नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में शिवसेना मामले को लेकर सुनवाई एक बार फिर टल गई है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट को शिवसेना पार्टी के तौर पर मान्यता देने के चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ यह सुनवाई होनी थी। इससे पहले उद्धव ठाकरे गुट की याचिका पर सुनवाई 31 अक्टूबर को होने वाली थी। लेकिन अब दिवाली के बाद ही इस पर सुनवाई होने की संभावना है। शिवसेना (यूटीबी) प्रमुख उद्धव ठाकरे के खेमे का कहना है कि चुनाव आयोग का फैसला एकतरफा है और इसलिए शीर्ष कोर्ट को इस फैसले को पलट देना चाहिए। शिवसेना पार्टी और धनुष-बाण सिंबल से जुड़ी याचिका पर अब दिवाली के बाद नवंबर में सुनवाई होने की उम्मीद है। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने महाराष्ट्र के सत्ता संघर्ष पर कुछ महीने पहले अपना फैसला सुनाया। हालांकि इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को शिवसेना पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न इस्तेमाल करने का अधिकार दे दिया था। जिस वजह से चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ ठाकरे गुट की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। यह याचिका तब दायर की गई जब सत्ता संघर्ष याचिका पर सुनवाई चल रही थी। लेकिन इसकी सुनवाई नहीं हो सकी थी। उद्धव गुट की याचिका पर आज पहली बार सुनवाई होनी थी। लेकिन ये सुनवाई तीन हफ्ते के लिए टाल दी गई है।
एक गलती पड़ी भारी?
पिछले साल जून महीने में एकनाथ शिंदे ने 40 विधायकों के साथ शिवसेना नेतृत्व के खिलाफ बगावत कर दी थी। इसके बाद उन्होंने शिवसेना पार्टी और चुनाव चिह्न पर दावा किया। चुनाव आयोग के सामने मामले पहुंचा। इस दौरान पता चला कि उद्धव ठाकरे ने पार्टी प्रमुख रहते हुए 2018 में शिवसेना पार्टी के संविधान में बदलाव किया था, लेकिन इसकी सूचना चुनाव आयोग को नहीं दी। 1999 में शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने पार्टी संविधान में बदलाव किये थे। तब उन्होंने चुनाव आयोग से शिवसेना पार्टी के संविधान में अंतर-पार्टी लोकतांत्रिक मानदंडों में किये गए बदलावों पर मुहर लगवाई थी। लेकिन 2018 में हुए बदलावों की जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी गई। सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने पाया कि 2018 में शिवसेना पार्टी संविधान में किए गए बदलाव लोकतंत्र के अनुकूल नहीं हैं। बिना पार्टी चुनाव कराए पदाधिकारियों की नियुक्तियां की गईं। इसके चलते उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने आयोग का विश्वास खो दिया। हालांकि, चुनाव आयोग ने अपना फैसला निर्वाचित जनप्रतिनिधियों यानी संख्या बल के आधार पर दिया था।