
अंग्रेजों के भारत आने तक समूचे देश में गुरुकुल चलते थे। बड़े गुरुकुलों में नाम तक्षशिला और नालंदा का आता है। राम की शिक्षा वशिष्ठ के गुरुकुल में, तो कृष्ण की शिक्षा संदीपनी के गुरुकुल में हुई थी। राम क्षत्रिय थे, तो कृष्ण यदुवंशी, जो आज खुद को ओबीसी कहते हैं। इसका अर्थ है, भारत के गुरुकुलों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। जो लोग कर्ण को सूत पुत्र कहकर आचार्य द्रोण द्वारा धनुर्विद्या नहीं सिखाने की बात कहते हैं, तो उन्हें द्रोणाचार्य की विवशता भी जाननी चाहिए। जब द्रोणाचार्य को पुत्र प्राप्ति हुई, तो उनकी पत्नी को दूध नहीं उतरा। वे अपने गुरु भाई द्रुपद नरेश के यहां पहुंचे। उसने गुरुकुल में वादा किया था कि जब वह राजा बनेगा, तो आधा राज्य देगा, लेकिन एक अदद गौ भी नहीं दिया। तब द्रोणाचार्य ने प्रण किया कि अब से केवल राजपुत्रों को ही शिक्षा देंगे। तब वे महाभारत के भीष्म के पारिवारिक शिक्षक बने, फिर कर्ण को कैसे सिखाते? जो मनुस्मृति का कथित तौर पर हवाला देकर कहते हैं कि शूद्रों को शिक्षा वर्जित थी, अंग्रेज विद्वान बताते हैं कि भारत के गुरुकुलों में सभी चारों वर्णों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्होंने लिखा है। दक्षिण भारत के गुरुकुलों में अधिकांश शूद्र वर्ण के छात्र थे, जबकि उत्तर भारत में क्षत्रिय वर्ण की संख्या अधिक थी। पश्चिमी भारत के गुरुकुलों में वणिक वर्ण के छात्र अधिक थे, तो मध्य भारत में सभी वर्णों के छात्रों का प्रतिशत लगभग एक समान था। अंग्रेज शासकों के पूर्व मुगल शासन में भी गुरुकुल चलते रहे थे। अंग्रेजों के समय सारे गुरुकुल बंद किए गए और तमाम आचार्यों की हत्याएं हुईं। अंग्रेज जानते थे कि भारत के चारों वर्णों में एकता रहेगी, तो यहां लंबी अवधि तक शासन करना असंभव होगा। जैसा कि भारत की आज़ादी के आंदोलनों में, क्रांतिकारियों द्वारा देश के लिए बलिदान देने वालों में भी सभी वर्णों, धर्मों के लोग रहे। यहां तक कि आदिवासियों ने भी बढ़-चढ़कर आंदोलन में हिस्सा लिया। अंग्रेजों को अपने आधिकारिक कार्य हेतु मानसिक गुलाम युवा चाहिए थे। इसलिए अंग्रेजों ने आंग्ल भाषा के स्कूल खोले। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा-लिखा युवा देखने में भारतीय था, लेकिन मानसिक रूप से अंग्रेजों का गुलाम रहा। आज़ादी के आंदोलन में वह एलीट तबका आंदोलन का विरोधी बना रहा, जबकि आम जनता आंदोलनों में प्राण अर्पण करने के लिए तैयार थी। ढूंढ-ढूंढकर आंदोलनकारी युवाओं को पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई। मुंबई वी.टी. के पास भी आंदोलनकारियों को पेड़ से लटकाकर फांसी दी गई थी। इसी तरह समूचे देश में धर-पकड़ शुरू कर अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया। दमन चक्र चला। कांग्रेसियों को लाठियों से पीटा गया, जेल में बंद किया गया। मजेदार बात यह कि वह दौर 1942 का था, जब महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया। तब जागरूक युवकों ने रेल पटरियां उखाड़ीं, टेलीफोन के तार काटे, रेलवे स्टेशन, पोस्ट ऑफिस ही नहीं, पुलिस थाने भी जलाए गए। मज़ेदार बात यह कि उस समय कोई चोरी में भी पकड़ा गया, तब पुलिस ने देशद्रोह की धारा लगाकर जेल भेजती रही। भारत की आज़ादी के बाद जब सरकार ने आंदोलनकारियों- जिन्हें पॉलिटिकल सफ़रर कहा गया को पेंशन देने की योजना चलाई, तब उन चोरों को भी पेंशन का लाभ मिला। नौकरियों में भी स्वतंत्रता सेनानी नाम होने पर उनके बेटे-बेटियों को सरकारी नौकरियां मिलीं। कांग्रेस सरकार ने तमाम सरकारी स्कूल, कॉलेज खोले। यूनिवर्सिटीज बनाई। आईआईएम और आईआईटी खोले। तब भी शिक्षा का द्वार सबके लिए खुला ही था। लेकिन अब शिक्षा बजट में बेहद कमी करके शिक्षा के व्यापार को बढ़ावा दिया जाने लगा। जीएसटी लगाकर किताब, कॉपियों को महंगा कर दिया गया। प्राइवेट स्कूल शोषण के केंद्र बन गए। शिक्षा की तमाम दुकानें खुल गईं। उसी तरह प्राइवेट अस्पताल भी खुले, जहां कफ़न तक बेचा जाने लगा है। आम जनता को शिक्षा और चिकित्सा से दूर किया जाने लगा। महंगी शिक्षा, महंगी चिकित्सा से देश की 95 प्रतिशत आबादी त्रस्त हो चुकी है, क्योंकि सरकार निःशुल्क शिक्षा और चिकित्सा के दायित्व का निर्वहन नहीं कर रही। रोज़गार की हालत यह है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण होने के कारण आरक्षित जातियों से अधिक नंबर पाने के बावजूद सवर्णों को नौकरियां नहीं मिल रहीं। सरकार और कोर्ट ब्राह्मणों को गरीब नहीं मानता। उन्हें समाज में जाकर चार-चार हजार रुपए महीने की प्राइवेट नौकरी करते, पैडल रिक्शा चलाते, ऑटो चलाते और सुलभ शौचालयों में सफाई का कार्य करते हुए देखा जाए, तो अपनी सोच पर शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है। जो लोग दलित कहते हैं अपने आप को, आरक्षण को जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, वे अपने उन जाति भाइयों से पूछें जिनकी चार-पांच पीढ़ियां आरक्षण लेकर धनवान बन चुकी हैं। उन नेताओं-मंत्रियों से पूछना चाहिए कि शूद्र छात्रों के लिए स्कूल, कॉलेज खोलकर निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं की? उनसे पूछना तो दूर, सामने खड़े होने की भी हिम्मत नहीं होगी।
देश में जितनी समस्याएं हैं, अन्यायी व्यवस्था और अपात्र नेताओं, अपात्र प्रशासकों के द्वारा पैदा की गई हैं। इसलिए आवश्यक है कि सरकार और प्रशासन में सत्पात्र लोग आएं ताकि समाज और राष्ट्र की ईमानदारी से उन्नति करें। सच तो यह है कि कथित दलित समुदाय सवर्णों के खिलाफ, विशेष रूप से ब्राह्मणों के कथित ब्राह्मणवाद के विरोध में खड़ा होकर अपनी निष्क्रियता और असफलता दबाना चाहता है। अगर सामर्थ्य है, तो तुम भी श्रम करके मेधावी बनो। आईएएस, आईपीएस बनो, जस्टिस बनो। आरक्षण क्यों मांगते हो? अयोग्य लोग आरक्षण चाहते हैं। आरक्षण ने देश का भट्ठा बैठा दिया, जिसके कारण भारत अपने देश के टैलेंट की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाता। सोचिए- जो वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर विदेश जाने को मजबूर होते हैं, यदि उन्हें देश में ही संसाधन मिलें, तो उनके टैलेंट का फायदा देश उठाकर अब तक उन्नत हो चुका होता। जिसका लाभ समूचे देशवासियों तक पहुंचता। लेकिन दुर्भाग्यवश सरकार ने ऐसी कोई योजना अभी तक नहीं बनाई कि उनकी मेधा का राष्ट्रहित में उपयोग किया जा सके। इसके लिए सरकार भी दोषी है। साथ ही ब्राह्मणवाद या मनुवाद को कोसते रहने से दलितों का भला नहीं होगा। खुद श्रम कर मेधावी बनो और ऊंचे पदों पर आसीन हो जाओ। रोका किसने है?