Saturday, December 13, 2025
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व्यंग्य: फ्लाइट का झमेला, अनोखा या अलबेला

मुकेश ‘कबीर’
आजकल फ़्लाइट का ब़ड़ा लोचा है, इतनी ज्यादा रद्द हो रही हैं कि उनको रद्दी कहना भी गलत नहीं लगता। खैर मामला जो भी हो लेकिन एक बात तो साफ़ हो गई कि आदमी कितना भी हवा में उड़ ले, कभी ना कभी तो जमीन पर आना ही पड़ता है। और जब ज़मीन पर आता है तो उसको जमीनी हक़ीक़त दिखाई देती है। तब पता चलता है कि फ्लाइट से जो गाँव दिखते हैं असल में वो शहर हैं, और जो जगह खाली दिखती है वो कोई गाँव है, वहां लोग रहते हैं।जमीन और आसमान में बहुत फर्क है, पानी और वॉटर का फर्क़, मील और रोटी का फर्क़। ऊपर सिर्फ पानी भी मंगाये तो एक खूबसूरत सफेद झक्क लिपि पुती होस्टेस लेकर आती है,तब पानी में भी सोमरस का स्वाद आता है,तब वो पानी नहीं वॉटर होता है जिसे पिया नहीं जाता चाटना होता है,जिसे ऊपर सिप करना बोलते हैं। लेकिन रमेश बाबू को तो एक चुल्लू पानी की कीमत ट्रेन में पता चलती है, तब उन्हें समझ आता है कि ऊपर जितने में हमने एक चुल्लू पानी खरीदा उतने में तो नीचे लोगों की जिंदगी चल रही है। नीचे लोग सफर करते हैं। जो घर से कुछ खाकर नहीं आते और रास्ते में भी कुछ नहीं खा सकते तब वे पानी पीकर ही सफर पूरा करते हैं। यहां पानी कोई खूबसूरत बाला लेकर नहीं आती बल्कि कोई बाबूलाल लेकर आता है जिसे हम गरीब समझकर हिकारत की नजर से देखते हैं लेकिन वो बाबू लाल तब एक झटके में ही अमीर लगने लगता है जब आपके पास खुल्ले पैसे नहीं होते और आप बड़ा नोट देने से डरते हैं तब वह प्रेम से बोलता है कोई बात नहीं बाबूजी पैसे बाद में दे देना। तब हमें अमीरी और गरीबी में एक स्पष्ट फर्क़ दिखाई देता है। ऊपर हम थोड़ी थोड़ी देर में कुछ खाना पीना मंगा सकते हैं लेकिन नीचे की हक़ीक़त बिल्कुल ही अलग है, यहां कई लोग पूरे दिन भूखे रहकर यात्रा करते हैं, वे स्टेशन पर खाना लेने इसलिये नहीं उतरते कि कहीं सीट ना चली जाये और ट्रेन का खाना इसलिए नहीं खाते कि कहीं यहीं सफर पूरा न हो जाये। अब ट्रेन के खाने का रिकॉर्ड प्लेन के खाने जैसा तो है नहीं, इसीलिए सरकारों ने ऑप्शन दे दिया कि ट्रेन का खाना नहीं खाना तो बाहर से ऑर्डर कर दीजिए अगले स्टेशन पर खाना मिल जायेगा लेकिन अब तो बाहर वाले भी भरोसे लायक नहीं रहे। उनको भी पता है कि मुसाफ़िर है, ऊँच नीच हो भी गई तो कौन सा वह पुलिस में रिपोर्ट करने आएगा। यहां तो फंडा एकदम साफ़ है जाने वाले कभी नहीं आते, उनकी सिर्फ याद आती है… नीचे एक फर्क़ और है, उतरने के बाद लगेज का वैसा चक्कर नहीं रहता, ऊपर से जब आप उतरते हैं तो उसके लिए कोई खास अकल लगाने की जरूरत नहीं पड़ती, आपको एक नशीली आवाज सब बता देती है कि अब बेल्ट खोल लें, अब खड़े हो जाएँ, अब लगेज कैरियर का ढक्कन खोल लें और अब चलना शुरू करें, मतलब सब कुछ रेडीमेड, वो तो स्टाफ की कमी होती है वर्ना आपको हाथ पकड़कर उतार भी देती। हाथ पकड़ने का सुनकर ही फुरफुरी होने लगी न? यही मजा है ऊपर लेकिन यहां नीचे कोई आपको कहने वाला नहीं कि अब उतर जाएँ, यहां तो उतरने के लिए भी ताकत लगानी पड़ती है, जिसमें ताकत नहीं वो ठीक से उतर भी नहीं सकता। यहां आपका लगेज भी खुद ही उठाना है कोई चकरी नहीं लगी जिसके पास खड़े होकर अपने लगेज का स्वागत करें, यहां तो लगेज सबसे पहले उठा लें नहीं तो कोई और भी ले जा सकता है। सबको जल्दी होती है उतरने की और दूसरों का लगेज उठाने वाले तो ज्यादा ही जल्दी में रहते हैं इसलिए बाबू जरा बचके रे…सामान चला गया तो सरकार भी कुछ नहीं कर पाएगी क्योंकि हमारी सरकार तो पहले ही कह चुकी है कि यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करें, सरकार को अपनी कार्यप्रणाली पर इतना भरोसा है ,उन्हें पता है कि हम किसी का सामान बचा नहीं सकते इसलिए सब अपना ध्यान रखें, आखिर आत्मनिर्भर भी तो बनना है कि नहीं? वैसे भी सरकार का पूरा टाइम कुर्सी बचाने में निकल जाता है फिर आपका सामान कहाँ से बचाएगी और फिर याद रखो कि यह ज़मीन है यहां ऊपर की तरह भौंदू बनकर नहीं रह सकते, यहां का सफर एकदम अलग है पूरी तरह सेल्फ डिपेंड ,चल अकेला चल अकेला चल अकेला….
किसी का शेर सुनिए…
आसमाँ से ज़मीं पर आ जाओ,
जहां थे तुम वहीं पर आ जाओ…

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