
वंदना अग्रवाल
प्रेम एक शाश्वत तथ्य, वर्तमान से भविष्य की ओर बढ़ते कदम, अपनी मंजिल पाने की चाह, एक रसास्वादन अनुभूतियों का। एक खोज अपने अतीत के पराभव को भुलाने की। प्यार एक निष्ठुर किंतु सुंदर अन्तस की भावना। भावना के वेग से उड़ते स्वप्न। स्वप्न में जीवन को नए आयाम देती प्रेम की साकार कल्पना। प्रेम मानव देह से विरक्त एक उड़ान। क्षितिज के उस पार…उस पार….उस पार। प्यार स्नेह बंधनों से मुक्त आत्मा परमात्मा का पारलौकिक चिंतन। चिंतन में सिमटते क्षण और इन्हीं क्षणों का नाम है प्रेम की अनुभूति। प्यार एक विशुद्घ वासना नहीं, आत्मा को समझने की कला है। इस कला में पारंगत होने के लिए मन में समान रूप से दीपक जलाने पड़ते है। ऋतुओं का स्वागत करना पड़ता है। ऋचायें गुंजित करनी पड़ती हैं। हिम-शिखरों पर हिमा को तलाशना पड़ता है। प्रेम की लताओं में चारों वेदों की अनुभूति की वंदना करना पड़ती है। सूर्य की कान्ति के समान अपने तेज को बढ़ाना पड़ता है। प्रेम ही हरि की तरह सत्यम् शिवम् सुन्दरम् है सुन्दरता देहयष्टि नहीं, प्रेम तो एक अनुभूति है अपने पगों का सफर नापने की। प्रेम तो एक पीड़ा है, जिसकी आग में जलने का पल-पल मन करता है। प्रेम तो एक दर्पण है जिसमें मानव अपना चेहरा देखता है। स्मृतियां आंचल में छुपाकर बतियाती है। यही तो है प्रेम का स्वागत। प्रेम का नैसर्गिक संसार। दिव्य लोक उद्भव किसी प्रशस्ति की तलाश में थक मांद कर तो नहीं बैठता। वह दौड़ पड़ता है अपने लक्ष्य की ओर। चुनने लगता है फूल उपवन के। महकाने लगता है अपना संसार।
प्रेम दिवस, केवल एक दिवस तो नहीं। यह क्षण है याद करने का उन कहानियों, किस्सों को जो प्रेम को शाश्वत रखने के लिये कही गई होगी। यह दिन है प्रण लेने का, कुर्बानियों, आहुतियों तथा समर्पण की पावनता को अक्षुण्ण रखने का। मगर अफसोस, विसंगतियो से भरे हमारे समाज ने प्रेम की इस पावन अनुभूति को कलुषित कर दिया है। प्रेम का अर्थ सिर्फ देहाकर्षण होकर रह गया है। आज प्रेम शब्द का उपयोग इस कदर आम हो गया है कि इसकी वास्तविक आत्मा ही नष्ट हो गई है। प्रेम के विषय में युवा अनेक भ्रांतियों, वर्जनाओं और तर्को को आज कसौटी पर कसकर उसकी नयी-नयी परिभाषाएं दे रहे हैं। प्रेम वास्तव में क्या है? इसको समझाना बहुत दुष्कर है। युवा प्रेम ने आज अपनी सीमाओं को पाश्चात्य संस्कृति के इर्द-गिर्द स्थापित कर लिया है। प्रेम करना कोई अपराध नहीं है यह सभी जानते हैं, लेकिन इसमें प्रेमियों को कब कितने अधिकार हासिल होने चाहिये यह वह नहीं जानते हैं। सही कहा जाय तो प्रेम एक ऐसा सुखद मर्मस्पर्शी अहसास है जो उसे कुछ हासिल करने के लिए संघर्ष करने को प्रोत्साहित करता है। प्रेम करने वालों के अंदर एक अलग किस्म की अनुभूति उत्पन्न हो जाती है। अगर जीवन में प्रेम न हो तो जीवन नीरस हो जाता है जीवन सूना-सूना लगता है। प्रेम असल में उत्साह एवं उल्लास है जिस पर सबका अधिकार है।
वर्तमान में युवा वर्ग का प्रेम के प्रति जो नजरिया है वह काफी त्रुटिपूर्ण है। सच्चा प्रेम हमेशा एक पवित्र मन में पनप सकता है। प्रेम असल में विचारों के अंदर निहित होता है। जैसे विचार होंगे पेे्रम वैसा ही स्वरूप धारण कर लेगा। प्रेम की असफलता, गलत सोच का ही दुष्परिणाम होता है। प्रेम को अधिकतर संदिग्ध रखा जाता है। इसकी संदिग्ध छवि भी प्रेम को गलत तरीके से परिभाषित करती है। माना कि समाज के बदलते स्वरूप एवं विचारधाराओं के कारण इन परिभाषाओं में भी परिर्वतन आ गया है। लेकिन प्रेम के अर्थ तो वही है। आज प्रेम के अंदर वासना ज्यादा पनप रही है। इसके लिये जिम्मेदार भी हमारे समाज के युवावर्ग की सोच तथा विचार हैं। प्रेम में वासना का कहीं कोई स्थान नहीं होता। अधकचरी आयु के युवक-युवतियां प्रेम और वासनात्मक प्रेम में अंतर नहीं कर पाते हैं, फलत: अधिकांशत: जीवन भर प्रेम को एक दर्द के रूप में झेलते रहते हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या प्रेम की अनुभूति सिर्फ संबंधों को विकृत रूप देकर ही की जा सकती है। यौनाकर्षण कभी प्रेम का अर्थ ग्रहण नहीं कर सकता। प्रेम तो ऐसा अमृत है, जो जीवन को आत्मीय आनंद और परम सुख से सराबोर कर देता है। उसकी अनुभूति के लिए किसी प्रकार के विकृत शारीरिक सुख की आवश्यकता नहीं होती उसे तो हर समय, हर क्षण, अनुभव किया जा सकता है। प्रेम तो मन को सुख देता है। यह क्षणिक नहीं अपितु अनन्त होता है। क्षणिक सुख पाने की लालसा से किया गया प्रेम पाप कहलाता है। युवा प्रेम की पाश्चात्य शैली इसी क्षणिक प्रेम के वशीभूत होकर प्रेम करती है। क्षणिक प्रेम ऐसा दर्द बनकर सामने आता है जो नासूर बनकर जीवन भर टीस पैदा करता है। प्रेम करने मेें कतई हीनता न करें, लेकिन प्रेम को सही अर्थो में समझें। स्वस्थ प्रेम की उपासना के लिए जरूरी है कि पुराने संबंधों को नए रूप में जिया जाए, जिससे जीवन को एकरसता से मुक्त रखा जा सके। पति-पत्नी भी पुराने पड़ रहे अपने संबंधों को पुनर्जीवन दे सकते हैं। मसलन पति अपनी पत्नी के साथ डेटिंग करे। वे समय तय कर घर से बाहर कहीं मिले-ठीक वैसे,जैसे दो अजनबी मिलते हैं।
वह सब बातें करें, जो पारिवारिक समस्याओं से परे हों और जो उनके सपनों, अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की हों। यही पारिवारिक प्रेम की उपासना का सबसे स्वस्थ एवं संयमित रूप है। प्रेम जीवन का एक अहम् पहलू है, हर व्यक्ति प्रेम करता है। बचपन से लेकर वृद्घावस्था तक व्यक्ति का सारा जीवन प्रेम के ही वशीभूत गुजरता है। बचपन में मां से, किशोरावस्था में मित्रों से, युवावस्था में पत्नी से, फिर अपने बच्चों से, फिर अपने नाती-पोतों से। प्रेम का स्वरूप अनंत है जब व्यक्ति को प्रेम नहीं मिलता है तो बिखराव आ जाता है। प्रेम का मूल अर्थ अन्तस के सौंदर्य में निहित है अत: ऊपरी सौंदर्य पर नहीं, बल्कि उसके गुणों और विचारों के सौंदर्य को परखिये तभी सच्चा प्रेम नसीब हो सकता है। आज इस वेलेन्टाईन (प्रेम) दिवस पर हम इस पवित्र प्यार की ज्योति को विकृति के धुएं से बचाएं और विश्व के हर प्रेमी के हृदय में शुचिता, पावनता को प्रभावित करें, क्योंकि प्रेम त्याज्य नहीं, स्वीकार्य है। पावन प्रेम की धारा से जिसका जीवन सिंचित होता है, उसकी अनुभूतियां मकरंद के समान मधुरता से भर जाती है। (विनायक फीचर्स)