
पं.शिवप्रसाद पाठक
गया का नाम आते ही हिंदुओं तथा बौद्धों का नतमस्तक होना स्वाभाविक है। श्राद्ध के लिए ‘गया’ सर्वश्रेष्ठ स्थान है जहां तर्पण के पश्चात् आत्मा को इहलौकिक मुक्ति प्राप्त होती है। गया श्राद्ध बिना आत्मा की मुक्ति नहीं होती। गया में श्राद्ध के लिए मुंडन अथवा समय सीमा की अनिवार्यता नहीं है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है।
गया तीर्थ कथा: ‘अस्तावि जानो दिव्यो गयेन’। दैवी पुरोहित ‘गय’ द्वारा प्रशंसित हुए ऋग्वेद के इस सूक्त से ज्ञात होता है कि गय ऋग्वेद के ऋर्षि थे। अर्थवेद में गयासुर नाम कपाल ऐन्द्रजालिक का उल्लेख है। वायुपुराण तथा अग्निपुराण में गयासुर गाथा है कि गयासुर ने सहस्त्रों वर्षों तक घोर तप किया। जिससे घबराकर देवता ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्मा शिव तथा देवों ने विष्णु की स्तुति की। भगवान विष्णु ने प्रकट होकर कहा सभी देवता अपने-अपने वाहन से गयासुर के पास चलें। भगवान विष्णु ने गयापुर से तप का कारण जानने पर गयासुर ने कहा वह देवों ऋषियों सन्यासियों से अधिक पवित्र हो जाए। देव महादेव तथास्तु कह कर चले गए। फिर भी जो भी गयासुर को छूता पवित्र होकर स्वर्ग चला जाता। शनै: शनै: यमलोक रिक्त होने लगा। यम ब्रह्माजी से मिले। ब्रह्मा, विष्णु के पास गए।
विष्णुजी ने ब्रह्माजी से कहा कि वे गयासुर के शरीर को यज्ञ स्थल हेतु मांगे। गयासुर तैयार हो गया। वह दक्षिण पश्चिम दिशा में पृथ्वी पर गिर गया। सिर कोलाहल पर्वत पर और पैर दक्षिण की ओर हो गये। ऋत्विजों ने यज्ञारंभ किया। शरीर स्थिर नहीं होने से ब्रह्माजी ने यम से गयासुर के सिर पर शिला रखने को कहा। पर सिर तथा शिला साथ-साथ हिलने लगे। तब विष्णुजी ने अपनी मूर्ति शिला पर रखी फिर भी शिला हिलती रही। तब विष्णु तीन रूपों में, ब्रह्मा पांच रूपों में गणेश हाथी के रूप में, सूर्य तीन रूपों में, लक्ष्मीजी मंगला और गायत्री सरस्वती के रूप में बैठ गई। हरि ने गदा प्रहार से गयासुर को स्थिर कर दिया। गयासुर ने कहा मैं प्रवंचित क्यों किया गया हूं। मैंने ब्रह्म यज्ञ के लिए शरीर दिया है। मैं विष्णु शब्द से स्थिर हो जाता फिर मुझ पर गदा प्रहार क्यों ? देवों ने उससे वर मांगने कहा तो उसने वर मांगा जब तक पृथ्वी, पर्वत, सूर्य, चन्द्र एवं तारे रहें तब तक ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं अन्य देव इस शिला पर रहें। तीर्थ मेरे नाम पर रहे सभी तीर्थ मध्य में केन्द्रित हों। देवों ने तथास्तुु कहा, वर दिया। ब्रह्मा ने गया नगर, 77 गांव, आवास, कल्पवृक्ष, कामधेनु, दुग्ध नदी, सोने का कूप आदि सभी व्यवस्था कर दी ताकि ब्राह्मण किसी से कुछ न मांगे। लोभी ब्राह्मणों ने यज्ञ किया और दक्षिणा मांगी। ब्रह्मा ने शाप देकर सभी कुछ छीन लिया। ब्राह्मणों ने क्षमा मांगी तो ब्रह्माजी ने उनकी जीविका के लिए कहा कि वे गया यात्रियों के दान पर जियेंगे और जो उन्हें सम्मानित करेंगे वे मानों ब्रह्माजी को सम्मानित करेंगे।
श्राद्ध की महिमा: महाभारत में कहा गया है व्यक्ति को बहुत से पुत्रों की कामना करना चाहिए,यदि उनमें से एक भी गया जाता है या अश्वमेघ यज्ञ करता है तो पितृगण तृप्त हो जाते हैं। गया में पिता तथा अन्यों को पिण्ड देना चाहिए। गया में स्वयं को भी पिण्ड दिया जा सकता है। गया में श्राद्ध करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। गया को छोड़कर सभी तीर्थों में उपवास तथा मुण्डन करना चाहिए किंतु गया में आवश्यकता नहीं है। गया में वैतरणी नदी (फल्गु) है जिसमें स्नान गोदान से पीढिय़ों की रक्षा होती है।
गया में प्रमुख तीर्थ: गया पवित्रतम क्षेत्र है यहां तीर्थों की संख्या लम्बी-चौड़ी है। यात्रियों को फल्गु नदी, विष्णुपद, अक्षयवट अनिवार्य रूप से जाना चाहिए। यहां दूध, जल, फूल, चंदन, तांबूल दीप से पूजा की जाती है। फल्गु नदी के पश्चिम की ओर विष्णु पद मन्दिर है। जहां विष्णु के पदचिन्ह अष्टकोण में विद्यमान हैं।
तीर्थ की विशेषताएं: गया में गयावाल ब्राह्मणों को ही पूजना पड़ता है अन्य ब्राह्मण को नहीं भले ही वे कितने विज्ञ कुलीन हों। जबकि गयावाल ब्राह्मण के कुल चरित्र पर विचार नहीं किया जाता। गया श्राद्ध के पश्चात् कहीं भी पिण्डदान की आवश्यकता नहीं रह जाती।
महाबोधि वृक्ष: गया क्षेत्र की सीमा महाबोधिवृक्ष तक हैं जहां भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। शिष्यों ने उन्हें भगवान कहा किन्तु उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के दिन शिष्यों से कहा जहां मैं जाना चाहता था आ गया हूं अर्थात् ‘तथागत’। इस प्रकार आत्मबोधि स्थल गया की यात्रा मोक्षदायी है।