Tuesday, October 28, 2025
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चिकित्सा पद्धतियों में सामंजस्य बैठाने की आवश्यकता

सत्य शील अग्रवाल
जब कोई व्यक्ति रोग ग्रस्त होता है तो उसके पास मुख्यत: तीन विकल्प रहते है, कि उसे किस पद्धति से अपना इलाज कराना है। अर्थात एलोपैथिक, आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक। सब की अपनी पसंद रहती है। सबका एक विश्वास होता है। जिस पद्धति से उसे इलाज करवाना होता है। जहाँ उसे सर्वाधिक संतुष्टि मिलती है,वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है उसे कौन सी पद्धति अपनानी है। प्रत्येक पद्धति की अपनी सीमायें हैं तो प्रत्येक पद्धति की अपनी कुछ विशेषताएं भी होती हैं। हम यह नहीं भूल सकते कि सभी पद्धतियाँ मानव मात्र की सेवा में संलग्न हैं। अत: किसी भी पद्धति को उपेक्षित करना मानवता का अपमान है। अक्सर सुना जाता है कि एलोपैथिक डॉक्टर अन्य पद्धतियों को हीन भाव से देखते हैं। उनके लिए आयुर्वेदिक अथवा होम्योपैथिक पद्धति कोई चिकित्सा पद्धति है ही नहीं, अत: उनसे इलाज कराना मरीज के जीवन से खिलवाड़ करना है। उनकी यह सोच ही मरीज को भ्रमित करती है,विचलित करती है। जिसे कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता। माना वर्तमान समय में एलोपैथी में बहुत तेजी से मरीज ठीक हो जाता है और शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में एलोपैथी सर्वाधिक उन्नत श्रेणी में है। परन्तु अनेक रोगों का इस पद्धति द्वारा पूर्णतया निवारण संभव नहीं होता। जबकि अन्य पद्धतियों अर्थात आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक में उनके परिणाम बहुत अच्छे आते हैं और रोग को जड़ से खत्म करने का दम खम रखते हैं। अत: क्यों न प्रत्येक पद्धति के गुणों के अनुसार मरीज का इलाज किया जाय। जिस पद्धति से रोगी अधिक शीघ्र और दीर्घ समय के लिए ठीक हो सकता है उसे उसी पद्धति से ट्रीट किया जाय। सभी पद्धतियों में एक सामंजस्य बनाया जाय जो मानव हित में होगा। मेडिकल की कोई भी डिग्री देते समय विद्यार्थी को सभी पद्धतियों का ज्ञान कराया जाय ताकि मरीज के हित में उसके रोग की आवश्यकता के अनुसार पद्धति उपलब्ध करायी जा सके। यदि वह चिकित्सक उस पद्धति का विशेषज्ञ नहीं है तो मरीज को उचित सलाह दे सके और उस पद्धति के विशेषज्ञ को रेफर कर सके। किसी चिकित्सक द्वारा अपने विशेष ज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य पद्धति को नकारना चिकित्सा विज्ञान का अपमान है। सभी पद्धतियां मानव हित में बनायीं गयी हैं। और प्रत्येक पद्धति की अपनी सीमायें भी होती है। उन सीमाओं को समझना भी आवश्यक है। यदि किसी विशेष पद्धति द्वारा किसी विशेष रोग का अधिक प्रभावी उपचार संभव है तो उसे स्वीकार करना चाहिए और अपने स्वार्थ से हटकर रोगी के हित में उसे दिशा निर्देश देने चाहिए।

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