क्यों हर टॉप पदों पर नौकरशाहों की ही नियुक्ति की जाती है? क्या नौकरशाह के रिटायर होते पर कहीं किसी आयोग का चीफ क्यों बनाया जाता है? क्या नौकरशाह ही सबसे अधिक कार्यशील होते हैं? क्या नौकरशाह ही सबसे ईमानदार होते हैं? क्या चुनाव आयोग का मुख्य आयुक्त बना देना उचित है? क्यों नहीं दोनों उपयुक्तो में को सीनियर हो उसका प्रमोशन नहीं किया जाता? क्या चुनाव मुख्य आयुक्त सीधे किसी रिटायर्ड या तुरंत स्टीफा देने के बाद कर देना नैतिकता है? क्या इससे लोकतंत्र को खतरा उपस्थित नहीं होता? क्या किसी दूसरे विभाग के व्यक्ति मसलन कोर्ट के जस्टिस, सीनियर लायर को में बनाया जाना चाहिए? सच तो यह है कि चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त का पद एडमिनिस्ट्रेशन से कहीं अधिक निष्पक्ष निर्णय और कार्य संपन्न कराना होता है। इसलिए हमेशा ज़रूरी नहीं कि ब्यूरोक्रेट ही मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए जाएं। जस्टिस न्याय करते हैं। उन्हें रिटायरमेंट के बाद राज्यसभा का सदस्य अथवा पारितोषिक के रूप में किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाता है। निश्चित ही किसी जस्टिस का रिरायरमेंट के बाद कोई प्रमुख पद देने का अर्थ है उसने सरकार के पक्ष में निर्णय दिए होंगे। उसी तरह किसी ब्यूरोक्रेट्स को भी रिटायरमेंट के बाद प्रमुख पद सरकार के प्रति वफादारी का पुख्ता सबूत हो सकता है।आखिर क्या वजह है कि रिटायर होने पर किसी आयोग का चीफ बना दिया जाए? क्यों नहीं नियुक्ति के लिए किसी कार्यरत व्यक्ति का चयन किया जाए? रिटायरमेंट के एक महीने पूर्व ही ब्यूरोक्रेट का स्टीफा लेना और उसी दिन कानून मंत्रालय, पी एम ओ और राष्ट्रपति कार्यालय विद्युत गति से कार्य करने लगे और उसी दिन चौबीस घंटे के भीतर नियुक्ति संदेह उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त कारण है।आर बी आई के गवर्नर ऊर्जित पटेल को नोट बंदी का समर्थन करने का प्रसाद अथवा पुरस्कार देना क्या उचित था जबकि उनके पूर्व गवर्नर बेहद अच्छा कार्य कर रहे थे? आखिर गवर्नर रघु राजन का क्या कसूर था सिवाय नोट बंदी के प्रति समर्थन नहीं करने के।वे अनुभवी और योग्य व्यक्ति थे। जानते थे कि नोट बंदी का हश्र क्या होगा? न कालाधन बाहर आया न कोई भ्रष्ट गिरफ्तार किया गया। उलटे लाखों करोड़ ५०० और २००० की करेंसी बाजार से गायब हो गई। उस धन को कालेधन के रूप में या तो टैक्स हेवन देश के बैंकों में जमा कर दिया गया हो या चुनाव लडने में लगाया गया हो। मुख्य चुनाव आयुक्त की तत्परता से चौबीस घंटे में इस्तीफा लेकर नियुक्ति बताती है कि दाल में काला ज़रूर रहा है। इसीलिए सुप्रीमकोर्ट में याचिकाएं डाली गईं और सुनवाई करते हुए संविधान पीठ ने एक समिति का फैसला किया जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्षी नेता या अधिक सांसदों वाले विरोधी दल का नेता और सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस मिलकर नियुक्ति करेंगे। काश यही प्रक्रिया आर बी आई के गवर्नर की नियुक्ति में भी लागू होता।