
इंद्र यादव/ मुंबई: विनोबा भावे नगर इलाके में जन्मदिन मनाने के लिए दोस्त केक लेकर आते हैं। मोमबत्ती जलाते हैं। गाना गाते हैं। दुआएं देते हैं कि तू सौ साल जिए। लेकिन मुंबई के विनोबा भावे नगर में पाँच दोस्त केक लेकर आए और साथ में पेट्रोल की बोतल भी। अब्दुल रहमान को बाहर बुलाया। “हैप्पी बर्थडे” कहा। फिर अंडे फेंके, पत्थर मारे और पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी। जब तक वह चीख भी न सके, तब तक वह जलकर मर चुका था। पाँचों दोस्त, अयाज़ मलिक, अशरफ़ मलिक, कासिम चौधरी, हुज़ैफ़ा खान और शरीफ़ शेख, अब जेल में हैं। पर जो सवाल दिल को जलाता है, वह अभी भी बाहर घूम रहा है। हम किस तरह के इंसान बन गए हैं! जो लोग कल तक एक-दूसरे के साथ हँसते-बोलते थे, आज वही एक झटके में क़ातिल बन गए। दोस्ती का नाम लेकर आए और इंसानियत को ज़िंदा जला दिया। यह सिर्फ़ अब्दुल रहमान की मौत नहीं है। यह हमारी सोसाइटी की मौत है। जहाँ “दोस्त” शब्द का मतलब अब भरोसा नहीं, डर बन गया है। जहाँ केक की मिठास के साथ पेट्रोल की बोतल साथ रखी जाती है। जहाँ “हैप्पी बर्थडे” के बाद चिता जलती है। हम बच्चों को सिखाते हैं, दोस्त बनाओ, भरोसा करो। पर ये पाँच “दोस्त” क्या सिखा गए! कि अब अपने ही घर का दरवाज़ा खोलने से पहले सौ बार सोचो! कि जिसे तुम सालों से जानते हो, वह भी एक दिन तुम्हें ज़िंदा जला सकता है! कि मोहब्बत, दोस्ती, भाईचारा—ये सारे शब्द अब खोखले हो गए हैं! शायद गुस्सा था। शायद कोई पुराना झगड़ा था। लेकिन क्या कोई झगड़ा इतना बड़ा हो सकता है कि इंसान को ज़िंदा जलाकर मार दो! क्या कोई नफ़रत इतनी गहरी हो सकती है कि तुम उसकी चीखें सुनकर भी हँस सको! ऐसा क्रूरता कोई इंसान नहीं कर सकता। यह तो हैवानियत का आख़िरी दर्जा है। और सबसे दुखद बात यह है कि यह पहली बार नहीं हुआ। पहले भी हमने पढ़ा है, दोस्ती के नाम पर क़त्ल, प्यार के नाम पर एसिड अटैक, रिश्तों के नाम पर खून। हर बार हमने अफ़सोस किया, दो दिन ट्रेंड चलाया और भूल गए। फिर कोई नया अब्दुल रहमान मरता है और हम फिर चौंकते हैं। अब्दुल रहमान की माँ शायद आज भी दरवाज़े पर खड़ी होगी। उसके बर्थडे का केक देखकर सोचेगी, यही केक तो उसके दोस्त लाए थे। उसके पिता की आँखों में अब हर “हैप्पी बर्थडे” सुनकर आग लगेगी। उसकी बहन को लगेगा कि दुनिया में अब कोई “दोस्त” नहीं बचा। / हम कानून की बात करेंगे। सज़ा की बात करेंगे। पर कानून उस माँ का बेटा वापस नहीं ला सकता। कानून उस बेटे की चीखें मिटा नहीं सकता। कानून यह नहीं बता सकता कि हमारी नई पीढ़ी इतनी खूंखार कैसे हो गई। आज अगर हम चुप रहे तो कल कोई और अब्दुल रहमान मरेगा। कोई और माँ अपने बच्चे का जला हुआ शव देखेगी। कोई और पिता रोते-रोते पागल हो जाएगा। इसलिए आज रोना काफी नहीं। गुस्सा करना काफी नहीं। आज हमें खुद से सवाल करना होगा! हम अपने बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? हमारी दोस्तियाँ इतनी सस्ती कब हो गईं! हमारी नफ़रतें इतनी बड़ी कब हो गईं कि इंसान को ज़िंदा जलाना आम बात लगने लगी! अब्दुल रहमान को हम वापस नहीं ला सकते। पर उसकी मौत को बेकार नहीं जाने दे सकते। उसकी चिता की राख हमें जगाए। हमें इंसान बनाए। हमें याद दिलाए कि अगर हम अभी नहीं सुधरे, तो कल हमारे अपने बच्चे भी किसी के लिए पेट्रोल की बोतल और माचिस लेकर निकल पड़ेंगे। आज अब्दुल रहमान के लिए एक मिनट का मौन रखिए। फिर उस मौन को तोड़िए। और चीखकर पूछिए, हम कब तक अपने ही बच्चों को हैवान बनाते रहेंगे, रहमान को इंसाफ़ मिले। और हम सबको इंसानियत। बस इतनी सी दुआ है। इतनी सी गुज़ारिश है।




