
सहकारिता की शक्ति अपार, इन किसानों के लिए ना मंडी जरूरी और ना एमएसपी मजबूरी
पुणे: (Pune) उसके लिए ना तो मंडी जरूरी है और ना ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मजबूरी। वह उठा और सहकारिता की शक्ति को आजमाकर कुशल नेतृत्व के साथ 131 गांव के 10 हजार से अधिक किसानों को अपने साथ जोड़ लिया। सबने मिलकर खेत से उपजे फल और सब्जियां न केवल महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में, बल्कि दुनिया के 42 देशों तक पहुंचा कर अपनी किस्मत की इबारत सुनहरे अक्षरों से लिख ली है। इन्हें कभी किसी सरकार के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई।
नासिक क्षेत्र के एक छोटे से गांव का निवासी विलास शिंदे एक छोटा किसान था। कुछ वर्ष पहले उसने सिर्फ 2 एकड़ अंगूर की खेती की। बाजारों, मंडी के धक्के खाते खाते उसे समझ में आया कि यह लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती, तो उसने अपने पास पड़ोस के किसानों से चर्चा कर उन्हें अपने साथ जोड़ा और काम करने का तरीका बदल डाला।
शिंदे ने अपनी सूझबूझ से एक कंपनी की स्थापना कर डाली। बड़ी संख्या में किसानों को संगठित किया और अंगूर की खेती शुरू की। सहकारिता के आधार पर चलने वाली उसकी इस कंपनी में अब तक 131 गांवों के 10 हजार 500 किसान जुड़ चुके हैं। इनमें 1250 किसान 6000 एकड़ में सिर्फ अंगूर की खेती करते हैं। शिंदे की कंपनी इन किसानों को न सिर्फ अंगूर के उन्नत किस्म के पौधे उपलब्ध कराती है, बल्कि फसल की देखरेख में भी सहायता करती हैं।
42 देशों में हो रहा निर्यात
अंगूर टूटने के बाद उनकी पैकेजिंग ठीक से करवाई जाती है तथा यूरोप, रूस और खाड़ी समेत 42 देशों में उनका निर्यात किया जा रहा है। देश से अंगूर के निर्यात में 20 फ़ीसदी हिस्सा शिंदे की इस एकमात्र कंपनी का है। पिछले साल शिंदे की इस कंपनी से 22 हजार टन अंगूर निर्यात किया गया।
कोरोना काल में भी बिक्री
कोरोना काल के दौरान जब सब्जियों, फलों की दुकानें बंद रहने लगी, आवागमन ठप हो गया तब शिंदे ने ई-कॉमर्स एवं नाशिक, पुणे, मुंबई में स्थित अपने 12 आउटलेट के जरिए फलों एवं सब्जियों की बिक्री जारी रखी। अकेले मुंबई की 850 हाउसिंग सोसाइटी में शिंदे की ताजा सब्जियां और फल लगातार पहुंचते रहे।
मंडी तक जाने की जरूरत ही नहीं
विलास शिंदे बताते हैं कि सहकारिता के आधार पर चलने वाली इस पूरी प्रक्रिया में 24 से 30 घंटे के अंदर ताजे उत्पाद खेतों से निकलकर ग्राहकों तक पहुंच जाते हैं। कई बार ग्राहकों को दाम भी कम देना पड़ता है । किसानों को कृषि मंडी तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती। उत्पाद की बर्बादी कम होती, इसका पूरा लाभ कंपनी को होता है, जो किसानों को उनके उत्पाद के अनुपात में लाभांश के रूप में बांट दिया जाता है।
सरकार से कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी
विलास शिंदे बताते हैं कि उन्होंने शुरू में ही सोच लिया था कि हमें सरकार की मदद मिले ना मिले, अपने दम पर आगे बढ़ना है। फलों, सब्जियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान वैसे भी नहीं है। गुजरात की अमूल पद्धति से सहकारिता के आधार पर उत्पादन और विपणन का तौर तरीका अपनाने से मंडी की भी जरूरत खत्म हो गई।