सच यह है कि सनातन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन और अपौरुषेय धर्म है। जिसकी स्थापना किसी भी पुरुष ने नहीं किया है। विश्व भर में फैले सनातन धर्म के चार स्तंभ हैं। पाखंडी अज्ञानी धूर्त धन के लोभी बाबा जिनका मकसद है आध्यात्म को धर्म बताकर शिष्यों और भक्तों को लूटना और अपने लिए हजारों अय्याशी के आश्रम निर्माण कर सुख भोग करना। वे ढोंगी बाबा सनातनधर्म का ए बी सी डी तक नहीं जानते। उन्होंने कहीं से सुन रखा है कि सनातनधर्म के चार पाए यानी स्तम्भ हैं। ये चार स्तंभ कौन से हैं यह उन्हें ज्ञात नहीं। ऐसे भक्त जो पाखंडी बाबाओं के भक्त या शिष्य बने हैं वे जरूर अपने को भगवान बताने वाले बाबाओं से चार स्तंभ कौन कौन से हैं अवश्य पूछें। आगे चलकर सनातनधर्म के चार स्तंभों की चर्चा करेंगे। इस लेख का मकसद किसी की खिल्ली उड़ाना नहीं, सच्चाई से आम भोले जनों को जागरूक करना है। ऐसे पाखंडी धूर्त बाबाओं और पंडे पुजारियों के साथ ही कर्मकांडियों ने सनातनधर्म को विकृत किया। जनता इतनी भोली है जो किसी बाबा के चमत्कार को सच मानकर उसे ही अपना सर्वस्व मान लेती और पूजा करने लगती है। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद। इनमे पूजा पद्धति, इंद्र पूसा अग्नि वायु और वरुण देव की ही पूजा की गई है। ऋचाएं हैं जिन्हें श्लोक कह सकते हैं। इनका संकलन विभिन्न ऋषियों ने अपनी अपनी अनुभूति के अनुसार किया है। वेदों के उपरांत छः शास्त्र और उपनिषद आदि को उत्तर वैदिक काल में रचा गया। महर्षि द्वेपायन जिन्हें वेद व्यास कहा गया है द्वापर युग में अठारह पुराणों की रचना की। वास्तव में महाभारत महाग्रंथ व्यास का लिखा नहीं है। साक्ष्य के अनुसार वेदव्यास ने मात्र दस हजार श्लोकों की रचना करके उसका नाम जय रखा। कालांतर में लोग उसमें जोड़ते गए और जब पचास हजार श्लोक हुए तो विजय नाम रखा गया। इसके बाद भी जोड़ा जाता रहा और एक लाख श्लोक होने पर इसका पुनः नाम परिवर्तित हुआ तो महाभारत रखा गया। हां श्रीमद भगवद्गीता उन्ही की अनुपम रचना है जो विशुद्ध कर्म पर आधारित है जिसमें आत्मा की अमरता बताई गई है। इसके पूर्व त्रेता युग में संस्कृत भाषा में महर्षि बाल्मीकि ने रामायण ग्रंथ की रचना की थी जिन्हें आदि कवि बताया जाता है। ज्ञान विज्ञान गणित रसायन भेषज सर्जरी आकाशीय अध्ययन, ज्योतिष आदि बाद की रचनाएं हैं। जहां तक सनातनधर्म की बात है सतयुग में अपने पूर्णांक पर था। चार स्तंभ सत्य, प्रेम, न्याय और पुण्य हैं। आत्मा में सत्य, परिवार में प्रेम, समाज में न्याय और समष्टि में पुण्य। सतयुग में सनातनधर्म अपने चार स्तंभों पर पूर्णता के साथ खड़ा या स्थापित रहा। तब कोई राजा, प्रजा, पुलिस थाना कोर्ट जज और वकील नहीं था। सबकी इच्छा में अपनी इच्छा समा देना ही सतयुग है। इसके बाद त्रेता में सत्य, न्याय, पुण्य तो पूर्णता में था। परिवार में प्रेम का अभाव होने से कैकेई ने अपने सगे बेटे भरत को राजगद्दी और सौतेले बेटे राम को चौदह वर्षो का वनवास मांगा। यद्यपि भाइयों में परस्पर प्रेम पूर्णता के साथ रहा। भरत का त्याग, लक्ष्मण की राम के प्रति आदर भाव क्या था? गद्दी त्यागकर सिंहासन पर ज्येष्ठ भ्राता राम का प्रतीक चरण पादुका रखकर उसी की आज्ञा से अयोध्या का शासन वह भी राजमहल का वैभव सुख छोड़कर दूर नंदी ग्राम में राम की ही तरह वेश धारण कर शासन कार्य करना भी तो प्रेम और आदर का प्रतीक है। जैसा कि ऊपर इंगित किया जा चुका है। ढोंग और छल छद्म के कारण दुनिया सनातनधर्म का त्यागकर बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, बहावी और सिख पंथ में बंटती चली गई जिसके कारण आज तक लोग दुख भोग रहे हैं। पंथों फिरकों में बंटा आदमी आज एक दूसरे का शत्रु बनकर हत्या लूट करने में जुटा हुआ है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है धूर्तो दुष्टों के मायाजाल के कारण ही विभिन्न पंथ बना लिए गए चंद इगो वाले लोगों के द्वारा लेकिन किसी ने सनातनधर्म के पूर्ण रूप को शुद्धतम तरीके से अंगीकार नहीं किया जिससे लोग भ्रमित होते चले गए। राष्ट्रों ने पृथ्वी पर रेखा खींचकर वसुधैव कुटुंबकम् की हत्या कर दी। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बनकर आतंक से लेकर युद्ध को हथियार बना लिए। लोग दिल से अलग हो गए। द्वापर में सत्य और पुण्य शेष रहा परंतु परिवार में प्रेम और समाज में न्याय नहीं होने के कारण अहंकार बढ़ा, नतीजा महाभारत महाविनाश। आज कलियुग है। सत्य, प्रेम, न्याय लुप्त हो चुका है। शेष केवल पुण्य है। मंदिरों में करोड़ों रुपए के मुकुट चढ़ाने, मंदिर की दीवारों पर सोने के पत्र लगाने, भूखे को भोजन देने को ही पुण्य समझा जा रहा। समष्टि के विनाश के विचार और हथियार निर्मित किए जा रहे। स्वार्थी और अहंकारी हो गए दुनिया के लोग। सच तो यह है कि युग बनाए नहीं जाते। मनुष्य की सोच, कर्म और व्यवहार के अनुसार ही युग बनता है। यह भी शाश्वत सत्य है, यथा राजा, तथा प्रजा अर्थात जैसा गुण धर्म स्वभाव कर्म वाणी राजा की होगी वैसा ही आचरण प्रजा या जनता का भी व्यवहार होता है। इसी तथ्य का फायदा उठाकर बीजेपी नेताओं, आरएसएस, विश्वहिंदू परिषद, बजरंग दल ने सनातनधर्म के स्थान पर हिंदू नमक धर्म बताकर दुनिया भर में धार्मिक विकृति उत्पन्न कर हिंदू धर्म बनाकर धर्म के नाम पर अधर्म करते हुए धर्मप्राण जनता को भ्रमित कर दिया है। एक संस्कृत के श्लोक में हिंदू शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है हिमालय से लेकर दक्षिण इंदु अर्थात समुद्र तक की भूमि पर रहने वाले हिंदू हैं। हिंदू शब्द हिमालय के हि और इंदु के नदू मिलाकर बना है। बता दें कि दुनिया भर में एक मात्र हिंद महासागर ही ऐसा सागर है जो किसी निवासियों के नाम पर है। विश्व भर के समुद्रों के नाम अटलांटिक, आर्कटिक, प्रशांत आदि। सच तो यह है कि हिमालय प्रांगण से लेकर हिंद मसागर के बीच की भूमि के निवासियों के रहन सहन एक होने से इस क्षेत्र के लोगों को हिंदू कहा गया। हिंदू जीवन पद्धति है। अतः हिंदू शब्द की व्युत्पत्ति पारसी अथवा अरबी भाषा में सिंधु को हिंद कहने के कारण हिंदू बना कहने वाले मूर्ख हो सकते हैं या महाधूर्त। इसी तरह आर्य अनार्य और ब्राह्मण मध्य यूरेशिया से आए कहना भी भ्रांति का परिणाम है। आर्य द्रवीन के बीच भेदभाव करना, आर्य को बाहरी बताना निरी धूर्तता और भेदकरी है।जब समूचे भारत में रहने वाले हिंदू हैं और ब्राह्मण और आर्य बाहरी या विदेशी कहना सरासर गलत है। जहा तक आर्य की बात है जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है। संस्कृत के नाटकों में भी अपने से श्रेष्ठ के लिए आर्य कहकर संबोधित किया गया है। आर्यवर्ते भरत खंडे का क्या मतलब है? स्पष्ट है कि आर्यावर्त में ही भरत खंड अथवा भूभाग आता है। फिर आर्य और ब्राह्मणों को बाहरी बताने की मानसिकता विकृति का प्रमाण होगा। आर्य अनार्य और आर्य द्रवीन का भेद निश्चित ही निहित स्वार्थ के कारण बताया जाता है जो विशुद्ध राजनीतिक फायदे के लिए घड़ी गई थियरी है। दुर्भाग्य से वोटबैंक को संगठित करने और उसे अपने पक्ष में हिंदू वोटर्स के ध्रुवीकरण को सर्वथा काल्पनिक और धूर्तता पूर्ण नए धर्म जिसे हिंदू धर्म कहा गया, प्रचारित और प्रसारित किया गया, हिंदुओं को गलत धर्म बताकर भ्रमित किया गया। आज भी हिंदुत्व और हिंदू धर्म के नारे लगवाकर धर्म की जगह अधर्म कराया जा रहा। यहां तक प्रचारित किया गया कि समूचे विश्व में फैला हुआ सनातन धर्म स्मृतियों से भी ओझल हो गया। एक काल्पनिक स्वार्थ सिद्धि का हिंदू धर्म समूचे विश्व को विदित हो गया। यह तो प्राचीनतम धर्म सनातन को नकारने का षडयंत्र जैसा लगता है।आप किसी मुस्लिम बच्चे से भी उसका धर्म पूछिए तो वह मुस्लिम धर्म नहीं कहेगा। इस्लाम बताएगा। उससे कलमा पूछिए तो फटाफट बोलने लगेगा।यहां तक कि इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब का नाम भी उसे याद है। क्योंकि उन्हें अपने घर में इस्लाम सिखाया जाता है। तहजीब नमाज की ट्रेनिंग दी जाती है। मस्जिदों में भी मुस्लिम बच्चों को कुरान और हदीस की तालीम दी जाती है। मदरसे में भी। इसके उलट हिंदुओं यहां तक कि शिक्षित हिंदुओं से, बच्चों को छोड़ भी दें तो उनका धर्म पूछने पर सनातन के स्थान पर हिंदू धर्म बताने लगेंगे। ऐसा इसलिए संभव हुआ है कि नेताओं के भाषण नारे रेडियो टीवी, प्रिंट मीडिया हो या सोशल मीडिया में बस हिंदू धर्म परोसा जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आदर्श हैं। राम की कसम खा खा कर कितना जहर बोया जाता है वर्णित नहीं किया जाता है। पहले मुश्किल से बीस पच्चीस साल पहले अभिवादन में जै रामजी कहा जाता था जिसे ठेठ भाषा में जयरम्मी कहा जाता रहा है। उसमें आदर के भाव झलकते थे लेकिन आज जिस तरह तीव्र ध्वनि में सड़कों मंदिरों में जय श्रीराम के नाते लगाए जाते हैं वे भयभीत करने वाले लगते हैं। आम आदमी सहम जाता है कि कहीं कुछ बुरा होने वाला है। वास्तविकता यह है कि मुसलमानों ने इस्लाम का लगातार प्रचार प्रसार किए। मदरसे मस्जिदों में भी इस्लाम की ही बातें होती रहती हैं लेकिन हिंदुओं में लाखों करोड़ों धर्म के ठेकेदार चाहे वे शंकराचार्य हों या अन्य अपने आश्रम में बै’कर आनंदित होने के अलावा कभी सोचा ही नहीं कि सनातनधर्म और दर्शन की शिक्षा जनता को मिले या दी जाए। आज तो हर कोई शंकराचार्य और जगद्गुरू बनकर पुजायमान होने लगा है। देखते देखते तमाम अज्ञानी अल्पज्ञानी बाबाओं का उदय नित्य हो रहा है। जिन्हें सनातनधर्म का ज्ञान ही नहीं है। वे मजमा जुटाते हैं। खुद को भगवान घोषित कर अपने शिष्यों और भक्तों को नरकगामी बनाते है। अर्थ, मकान, परिजनों को माया बताकर मृत्यु समय खाली हाथ जाने की बात कहते हुए माया के त्याग का आदेश देकर खुद माया बटोरते हैं अपने परिजनों के लिए। उन अल्पज्ञानियों को सतदर्शन का ज्ञान ही नहीं है। निरे अज्ञानी हैं वे। जानते ही नहीं कि भारतीय मनीषियों ने व्यक्ति के चतुर्दिक उत्कर्ष के लिए चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपाय बताए हैं। धन से धन कमाना, धन से काम की पूर्ति करना और तीनों पुरुषार्थ से मुक्ति पाना ही मोक्ष पाना कहा है। बिना सनातनी हुए आप राष्ट्रप्रेमी राष्ट्रभक्त हो ही नहीं सकते क्यों कि सनातनधर्म न्याय की बात करता है। सर्वेभवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम् का घोष करता है।समूची वसुधा को अपना परिवार मानता है। नफरत नहीं प्रेम सिखाता है सनातनधर्म। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरुदेवो भव का आचरण निरूपित करता है। भारत ही नहीं विश्व भी सनातनधर्म से अनुप्राणित रहा है। दुष्ट और स्वार्थलिप धुर्तो, पंडे पुजारियों कर्मकांडियों ने सनातनधर्म में विषबेल बोई जिस कारक विश्व में मान्यताएं विश्वास बदले और अनेकानेक पंथों का उदय हुआ। हिंदू धर्म और हिंदुत्व के ठेकेदार बताएं कि दुनिया में हिंदू ही इस्लाम और ईसाइयत क्यों स्वीकार किया? स्पष्ट है हिंदुओं में जातिवाद, छुआछूत ,अन्याय अत्याचार बढ़ता गया। जिसकी लाठी उसकी भैंस होती गई। इसलिए त्रस्त होकर लोग हिंदुत्व को ठेगा दिखाकर इस्लाम स्वीकार कर रहे हैं। धर्म व्यक्तिगत होता है। धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन मात्र स्वार्थसिद्धि के लिए किया जाता है। जो भी धर्म जातिवाद छुआछूत, भेदभाव करेगा लोग उसे त्यागकर दूसरा धर्म स्वत: स्वीकार कर लेंगे। विडम्बनाएं बहुत सी हैं। हमारे संविधान ने अन्य धर्मों के प्रचार प्रसार के अधिकार दिए जबकि हिंदुओं को वर्जित किया। हिंदू स्कूल कालेज विश्वविद्यालयों में सनातनधर्म की पुस्तकें नहीं पढ़ सकते। गीता रामायण नहीं पढ़ सकते। पहले कुछ नीति परक दोहे रहीम कबीर तुलसी सूरदास के जरूर विद्यालयों में पढ़ाए जाते रहे हैं लेकिन निहित स्वार्थ के चलते उन्हें भी पाठ्यक्रम से निकलवा दिया गया। आंग्लभाषा को प्रधानता देकर संस्कृत भाषा के प्रति वितिष्णा उत्पन्न की गई जबकि सत्य तो यह है कि ज्ञान विज्ञान के समस्त ग्रंथ जिसमें वेद भी है, भारतीय मनीषियों की देन संस्कृत भाषा में ही है। जीतने भी विदेशी वैज्ञानिक हुए, सबने हमारे संस्कृत ग्रंथों पर शोध किए। उन्हें वहां की सरकारों ने संसाधन दिए जिससे पश्चिमी राष्ट्र विकसित हो सके। संस्कृत भाषा के प्रति दुराग्रह देश को अशिक्षित और विपन्ण बनाए रखा। इंग्लिश पढ़े को एडवांस बताकर नौकरियां दी गई। संस्कृत में शिक्षित विद्वानों की उपेक्षा का ही नतीजा है कि स्वयं को हिंदुत्व का पुरौधा कहने वालों के बच्चे संस्कृत विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण नहीं करते। इसरो चेयर मैन को शायद यह कहते हुए कि वेदों से ही विज्ञान का जन्म हुआ है शायद कुछ समझदार लोग अपने बच्चों को संस्कृत सीखने भेजने लगेंगे। स्मरण रहे संस्कृत संस्कार सभ्यता सनातनधर्म वेद ही हमारे राष्ट्र की पहचान हैं। इनकी उपेक्षा कर हम अपना अस्तित्व ही खो देंगे। किसी भी सरकार और राजनीतिक दल का कर्तव्य है अपने देशवासियों के उद्धार समत्व और उन्नति के उपाय करना न कि धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप। सरकारी हस्तक्षेप अथवा निहित स्वार्थ में धर्म को साधन के रूप में दुरुपयोग की छूट नहीं होनी चाहिए। धर्म व्यक्तिगत रुचि श्रद्धा का मामला है। सरकारी हस्तक्षेप से ही सनातनधर्म के स्थान पर झूठे हिंदूधर्म का उदय हुआ है जिससे लोगों में भ्रांति उत्पन्न हुई है। धर्म का प्रचार संत अथवा सन्यासी का दायित्व है। सन्यासी तो बहते निर्मल जलधार जैसा होता है। उसका दायित्व है गांव गांव घुमकर निरंतर लोगों को सनातनधर्म में दीक्षित करे। आयु के अनुसार ४ से २५ वर्षायू के बच्चों युवा को विद्या दीक्षा दे। २५ वर्षयु से ऊपर वालों को गृहस्थ दीक्षा देकर बड़ों का सम्मान छोटों के प्रति स्नेह रखने की शिक्षा दें। गृहस्थ आश्रम में दीक्षित जनों को पारिवारिक धर्म प्रेम की आवश्यकता बताएं। निरंतर चलते रहना सन्यासी का कर्म है चरैवेती चरैवेति। किसी आश्रम भवन का अपने लिए निर्माण सन्यासी को नहीं करना चाहिए। अपने लिए भीख मांगना भी सन्यासी के लिए अनुचित है। लोगों से उपहार स्वीकार कर सकता है परंतु उसमें से अपने लिए आवश्यक व्यय की धनराशि व्यय कर सकता है अधिक राशि को निर्धनों में रोजगार के लिए बांट दे। संचय सन्यासी का धर्म नहीं है।यदि सनातनधर्म का ज्ञान पाकर ७५ वर्ष आयु वाले व्यक्ति सन्यास की दीक्षा लेकर निकल पड़ें घर से तो निश्चित ही पुनः सनातनधर्म की स्थापना संभव होगी।– जितेंद्र पांडेय