबर से घिसाकाकर इक्कीसवें नंबर पर आ गए। शेयर में उनकी कंपनियों के शेयर औंधे मुंह गिरने लगे। कई लाख करोड़ का घाटा अडानी को हुआ। डैमेज कंट्रोल में अडानी लग गए और शेयर लौटने की जुगत बिठाने लगे। विपक्षी ही क्यों देश की जनता को अडानी पर यकीन नहीं रहा। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों से होता हुआ मामला संसद में पहुंच गया। सत्तापक्ष के सारे नेता अडानी के पक्ष में बोलते देखे सुने गए। संसद ठप रही। राष्ट्रपति के अभिभाषण प्रस्ताव पर बोलते हुए मोदी ने विपक्षियों को घेरने की मजबूत किलाबंदी की। अपने धन्यवाद भाषण में उन्होंने कांग्रेस के दस साल शासन में हुए घोटाले गिनाए। दूसरों के दोष गिनकर खुद को साफ पाक नहीं बताया जा सकता। यह कहा जा रहा कि मोदी की सभी रैलियों का व्यय अडानी ही उठाते हैं। ताली दोनों हाथों से बजती है। कांग्रेस के समय भी पूंजीपति डोनेशन देते और सरकार चलाते थे। आज भी वही प्रक्रिया चल रही। वास्तविकता यह है कि देश का शासन नेता या सरकार नहीं पूंजीपति ही चलाते रहे हैं। अमेरिकी न्यूयार्क टाइम्स के एडिटर भारत आए थे। यहां से लौटने के बाद उन्होंने अपनी संपादकीय में लिखा कि वे पूरी तरह से नास्तिक रहे हैं लेकिन भारत आने के बाद वे अब पूरी तरह से आस्तिक हो गए हैं। ईश्वर में उन्हें पूरा विश्वास होने लगा है क्योंकि वे आगे लिखते हैं। भारत का शासन सरकार नहीं चलाती। ईश्वर ही चला रहा है। अब वह ईश्वर कौन है? यह शोध का विषय हो सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि कोई भी सरकार रही हो वह बजट बनाने के पूर्व उद्योग पतियों की नियामक संस्था से ही सम्मति लेती आई हैं। कभी किसानों मजदूरों सरकारी कर्मचारियों को शामिल नहीं किया गया इसलिए यह कहना उचित प्रतीत होता है कि देश का शासन राजनेता नहीं उद्योगपति ही चलाते आए हैं