Tuesday, October 14, 2025
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धनतेरस बनता खरीददारी महोत्सव

स्वाति व्यास
धनतेरस धन्वंतरि देव की जयंती है। जी हां, ये वही धन्वंतरि हैं जो प्रसिद्घ गुप्त नरेश चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक थे। ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद के रचयिता और आयुर्विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान। ज्ञातव्य है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में रस चिकित्सा के क्षेत्र में नागार्जुन और आयुर्वेद के क्षेत्र में धन्वंतरि ने गुप्तकाल को स्वर्णयुग की उपाधि दिलाने में खासी भूमिका निभाई थी। आयुर्वेद मूलत: प्राकृतिक माध्यमों के प्रयोग से स्वास्थ्य के विविध उपाय निकालने वाली चिकित्सा पद्घति है। विविध औषधीय गुणों से युक्त पौधे एवं वृक्ष, उनकी छाल, पत्ते, फूल, फल, जड़ें, बीज और कंद भी आयुर्वेद में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। स्पष्ट है यह प्रकृति व पर्यावरण से मानव को जोडऩे वाली चिकित्सा पद्घति है। अनेक कहावतें कहती हैं कि स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है। धन्वंतरि इसी धन के रक्षक थे। इस संदर्भ में धन्वंतरि शब्द में निहित धन का अर्थ स्वास्थ्य से है न कि लक्ष्मी से। किसी शब्द की गलत व्याख्या का एक उदाहरण प्रसिद्घ समाजशास्त्री मैकिम मेरियट के शोध में भी मिलता है, जिसके अनुसार गोवर्धन शब्द का अर्थ है गायों का पोषण वर्धन करने वाला (पर्वत) किन्तु आज उसे गोबर+धन के तौर पर गोबर का पहाड़ बनाकर मनाया जाता है। भारतीय त्यौहारों के विषय में एक रोचक तथ्य यह भी है कि इसके अधिकांश उत्सव यथा मकर संक्रांति, बसंत पंचमी, होली, बैशाखी, नवरात्र, दीपावली, ओणम आदि कृषि से जुड़े हुए हैं। चावल की फसल पर दीपावली है तो गेहूं की फसल पर बैसाखी। धनतेरस या दीपावली तक लगभग संपूर्ण भारत में या तो धान की फसल आ चुकती है या आने वाली होती है। यही वह समय है जब किसान गाढ़े समय के लिए संग्रहित किया गया अनाज बाजार में बेचता है, क्योंकि एक फसल तो लगभग तैयार ही हो चुकती है, अत: अपनी फसल बेचकर वह आने वाली फसल तक के लिए जरूरत का सामान जुटाता है। आम तौर पर वर्षभर अभावग्रस्त रहने वाला किसान इस समय क्रयशक्ति रखता है। हिन्दू धर्म में धनतेरस का अपना ही महत्व है। इसे मुख्यत: व्यापारियों, व्यवसायी वर्ग का त्यौहार माना जाता है। इस उत्सव की मान्यता धन्वन्तरि देव से जुड़ी होने के कारण धनतेरस का चिकित्सक वर्ग में भी महत्व है। आम तौर पर इस दिन खरीददारी करना अत्यंत शुभ माना जाता है, यही कारण है कि धनतेरस के मौके पर हाट बाजारों क अलावा कपड़ा मार्केट, बर्तन भंडार और सराफा भी खासा गर्म रहता है। गिलासों के सेट से लेकर फर्नीचर, अलमारी, कूलर, फ्रिज, पंखे, ए.सी., सायकल, मोटर सायकल, स्कूटर, कार, टी.वी., रेडियो, वी.सी.डी./डी.वी.डी. प्लेयर्स आदि समस्त वस्तुओं की खरीददारी के लिए इस दिन का लगभग सारे साल इंत$जार किया जाता है। धनतेरस के साथ यह मिथक जुड़ा हुआ है कि इस दिन स्वर्ण खरीदने से सम्पन्नता आती है। इसकी पृष्ठभूमि में भी एक किसान खड़ा नजर आता है, जो भारतीय समाज की वास्तविक मन:स्थिति को स्पष्ट करता है। यहां शासन द्वारा जारी की गई मुद्रा (करेंसी) का निरंतर क्रमिक अवमूल्यन हो रहा है। स्वर्ण के मामले में यह गणना उल्टी हो जाती है, तब क्यों न गाढ़े समय के लिए स्वर्ण खरीद कर भविष्य को सुरक्षित किया जाए। वस्तुत: यह विचार ही धनतेरस पर स्वर्ण की खरीदी को प्रश्रय देता है, किंतु नौकरी पेशा व्यक्ति को, जिसे हर महीने बंधी-बंंधाई तनख्वाह मिल रही है, पी.एफ. तथा पेंशन आदि की सुविधाएं प्राप्त हैं उसे स्वर्ण खरीद कर जमा करने की आवश्यकता क्यों पडऩी चाहिए?
आज का बाजार इन मान्यताओं से भली-भांति अवगत है, यही कारण है कि दीपोत्सव के दौरान बाजार में अनेक किस्म की ग्राहक पटाओ योजनाएं प्रस्तुत हो जाती है। नामी गिरामी कंपनियों की पैकेज डील और डिस्काउंट योजनाएं तो महीनों पहले से प्रारंभ हो जाती है। पुन: यदि हर व्यक्ति सोना ही खरीदना चाहे तो बाकी बाजार ठप्प ही हो जाएगा, साथ ही सोना खरीदना सबकी क्षमता के अंदर भी नहीं होता। अत: अन्य उत्पाद भी त्यौहारों के समय उपभोक्ता की जेब पर हमला बोलने को तैयार रहते हैं। पहले स्वर्ण न खरीद पाने की दशा में लोग स्वर्ण जैसी दिखने वाली धातुओं यथा पीतल व कांसे के बर्तन खरीदा करते थे। स्टेनलैस स्टील के आविष्कार के बाद रसोईघरों से कांसे व पीतल के बर्तन गायब होते चले गए और अल्युमीनियम और स्टील उनके स्थानापन्न बन गए। आज भी मध्यमवर्ग का एक बड़ा भाग धनतेरस पर बर्तन खरीदने को महत्व देता है। किंतु सारी भीड़ बर्तन बाजार ही खींच ले यह बाकी बाजार कैसे बर्दाश्त कर सकता है। अत: इलेक्ट्रिकल्स, ऑटोमेटिक्स और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से अटे पड़े गोदामों में हलचल सी आ जाती है। आज बाजार ने हमारी नब्ज को पकड़ते हुए नवरात्रि से दीपावली तक के समय को खरीददारी महोत्सव में परिवर्तित कर दिया है। दक्षिण भारत मेें यह खरीददारी महोत्सव ओणम के अवसर पर होता है, जिसकी उत्तर भारत को खबर भी नहीं होती। खरीददारी महोत्सव की चकाचौंध एवं शोर में उत्सव की मूल भावना नेपथ्य में धकेल दी जाती है। ख्यातिप्राप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर स्वदेशी उत्पादों तक के अनेक लुभावने विज्ञापन, सुनहरे स्लोगन और रूपहले दावे और वादे उपभोक्ता को भ्रमित कर देते हैं। हाल ही में किए गए एक सर्वे से ज्ञात हुआ है कि बाजारवाद की हवा में बह कर अमेरिका व ब्रिटेन के संपन्न वर्ग ने अरबों डॉलर की ऐसी वस्तुएं अपने घरों में जोड़ रखी हैं जिनकी लम्बे समय से पैकिंग तक नहीं खोली गई है। मात्र क्रयशक्ति प्रदर्शन हेतु और विज्ञापनों से प्रभावित होकर किया गया फिजूलखर्च। हर नयी वस्तु खरीदने की मनोव्याधि से ग्रसित पश्चिम इस बीमारी को निभाने लायक क्रयशक्ति भी रखता है, वहां शॉपिंग जरूरत न होकर शगल है, लेकिन क्या भारतीय मध्यम व निम्न वर्ग मात्र चमकदार प्रचारों से प्रभावित हो कर अपनी चुंधियायी आंखों के साथ बाजार में घुस जाता है….? आज भारतीय बाजार भी विलासिता से जुड़े सैकड़ों-हजारों सामानों से पट गया। हां, यह भी ध्यान देने योग्य है कि हम आवश्यकता के अनुसार धन खर्च करते हैं, न सिर्फ करने के लिए धन खर्च करते हैं। यही कारण है कि हम चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में विश्व मंच पर उभरे हैं। फिर भी बाजार ने भारतीय उपभोक्ता की मानसिकता को बदलने के लिए आज नई रणनीति तैयार कर ली है। जाने कितने समय से भारत में दीपावली की रात जुआ खेलने की कुप्रथा जड़ें जमाए बैठी है। हमारे धर्मग्रंथों में जुए के विरोध में लिखे उपदेश भी इस समय बेमानी हो जाते हैं। साल भर के संत भी इस दिन रस्म अदायगी के नाम पर जुआरी बन ही जाते हैं। बाजार नई आक्रामक विपणन नीति में इस जुए को एक सशक्त प्रलोभन के रूप में प्रस्तुत करता है। अपनी संशोधित, परिष्कृत व आक्रामक विपणन नीति तथा उच्च गुणवत्ता के कारण भारतीय बाजार के एक बड़े भाग पर मल्टीनेशनल्स ने कब्जा जमा लिया है और इसे चिरस्थायी या सदाजीवी बनाए रखने के लिए आज बाजार ने त्यौहारों पर जुआ खेलने की पॉलिसी को खरीददारी का एक आवश्यक अंग बना दिया है। भारतीयों का भाग्यवादी स्वभाव भी इस हेतु उत्प्रेरक का काम करता है। त्यौहारों के समय शायद ही ऐसी कोई बड़ी ची$ज उपलब्ध होगी, जिसके साथ लकी ड्रॉ, स्क्रेच कार्ड, फ्री स्कीम, निश्चित उपहार, सौभाग्यवर्षा, नारियल फोड़ो, लूट लो, पटाखा फोड़ो, हवा निकाल दे…., जीतो छप्पर फाड़ के, स्क्रेच एण्ड विन जैसी योजनाएं न हों। वाशिंग मशीन या फ्रिज आदि की खरीददारी के साथ हर स्क्रेचकार्ड पर निश्चित उपहार…. लक्ष्मी आपके द्वार जैसी लुभावनी पंक्तियों से प्रभावित और शोरूम में नुमाइश में रखी मोटर बाइक, टी.वी. आदि देखकर आप शोरूम में घुसते हैं और निर्धारित कीमत चुका देने पर जब कार्ड स्क्रेच करते हैं तो उसमें 500 या 800 की (मुद्रित) कीमत वाला घटिया सा टोस्टर आपको सधन्यवाद थमा दिया जाता है। क्यों भाई…. यदि आप इसे लेना अस्वीकार करें तो भी निर्धारित कीमत में से 500 या 800 रूपये मजाल है कि आपको वापस दिए जाएं। स्पष्ट है कि इस टोस्टर की कीमत वस्तु में पहले से जुड़ी है अर्थात यह फोर्स सेलिंग है। वास्तविकता यह है कि इन उपहार योजनाओं के माध्यम से मल्टीनेशनल्स आपको अपने यहां का घटिया, बचा-खुचा और छंटा-छंटाया माल पकड़ा देते हैं। लेने वाला भी खुश कि चलो एक सामान फ्री मिला और बेचने वाला भी कि भागते भूत की लंगोट सही। बुंदेलखंड में एक कहावत है कि जो न भाए आपको, देओ बहू के बाप को। इसी तर्ज पर जो सामान और कहीं न बेचा जा सके वो यहां इम्पोर्टेड क्वालिटी का तमगा लगा कर कुछ कम कीमत पर बेच दिया जाता है। फ्री स्कीम्स के जरिए मल्टीनेशनल्स भारतीय बाजार को डम्पिंग ग्राउंड बना रही हैं। भारत में, त्यौहारों के देश में त्यौहारों से जुड़ी मान्यताएं उन्हें इस हेतु प्रोत्साहित भी करती है। आज बाजार में एक ख्यातिप्राप्त कंपनी का माइक्रोवेव ओवन 6000 रूपये में उपलब्ध है साथ ही 4000 रूपये का एक शानदार डिनर सेट, दस्ताने और कुकिंग स्पेशल सी.डी. भी खास आपके लिए…. ठीक है भाई….. हमें डिनर सेट नहीं चाहिए, क्या आप 2000 रूपये में माइक्रोवेव दे सकते हैं….. जरा पूछ कर तो देखिए, नि:संदेह दुकानदार आपको बाहर का रास्ता दिखा देगा। आज बाजार आपको वह सामान भी थमा देता है जिसकी जरूरत आपको है ही नहीं। भारतीय मध्यम व निम्न वर्ग सब्जी, किराना व अन्य जरूरत के सामान लेने शॉपिंग करता है, शगल या शौक के लिए उसके पास पैसा नहीं है। ऐसे में लुभावने झूठे विज्ञापनों व आक्रामक विपणन नीतियों द्वारा उसे जुआ खिलाना और अनुपयोगी या कम उपयोगी वस्तुओं को खरीदने के लिए प्रेरित करना सरासर अनैतिक है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत यह दूषित व्यापार वृत्ति होने के कारण अवैध और आपराधिक है एवं दंडनीय भी है। भारतीय उपभोक्ता को सामान बेचने का एक ही मूलमंत्र है कि सामान कम मुनाफे के साथ उन्हें बेचा जाए, उत्पाद की कीमतें कम की जाएं। चीन ने यह युक्ति आजमाई और भारतीय बाजार को सस्ते खिलौने व अन्य इलेक्ट्रॉनिक आइटमों से पाट दिया। उसे जबर्दस्त स्वीकार भी मिला लेकिन अतिशीघ्र घटिया गुणवत्ता के कारण वे चीजें भारतीय उपभोक्ता के दिमाग से उतर गईं। संदेश एकदम साफ है… भारतीय उपभोक्ता कम कीमत पर कम गुणवत्ता वाली वस्तु नहीं लेगा क्योंकि वह सस्ता रोए बार-बार पर विश्वास करता है। महंगा खरीदने की उसकी क्षमता कम है अत: उच्च गुणवत्ता का सामान उसे उचित कीमतों पर मिले। उसके साथ कोई लॉटरी या जुआ न हो, अनुपयोगी चीजें न थमाई जाए तो वह इन उत्पादों को जरूर खरीदेगा। यदि कोई वस्तु एक की कीमत पर दो बेची जा रही है तो आधी कीमत पर एक क्यों नहीं बेची जा सकती? खरीददार भी तार्किक रूप से सोचे कि यदि धनतेरस के दिन कुछ खरीदने से घर में संपन्नता आती है, तो कुछ बेचने से विपन्नता नहीं आएगी क्या? ऐसेे में दुकानदार तो कंगाल हो जाता होगा। यह आम आदमी के विश्लेषण का विषय है कि धनतेरस पर व्यापारी-व्यवसायी कितना मुनाफा कमाते हैं। वस्तुत: धनतेरस खरीदने का नहीं बेचने का दिन है। धन गंवाने का नहीं कमाने का दिन है। आधुनिक धन्वंतरि भी हर संभव तरीके से पैसा पीटने में लगे हैं। फिर आप क्यों पीछे रहें… हो सके तो अपने घर का कबाड़ा और अनुपयोगी वस्तुएं बेचकर कुछ धन कमा लें। वैसे दीपावली सफाई का त्यौहार भी है। इस समय से गुलाबी जाड़ा आरंभ हो जाता है। प्रात: स्वच्छ हवा में टहलने का संकल्प करें। इससे आपको उत्तम स्वास्थ्य का धन प्राप्त होगा, जो किसी भी ऊलजुलूल खरीददारी से कहीं बेहतर है।

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