Wednesday, February 5, 2025
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अध्यात्म में संबंध और अनुशासन!

वरिष्ठ लेखक- जितेंद्र पांडेय
मनुष्य जब एक साथ किसी स्थान विशेष में रहने लगते हैं तो इसे मानव समाज कहा जाता है। जबकि पशुओं के समूह को झुंड कहा जाता है। मनुष्यों का समाज भिन्न-भिन्न होता है। पशु अपनी जाति और विभिन्न धर्मों के अनुसार अलग-अलग मान्यताओं, परंपराओं का पालन करते हैं और अलग वेशभूषा और रहन-सहन अपनाते हैं। यह तो पशुवत ही है ना? जैसे शेर, हाथी, भालू, बंदर, सियार, कुत्ते आदि। उनमें परस्पर शत्रुता का भाव रहने से एक दूसरे के प्रति आक्रामक होते रहते हैं। आज ठीक पशुओं की ही भांति मनुष्य अलग-अलग हिंदू, मुसलमान, सिख, बौद्ध, ईसाई, पारसी, बहावी जैसे पशुओं के झुंड होकर परस्पर शत्रुता रखने लगे हैं। संघर्ष करने लगे हैं। दुख झेलने लगे हैं। ईश्वरीय सृष्टि में यह भेद ही द्वैत है। जबकि ब्रह्म, खुदा, गॉड सभी अलग नाम भले हों लेकिन निराकार हैं, अद्वैत है। यही अलग-अलग दृश्यमान संघर्ष द्वैत के कारण से है। अलग-अलग हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, बहावी, ईसाई बनकर संघर्ष के कारण दुखी हैं। जबकि सत्य तो यह है कि ब्रह्म ही समस्त जीवों में एक ही है परंतु अज्ञानता वश हम एक दूसरे से अलग दिखते और बरतते हैं। सच क्या है यह हरेक मनुष्य को ज्ञात होना अपरिहार्य है। स्वर्ण धातु एक ही होती है। उससे अनेक रूप के अलग-अलग आभूषण भले ही अलग-अलग दिखते हैं लेकिन तत्व तो स्वर्ण ही है ना? भारत में कहा जाता है कण-कण में भगवान। इसका भाव क्या है यह समझना सरल नहीं। इसलिए एनडीएस, डीएसएस, पीडीएस के संस्थापक निदेशक श्री अरविंद अंकुर के विचार जानना अपरिहार्य है क्योंकि एक वही ऐसे साधु पुरुष हैं जो अन्य साधुओं, संन्यासियों से अलग दिखते हैं। देश में हजारों, लाखों की संख्या में गेरुआ वस्त्र धारी अज्ञानी ढोंगी बाबा जरूर हैं लेकिन वे सत्य, प्रेम, न्याय की बातें नहीं कहते। अज्ञानता वश घर परिवार धन दौलत को माया बताकर त्याग करने को कहकर अपने लिए अय्याशी के महल बनाते हैं। अरविंद अंकुर जी इनसे बिल्कुल अलग हैं। आइए ऐसे विलक्षण गुरु के विचार जानते हैं। आपके अनुसार मानव समाज में संघर्ष नहीं संबंध होना चाहिए। जन्म लेने के लिए मैं-तू का विभाजन उचित है। परंतु जीवन जीने के लिए संयोजन आवश्यक है। संयोजन ही धर्म है, संबंध ही धर्म है। रिलेशन ही रिलीजन है। आशय यह कि सभी मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं, शत्रु नहीं। क्योंकि जन्म लेने के लिए पिता-पुत्र, माता-पुत्री का विभाजन तो सृष्टि के उद्देश्य से अनिवार्य है अन्यथा सृष्टि ही व्यक्त नहीं होगी। एक ही परमात्मा अनेक होकर सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है। ब्रह्म ही ब्रह्मांड होकर प्रकट है। एक ही ईश्वर तत्व प्रकृति रूप में कट-कट कर अनेक होकर लगातार प्रकट हो रहा है। यह ईश्वरीय प्रकटीकरण ही संसार है। परंतु जब एक ही तत्व मैं-तू होकर अनेक नामों, रंगों, आकारों में व्यक्त हो रहा है तो इस मैं-तू के बीच संघर्ष नहीं संबंध ही सत्तात्मक व्यवहार हो सकता है। इस सत्तात्मक व्यवहार को ही प्रेम, न्याय और पुण्य कहते हैं। कुल इतना ही सनातन धर्म है। जिससे भाग-भाग कर हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, बहावी बनकर दुख झेल रहे हैं। यही सीख ईसाई, बहावी के परस्पर संघर्ष और शत्रुता के मकड़जाल में फंस चुके हैं और परस्पर युद्ध और विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए उठो जागो, सनातन धर्म की ओर वापस मुड़ो। डीएसएस और एनडीएस ज्वाइन करो। जीवन जीने के लिए सत्यात्मकता जरूरी है। जिसके लिए सत्यानुशासन होना अपरिहार्य है। इसके लिए सत्य के प्रति आस्था, श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति और अनुशासन को ही प्रेम समझो। जो जिसको प्रेम करता है वह इसकी हर बात मानता है, जो सत्य को प्रेम करता है वह सत्य की बात मानता है। किसी के प्रेम का तिरस्कार करना सर्वथा अनुचित है क्योंकि सत्य, सत्य, सर्वात्मक होता है। झूठे प्रेम से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। जो आपको प्रेम करता है उससे प्रेम करने वालों को प्रेम करना ही उचित है। सत्य के अनुयाई बनिए क्योंकि जीवन ही सत्तात्मक है। सत्य के अनुशासन का पालन करना ही सत्यानुशासन है। सत्य के भिन्न कोई जीवन है ही नहीं। जीवन का अस्तित्व ही नहीं है। हमेशा ही सत्य बोलिए। असत्य का मार्ग छोड़ कर ही सत्तात्मक बना जा सकता है। जो सत्तात्मक जीवन जीता है, वही धार्मिक है। असत्य वादी कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता। सत्यानुशासित न रहने वाला धार्मिक होने का ढोंग करता है और अपने शिष्यों का शोषण करते हुए इसे पतन के मार्ग पर ले जाता है। सत्य से भिन्न कोई धर्म हो ही नहीं सकता। सत्य सर्वात्मक होने से ग्राह्य है। सत्य ही शाश्वत है, सनातन धर्म है। सत्तात्मक व्यक्ति की बातें कभी किसी का अहित नहीं करतीं। सत्य के उपासक ही देवता होते हैं। जबकि शक्ति की उपासना करने वाले दैत्य होते हैं। सर्वव्यापी ही ब्रह्म हैं। सत्य ही ब्रह्म होने से सर्वव्यापी होता है। सत्तात्मक शक्ति वान ही ब्राह्मण होता है। वही सद्गुरु होने के योग्य भी है।

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