
स्वतंत्र लेखक- इंद्र यादव
भारत, जो अपने आपको विश्वगुरु और नारी शक्ति का प्रतीक बताता है, एक ऐसी भूमि है जहां संस्कृति, सभ्यता और आध्यात्मिकता की गंगा बहती है। मगर इसी देश की गलियों, सायों और अंधेरे कोनों में एक ऐसी सच्चाई छिपी है, जो समाज की चमक-दमक के पीछे की काली सच्चाई को उजागर करती है। यह है वेश्यावृत्ति में फंसी उन असंख्य नारियों की कहानी, जिनका दर्द न तो समाज सुनता है, न ही सत्ता की गलियारों में उसकी गूंज पहुंचती है। वेश्यावृत्ति, जिसे समाज “पाप” का पर्याय मानता है, उन औरतों के लिए अक्सर मजबूरी का परिणाम होती है। गरीबी, भुखमरी, पारिवारिक हिंसा, तस्करी और सामाजिक उपेक्षा ऐसी जंजीरें हैं, जो इन महिलाओं को इस दलदल में धकेल देती हैं। एक बार इस दुनिया में कदम रखने के बाद, न तो समाज उन्हें अपनाता है, न ही उनके लिए कोई रास्ता छोड़ता है। उनकी जिंदगी नरक बन जाती है, जहां हर रात एक नया दर्द, एक नई यातना लेकर आती है। भारत में वेश्यावृत्ति कोई नई समस्या नहीं है। मुंबई के कमाठीपुरा, दिल्ली के जीबी रोड, कोलकाता के सोनागाछी जैसे क्षेत्र दशकों से इस कड़वी सच्चाई के गवाह हैं। यहां लाखों महिलाएं और बच्चियां, जिनमें से कई नाबालिग हैं, हर दिन शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण का शिकार होती हैं। उनकी आवाजें उन तंग गलियों में दबकर रह जाती हैं, जहां समाज की नजरें पहुंचने से कतराती हैं। भारत में नारी को देवी का दर्जा देने की बात तो खूब होती है, लेकिन इन महिलाओं को न तो देवी माना जाता है, न ही इंसान। समाज उन्हें तिरस्कार की नजरों से देखता है, मानो वे इस दुनिया में सबसे निचले पायदान की हकदार हों। पुलिस और कानून व्यवस्था, जो उनकी रक्षा के लिए होनी चाहिए, अक्सर उनके साथ सबसे क्रूर व्यवहार करती है। दलालों और ग्राहकों के हाथों शोषण के बाद, समाज और सिस्टम का यह रवैया उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम करता है। कई बार इन महिलाओं को इस पेशे में धकेलने वाले उनके अपने ही होते हैं—पति, पिता, भाई या प्रेमी। मानव तस्करी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल हजारों लड़कियां और महिलाएं इस दलदल में फंस जाती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में मानव तस्करी के 2,250 से अधिक मामले दर्ज किए गए, जिनमें से ज्यादातर पीड़ित महिलाएं और बच्चियां थीं। यह केवल आंकड़े हैं; असल संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि कई मामले तो दर्ज ही नहीं होते। वेश्यावृत्ति में फंसी महिलाओं को न केवल सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, बल्कि उनकी सेहत भी खतरे में रहती है। एचआईवी/एड्स, यौन संचारित रोग, और अनचाहे गर्भधारण जैसी समस्याएं उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच सीमित होती है, और अगर होती भी है, तो डॉक्टर और अस्पताल स्टाफ का रवैया अक्सर अमानवीय होता है। इन महिलाओं के बच्चों का भविष्य भी अंधेरे में डूबा होता है। मां की “पहचान” उनके माथे पर एक कलंक बनकर चिपक जाती है। शिक्षा, सम्मान और सामान्य जीवन उनके लिए एक सपना बनकर रह जाता है। कई बच्चियां, जो इस माहौल में पलती हैं, वही रास्ता अपनाने को मजबूर हो जाती हैं, और यह दुष्चक्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। भारत में वेश्यावृत्ति को कानूनी रूप से नियंत्रित करने की बात लंबे समय से चल रही है, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। कुछ लोग इसे वैध करने की वकालत करते हैं, ताकि इन महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, सुरक्षा और सामाजिक सम्मान मिल सके। लेकिन वैधता का सवाल भी अपने आप में जटिल है, क्योंकि यह मानव तस्करी और शोषण को और बढ़ावा दे सकता है। सबसे जरूरी है इन महिलाओं को इस दलदल से निकालने के लिए ठोस पुनर्वास योजनाएं। शिक्षा, रोजगार और सामाजिक स्वीकृति के अवसर प्रदान किए बिना, केवल कानून बनाकर इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। गैर-सरकारी संगठन (NGOs) जैसे प्रयास और संवेदना इस दिशा में काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी पहुंच सीमित है। सरकार को इन संगठनों के साथ मिलकर एक व्यापक नीति बनानी होगी, जो इन महिलाओं को नया जीवन दे सके। भारत, जो नारी शक्ति की बात करता है, उसे इन महिलाओं की पीड़ा को समझना होगा। विश्वगुरु बनने की राह में, हमें सबसे पहले अपने समाज के उन हिस्सों को उठाना होगा, जो सबसे नीचे दबे हुए हैं। इन महिलाओं को न तो अपराधी माना जाए, न ही समाज का बोझ। वे भी इस देश की बेटियां हैं, जिन्हें सम्मान और अवसर का हक है। उनके दर्द को सुनने का समय अब आ गया है। क्या हम, एक समाज के रूप में, उनकी आवाज बन सकते हैं? क्या हम उनके लिए वह रोशनी ला सकते हैं, जो उनकी जिंदगी के अंधेरे को मिटा दे? यह सवाल हर उस भारतीय से है, जो अपने देश को सच्चा विश्वगुरु बनते देखना चाहता है।




