
संजय सोंधी, उप सचिव, भूमि एवं भवन विभाग, दिल्ली सरकार
नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले 80 वर्षों से चली या रही अमेरिका की कूटनीति और अर्थनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया हैं इससे संपूर्ण विश्व में एक अजीब सी बैचेनी व्याप्त हैं । डोनाल्ड ट्रंप ने अपने यूरोपीय साथियों को भी त्याग दिया है और एक प्रकार से यह कह दिया है कि वे अपनी रक्षा का दायित्व खुद संभाले। अभी तक अधिकांश पश्चिमी यूरोप NATO के सुरक्षा तंत्र के अंतर्गत आता था जिसका अधिकांश व्यय अमेरिका ही वहन करता था। इसी प्रकार यूक्रेन को भी अपने भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया हैं जिसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉ बाइडन ने हर संभव मदद करने का वादा किया था और आर्थिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की थी। अब डोनाल्ड ट्रंप सीधे रूस से सामान्य संबंध स्थापित कर रहे है ताकि वे अपना ध्यान अमेरिकी अर्थव्यवस्था को निवेश के माध्यम से मजबूत बनाने में लगा सके। उन्होंने जापान और दक्षिण कोरिया को भी अपनी सुरक्षा का भार स्वयं उठाने को कहा हैं। यह देश अभी तक अमेरिकी सुरक्षा तंत्र के तहत आते थे।
डोनाल्ड ट्रंप चाहते है कि अमेरिका में आयात कम हो और निर्यात ज्यादा हो। उनकी इच्छा ये भी हैं कि विश्व की अधिकांश कम्पनियाँ अमेरिका में ही आकर अपनी उत्पादन इकाइयां स्थापित करे। जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार प्राप्त हो सके। अपने इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने दूसरे देशों पर टेरिफ़ (प्रशुल्क) लगाने का कार्य प्रारंभ कर दिया हैं। इसका अन्य देशों ने भी टेरिफ़ लगाकर जवाब दिया हैं, एक ‘टेरिफ़ वार’ की शुरुआत हो चुकी है।
इस प्रकार विश्व ड़िग्लोबलाईजेशन की ओर तेजी से बढ़ चुका है । डोनाल्ड ट्रंप कि आर्थिक नीतियों के कारण वैश्विक GDP में मंदी आने के पूर्ण आसार हैं और यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी जरूर प्रभावित करेगा। डोनाल्ड ट्रंप की आर्थिक नीति इस रूप में भी अव्यवहारिक हैं कि अमेरिकी श्रमिकों का वेतन अन्य देशों के श्रमिकों की तुलना में अधिक हैं। इस कारण अमेरिका में वस्तुओं का उत्पादन मूल्य ज्यादा होगा और ऊँचे टेरिफ़ (प्रशुल्क) के कारण आयात की जाने वाली वस्तुएं और महंगी हो जाएंगी, जो ऊँची मुद्रा स्फीति को जन्म देकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कमजोर करेंगी। चीन, वियतनाम तथा मेक्सिको आदि देशों में बनी वस्तुएं एक प्रकार से अमेरिकी उपभोक्ताओं को राहत ही प्रदान करती थी। अमेरिका ने अपने आपको विश्व मंचों से पृथक करना प्रारंभ कर दिया हैं। वह विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग हो चुका हैं और US AID के माध्यम से चलने वाली परियोजनाएं भी बंद की जा चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व व्यापार संगठन से भी पृथक होने कि संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। अमेरिका पहले ही पेरिस जलवायु समझौते से अलग हो चुका हैं। इस प्रकार अमेरिका ने अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हट कर अपनी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को धूमिल ही किया हैं। पनामा नहर और ग्रीनलैंड को जबरदस्ती हथियाने की धमकी ने आग में घी डालने का ही कार्य किया हैं। स्पष्ट हैं कि डोनाल्ड ट्रंप वैश्विक स्तर पर अमेरिका के हस्तक्षेप को कम करके धन की बचत करना चाहते हैं और इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेश कर “MAKE AMERICA GREAT AGAIN” के अपने नारे को साकार करना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपने पुराने विश्वस्त साथी देशों को भी त्यागने को तैयार हैं तथा परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रूस के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने के लिए भी राजी है। जबकि रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण करके उसके एक बड़े भू भाग पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया हैं । इस प्रकार नियम आधारित विश्व व्यवस्था कि धज्जियाँ उड़ चुकी है। डोनाल्ड ट्रंप के इन सारे कार्यों से अमेरिका कि हार्ड पावर और सॉफ्ट पावर की प्रतिष्ठा जाती रहेगी। अमेरिका एक महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान भी खो सकता हैं। लगभग इसी प्रकार के कार्य 80 के दशक में सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गौरवाचाइफ़ ने पेरस्थ राइका (पुनर्गठन) और ग्लोसनाथ (खुलापन) के तहत किए थे। जिसने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सोवियत संघ कि भूमिका को बहुत सीमित कर दिया था। जिसका परिणाम हमें सोवियत संघ के विखंडन और एक महाशक्ति के समापन के रूप में देखनें को मिला था। अगर नियम आधारित विश्व व्यवस्था चरमरा जाती हैं तो विश्व कई ब्लॉक में बंट जाएगा जिनका नेतृत्व अमेरिका, रूस और चीन कर रहे होंगे। एक अन्य ब्लॉक यूरोपीय देशों का भी होगा। इससे सम्पूर्ण विश्व में भयंकर असंतुलन की स्थिति निर्मित हो सकती हैं। इस प्रकार क्या इतिहास अपने आप को दोहराने जा रहा है (जैसा कि सोवियत संघ के संबंध में घटित हुआ था) यह एक यक्ष प्रश्न हैं? (लेख में लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और इनका उसके नियोक्ता से कोई भी संबंध नहीं हैं।)