Thursday, December 12, 2024
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संपादकीय:- बिना वोट डाले लौटने को बाध्य वोटर्स!

उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी आबादी वाले राज्य में वोटर लिस्ट में गड़बड़ी हमेशा होती रहती है। कोई भी ऐसा चुनाव नहीं होता जिसमें वोटर लिस्ट से वास्तविक वोटरों के नाम गायब नहीं किए जाते हों। चाहे ग्रामप्रधानी चुनाव हो या जिला स्तरीय और विधानसभा और लोकसभा चुनाव कम से कम तीस प्रतिशत वोट काटने का षडयंत्र किया जाता है। आप उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में चले जाइए वहां के स्थानीय लोगों के पास वोटर आई डी मिलेंगे मगर वोटर लिस्ट में नाम नहीं मिलेगा। खासकर सवर्णों के वोट कटे मिलेंगे। कई बार बीएलओ नए नाम जोड़ने के फॉर्म्स भरवाकर जब जिला मुख्यालय जाते हैं तो उनसे कहा जाता है कि शत प्रतिशत वोटर नहीं चाहिए। तीस प्रतिशत के नाम काटकर सूची दीजिए। इसलिए बीएओ जिनकी नियुक्ति सपा शासन काल में की गई है वे सवर्णों के तीस प्रतिशत वोट काटकर सूची सौप देते हैं।वोट काटने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। फाइनल वोटर लिस्ट जारी करने, उनका अवलोकन करने के बाद फिर वोटरों के नाम अंतिम समय में काटने का उद्योग जिला कार्यालय में किए जाते हैं। मजेदार बात यह कि वोटर लिस्ट में क्षेत्र से बाहर रहने वालों और मृत व्यक्तियों के नाम मतदाता सूची में बने रहने दिया जाता है लेकिन परमानेंट क्षेत्र में रहने वालों के नाम काट दिए जाते हैं। यह खेल राजनीतिक दलों के स्तर से शुरू होता है। प्रायः हर राजनीतिक दल के जिला स्तर के पदाधिकारी जब मंडल समिति की मीटिंग लेते हैं तो उन्हें निर्देशित किया जाता है कि अपने दल के वितरण के नए नाम जोड़िए और विपक्षी दलों के वोटरों के कम से कम तीस प्रतिशत नाम कटवाने के लिए फॉर्म भर कर दीजिए। इसके अलावा जिला स्तर पर स्कूटनी करने वाले पर नाम काटना निर्भर करता है। वह अधिकारी जिस दल का समर्थक होता है गांव शहर के अपनी पार्टी के लोगों को बुलाकर गुप्त तरीके से विरोधियों की सूची उन्हे देने का निर्देश देता है और फाइनल सूची प्रकाशन के अंतिम चरण में विरोधियों के नाम सूची से गायब कर देता है जिससे आपत्ति करने का समय ही शेष नहीं बचता और वोटर्स के नाम कटने का अंतिम कार्य पूर्ण हो जाता है। ग्रामप्रधान के चुनाव में सभी प्रत्याशी सजग रहते हैं। वे जिला स्तर पर लगे रहते हैं कि उसके मतदाताओं के नाम कटने नहीं पाए। लेकिन सूची के अंतिम प्रकाशन के तुरंत पहले नाम काट दिए जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव में पचास से साठ प्रतिशत ही वोट पड़ते हैं जबकि ग्रामप्रधानी चुनाव में यह प्रतिशत सत्तर के पार पहुंच जाता है। यही कारण है कि प्रदेश के लोकल चुनाव में इस बार भी वोटरों को बिना वोट दिए बूथ से लौटना पड़ा है। इतना ही नहीं प्रभावशाली स्थानीय नेताओं द्वारा चुनाव अधिकारियों से साथ गांठ करके कुछ प्रतिशत विरोधियों के मत पहले ही डाल दिए जाते हैं और जब वोटर वोट देने आता है तो पीठासीन अधिकारी कहता है आपका वोट पड़ चुका है तो मतदाता मायूस होकर लौट जाता है। वोटरों में यदि कोई प्रतिवाद करता है तो पुलिस को बुलाकर सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप की धमकी देकर चुप करा दिया जाता है। अशिक्षित मतदाताओं को चैलेंज वोट और टेंडर वोट की जानकारी ही नहीं होती। अहम है कि जो भी मतदाता बूथ पर वोट डालने आता है उसका वोटर आईडी, आधारकार्ड, बैंक पासबुक के आधार पर वोट डालने की व्यवस्था चुनाव आयोग को करना चाहिए ताकि मतदाता के वोट डालने के अधिकार की रक्षा की जा सके। गड़बड़ी ग्रामप्रधान और विधायकी चुनाव के लिए अलग अलग मतदाता सूची बनाने के कारण भी होती है। इसलिए चुनाव आयोग को एक देश एक मतदाता सूची बनाने का कार्य अविलंब पूर्ण करने की पहल करनी होगी अन्यथा मतदाता अपने मत देने के अधिकार से वंचित होते ही रहेंगे।

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