Thursday, December 12, 2024
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संपादकीय:- आज का लोकतंत्र ही राजतंत्र है!


राजतंत्र, वंशतंत्र, परिवारवाद और दलबाद एक सिक्के के ही पहलू हैं। राजतंत्र में राजा, उसके सामंत, सेना, जासूस और जनता की निगरानी करने वाले होते थे। एक प्रजापरिषद भी होती थी जिसमें प्रजा के कुछ प्रमुख लोग होते थे। इसके अलावा राजापरिषद में राज्य के मंत्रियों का शुमार होता था। अनेक स्थानों पर सूबेदार और किलेदार होते थे।
समय बदलता गया। वही राजतंत्र क्रमशः वंशतंत्र या परिवारतंत्र बन गया। फिर आया दलतंत्र लेकिन सोच, विचार और कार्यशैली वही राजतंत्र व्यवस्था वाली आज भी बनी है। कहने को जनता कही गई लेकिन आज भी सरकार और दल उसके साथ प्रजा जैसा व्यवहार करते हैं। नाम के अलावा कहीं कोई बदलाव नहीं आया। सबकुछ राजतंत्र जैसा आज भी चल या चलाया जा रहा। सरकार अब सर्वकार नहीं रही या बन पाई। अपने पराए के भाव जस के तस अभी भी शासकों के मन में और कर्म में देखा जा सकता है। मजेदार बात यह कि यह सब लोकतंत्र के नाम पर किया जा रहा।आज भी बहुमत प्राप्त शासक दल स्वयं को जनता का भगवान समझने की भूल करता है।राजतंत्र में राजा का दर्जा भगवान का था।आज भी कमोबेश हालात वही हैं।विकास और व्यवस्था के नाम पर हम जहां से चले थे घूम फिर कर वहीं आ खड़े हो गए हैं।बस गोल गोल घूमना आज भी जारी है। क्षदम धर्मनिरपेक्ष जैसा लोकतंत्र भी क्षद्म बनाकर रख दिया गया है। राजतांत्रिक व्यवस्था जैसा प्रजा का हाल आज जनता का भी है। राजव्यवस्था चाहे जितनी बदली जनता वहीं की वहीं खड़ी अपने भाग्यविधाता सरकार की ओर नजरें गड़ाए खड़ी है। उसके रहन सहन, सामाजिक, आर्थिक हालात हैं जो बदलने का नाम नहीं लेते। आज भी जनता सरकार की प्रजा ही तो है। जिस तरह राजतंत्र में प्रजा के बगावत को कुचलने के लिए राज्य कानून बनाता था ताकि प्रजा को गुलाम बनाए रखा जाय।तब भी प्रजा अनपढ़ थी आज भी जनता अनपढ़ के कलंक से ऊपर उठ नहीं पाई है। जैसे राजा अपनी गद्दी से चिपका रहता था उसी तरह आज शासक सत्ता से चिपके रहने के लिए नाना प्रकार के तिकदम अपनाए हुए रहता है।वह सत्ता से अलग रहना नहीं चाहता। छटपटाहट वैसी ही है। राजतंत्र में प्रजा अधिकारों से वंचित थी आज भी कमोबेश जनता का हाल वही है। जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने का मताधिकार अवश्य संविधान द्वारा प्रदत्त है लेकिन इसके लिए विकल्प अत्यंत सीमित हैं। एक बार अपना प्रतिनिधि चुनने के बाद जनता पांच साल तक बेजार रहने को अभिशप्त बना दी जाती है। सरकार वोट प्रतिशत कम होने को लेकर सरकार शत प्रतिशत वोट डालना अनिवार्य करने के लिए कानून बनाकर दंडित करने का विचार रखती है। सच तो यह है कि अज्ञानी अन्नापद जनता ही शत प्रतिशत वोट करती है। हर प्रत्याशी रुपए , शराब, साड़ी बर्तन बांटकर अधिकतम वोट पाने की कोशिश में रहता है। चुनाव में कई कई करोड़ रुपए व्यय किए जाते हैं फिर पांच साल दौलत का अंबार खड़ा करने और फिर चुनाव लडने के लिए धन जुटाने में लगे रहते हैं। चुनाव इतने महंगे बना दिया गए हैं कि कोई ईमानदार व्यक्ति चुनाव लडने में खुद को असमर्थ पाता है। हर दल को अपने बूते जीतने वाला प्रत्याशी चाहिए। इसलिए माफिया डॉन बलात्कारी बेईमान धूर्त बदमाश डकैत को टिकट देता है ताकि बहुमत पाकर सत्ता हासिल किया जा सके। बुद्धिजीवी वोट देने जानबूझकर वोट डालने नहीं निकलते घर से। नोटा विकल्प ज़रूर दिया गया है लेकिन लोलीपॉप नोटा को कोई कानूनी अधिकार स्प्राप्त है। जब तक केवल सत्पात्रों को अवसर नहीं मिलेगा तब तक वोट प्रतिशत नहीं बढ़ सकता। मतदान साथ प्रतिशत होते हैं जिसमें चालीस प्रतिशत वोट पाने वाला प्रत्याशी बहुमत से विजेता घोषित किया जाता है। यानी सिर्फ तीस प्रतिशत वोट पाने वाला विजेता कैसे घोषित कर दिया जाता है?यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो क्या है? अनपढ़ व्यक्ति भी जानता है कि इक्यावन प्रतिशत बहुमत होता है फिर तीस प्रतिशत पर विजेता घोषित करना जनता के साथ छल, धोखा नहीं तो क्या है? जनता को अपने प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार ही नहीं है। सांसद कानून बनाते हैं क्योंकि सरकार अपनी सुविधा के लिए कानून बनवाती है। जनता को चोर मानती है। इसलिए दंड का भय दिखाने के लिए कानून बनाती है। अगर सतपात्र नेतृत्वकर्ता होंगे तो वे अशिक्षा बेरोजगारी खत्म करने के लिए निशुल्क शिक्षा प्रशिक्षण और रोजगार के संसाधन देने वाले प्रमाणित होंगे। जनता को चार जनाधिकार देने की जरूरत होती है, निशुल्क शिक्षा प्रशिक्षण, सुविधा में सड़क आवास रोजगार के संसाधन और निशुल्क मेडिकल बीमा बैंकिंग की। जनता को कोई भी सरकार प्रतिनिधि चुनने, हटाने के अधिकार क्यों नहीं देती?जनता को प्रतिनिधि चुनने यानी पंच से लेकर प्रधान मंत्री चुनने/हटाने,चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक नियुक्त करने/ हटाने, मंत्री नियुक्त करने / हटाने के मताधिकार सहित, विधायिका द्वारा बनाए गए कानून पास/ निरस्त करने, कार्यपालिका द्वारा नीति बनाने को पारित/ निरस्त करने और न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय पारित/ निरस्त करने के विशेषाधिकार जनता को देने से ही लोकतंत्र प्रमाणित होगा अन्यथा क्षद्म लोकतंत्र ही माना जाएगा।इतना ही नहीं अपात्र नेता बनकर देश को लूटने का कार्य करते हैं। अन्याई कानून बनाते हैं। भ्रष्टाचार करते कराते हैं इसलिए एसक्यू या चेतनात्मक क्षमता वान को ही चुनाव लडने का पात्र होने का कानून बनें। इसीतरः प्रशासनिक पदों पर अन्याई अपात्र नियुक्त होने पर घूसखोरी भ्रष्टाचार करते हैं। जनता की पीड़ाएं देख कर अनदेखी करते है। विशेष जन समझकर खुद को जनता के साथ मनमानी करने वाले अपात्रों के स्थान पर पर पीड़ा की अनुभूति करने वाला सत्पात्र ईक्यू या भावनात्मक क्षमता वान प्रशासनिक पदों पर होने से जनता की पीड़ा समझने वाला होगा। अपात्र आईक्यू जनता को शास्ता समझकर भ्रष्टाचार करता है। घूसखोरी में लिप्त रहता है। सनद रहे कि लोकतंत्र का तंत्र ही वास्तविक शासक बना बैठा है।लोकतंत्र का महत्वपूर्ण घटक लोक या गण या जन सर्वथा उपेक्षित है। त्रस्त है। पीड़ित है। वालों को ही प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करना समाज और राष्ट्र के हित में होगा। अगर जनता को उपेक्षित, अनपढ़ मूर्ख गुलाम प्रजा समझा जाएगा तो लोकतंत्र कैसे होगा? यह तो राजतंत्र का लक्षण है। सफल लोकतंत्र के लिए जनता की शासन में प्रत्यक्ष भागीदारी अनिवार्य तत्व है। अगर जनता को इसके छीने अधिकार वापस नहीं दिए जाते तो फिर लोकतंत्र की दुहाई देना ढोंग है।

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