Monday, May 13, 2024
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राम मंदिर- बीजेपी का बेजा कब्जा!

वरिष्ठ लेखक- जितेंद्र पांडेय

बीजेपी का कहना था कि वह राम मंदिर का विवाद कोर्ट में नहीं सड़क पर निबटाएंगी। इसीलिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार आदि सड़क पर रथयात्रा और रैलियों के द्वारा प्रयास कर रहे थे लेकिन आज राम मंदिर की किसी भी समिति में उनमें से किसी का भी नाम नहीं है क्योंकि वे सभी लालकृष्ण आडवाणी खेमे के हैं। जिनका आज बीजेपी नाम भी नहीं लेना चाहती। विवाद सड़क पर नहीं सुलझा। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच जिसमें रंजन गोगोई सी जे आई जिन्हें मोदी ने राज्यसभा सांसद बनाकर उपकृत किया। जस्टिस बोबड़े, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ जो आज सीजेआई हैं, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नजीर जिन्हें पांच शून्य से निर्णय देने पर आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाकर पुरस्कृत किया गया है,के सर्वसम्मत निर्णय के द्वारा ही राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। बिना पक्षकार बने और पैरवी किए ही बीजेपी ने आधिपत्य जमा लिया। जबकि शंकराचार्य, राम कथा वाचक स्वामी जैसों ने धर्मग्रंथों, वेदों के द्वारा रामजन्म भूमि स्थान को प्रमाणित किया। बीजेपी जानती थी कि राम जन्मभूमि वही है,जहां कहा जाता है कि बाबर के सेनापति ने राममंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद तामीर कराई थी।अब कहा जा रहा कि औरंगजेब ने मस्जिद बनवाई। फैजाबाद कोर्ट से हाईकोर्ट इलाहाबाद और फिर सुप्रीमकोर्ट में दूर दूर तक बीजेपी के किसी नेता का हाथ नहीं था लेकिन बहुमत की सत्ता के दर्प में मोदी चुनावी फायदा लेने पहुंच गए जैसा कि तय है कि २२ जनवरी को मोदी प्राणप्रतिष्ठा कराएंगे। राजनीतिक फायदे के लिए ही मोदी की बीजेपी ने राममंदिर को हाई जैक कर लिया ताकि राम भरोसे लोकसभा चुनाव में नैया पार हो सके। राम जन्मभूमि अथवा राममंदिर बनने का इतिहास में कोई भी साक्ष्य मौजूद नहीं है। पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में प्राप्त कथित राममंदिर के अवशेष भी यह नहीं प्रमाणित कर सकते कि वे राममंदिर के ही अवशेष हैं। अयोध्या को बौद्ध काल में साकेत भी कहा गया था। वहां जैन मंदिर और बौद्ध विहार होने के साक्ष्य उपलब्ध हैं। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद बहुत पुराना है। कहा जाता है कि मस्जिद निर्माण और विरोध साथ साथ चला जिसका इतिहास में प्रमाण नहीं मिलता। स्थानीय स्तर पर भले विरोध हुआ होगा क्योंकि क्रूरतम बादशाहों की तलवार ही उस काल में तकदीर लिखने में सक्षम रही। आइए, इतिहास का अवलोकन करें। वास्तविक विवाद मस्जिद बनने के ३३० साल बाद शुरू हुआ। कन्नौज के राजपूत शासक ने जब अयोध्या पर हमला किया तब रघुवंशी क्षत्रिय वहां से पलायन कर काशी राज के पास पहुंचे। राजा ने उनमें से एक के साथ अपनी पुत्री व्याह कर डोभी क्षेत्र दहेज में दे दिया। तब से रघुवंशियों का निवास जौनपुर जिले का डोभी परगना ही उनका कर्म क्षेत्र बना हुआ है। उनके साथ ही अवधि भाषा डोभी पहुंची इस कारण हिंदी साहित्य के इतिहास में अवधि भाषा का मूल डोभी ही माना जाता है। राम मंदिर की कानूनी लड़ाई आरंभ में गोपाल सिंह विषारद ने फैजाबाद (अब अयोध्या) स्थानीय कोर्ट में १९५० में बाद दाखिल किया जिनकी मृत्यु १९८६ में हो गई। राजीव गांधी शासन में ही फैजाबाद कोर्ट के आदेश से ताला खुला और पूजा अर्चना शुरू हुई। राजीव गांधी ने ही राममंदिर का तब शिलान्यास किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर जज देवकी नंदन अग्रवाल ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में सन १९८९ में राम सखा के रूप में याचिका डाली। २००२ में उनका निधन हो गया। तब बीएचयू के प्रोफेसर टी पी वर्मा को राम सखा नियुक्त किया गया किंतु २०१०, में रिटायर हो जाने पर त्रिलोकी नाथ पांडेय ने रामसखा का पद भार सम्हाला। बताते चलें कि सनातन हिंदू संस्था और निर्मोही अखाड़ा ने सवा सौ साल पूर्व ही राममंदिर निर्माण की कानूनी लड़ाई शुरू कर दी थी। हाईकोर्ट इलाहाबाद ने समूची भूमि को तीन हिस्सों में बांट दिया जिसके विरुद्ध अखिल भारतीय हिंदू सभा ने सुप्रीमकोर्ट में हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती दी। बाद में विश्व हिंदू परिषद राजनीतिक फायदा उठाने की गरज से मंदिर में राम की मूर्ति है कहकर पक्षकार बन गया। अखिल भारतीय श्री रक्जनंभ पुनरुद्धार समिति ने हाईकोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जिसे मूल बाद में शामिल किया गया। चार शंकराचार्य, पांच वैष्णव महंत और तेरह प्रमुख अखाड़ों के महंतों ने राममंदिर की ओर से सुप्रीम कोर्ट में लगातार पैरवी की और शंकराचार्य की ओर से कोर्ट में बीस प्वाइंट को रखा गया जिसे माननीय जस्टिस बेंच ने अपने फैसले में उल्लेख किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में शंकराचार्य के बीस बिंदुओं का उल्लेख किया लेकिन दशकों पूर्व रामलया निर्माण न्यास की उपेक्षा की जो पिछले कई दशकों से राममंदिर पुनरुद्धार के लिए संघर्ष किया था। फैसले के बाद राममंदिर ट्रस्ट निर्माण में राजनीति घुसेड़ते हुए सरकार को आदेशित कर दिया जबकि राममंदिर निर्माण में सरकार का कोई नाम, कोई भूमिका ही नहीं थी। शंकराचार्य ने सरकार को लिखित पत्र में कहा कि उन्हें सैकड़ों मंदिर निर्माण का अनुभव है। निर्माण के लिए जो न्यास चार शंकराचार्य,प्ाांच वैष्णव मठाधीश और देश के तेरह अखाड़ों की प्रमुख से मिलकर बने न्यास को राममंदिर निर्माण की जिम्मेदारी सौंप दे। सरकार का काम मंदिर निर्माण करना नहीं है।सरकारें सेक्युलर होती हैं और सेक्युलर सरकार मंदिर निर्माण के लिए समिति कैसे बना सकती है? लेकिन सरकार को राजनीतिक फ़ायदा लेना है। इसलिए उसने अपने लोगों की कमेटी बनाई। शंकराचार्य का कहना है ब्यूरोक्रेट भी सरकार की तरह सेक्युलर होते हैं। उन्हें राममंदिर निर्माण की जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। बता दें कि सनातनधर्म में शंकराचार्यों का स्थान सर्वोपरि है। उनके कथन को ब्रह्मवाक्य समझा जाता है लेकिन निहित स्वार्थ के चलते और राममंदिर पर कब्जा कर राजनीतिक फायदा उठाने के लिए ही मोदी सरकार ने सनातनधर्म के सर्वोच्च पीठाधीश शंकराचार्यों की उपेक्षा की। मोदी सरकार को राममंदिर और सनातनधर्म से कोई लेना देना नहीं। धार्मिक कार्य सरकार का काम नहीं है। शंकराचार्य कहते हैं मोदी को राम मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करने का कोई अधिकार नहीं है।यह अधिकार तो केवल विद्वान ब्राह्मणों को है। उन्होंने आशंका व्यक्त की कि मोदी द्वारा प्राणप्रतिष्ठा कहीं किसी विनाश का संकेत तो नहीं दे रही? किंतु मोदी को राम के सहारे ही लोकसभा चुनाव की नैय्या पार लगानी है जैसा २०१९ लोकसभा चुनाव के प्रचार के अंतिम दिन मोदी केदारनाथ जाकर एक गुफा में बैठ गए थे गेरुआ पहनकर जिसे गोदी मीडिया ने संत निरूपित करते हुए खूब प्रचारित और प्रसारित किया। नतीजा ३०३ सीटें जीत गई बीजेपी। वैसा ही अब सोच रहे कि राम की कृपा से चार सौ पार जीत लेंगे। शंकराचार्य के कथन की कसौटी पर राममंदिर निर्माण कमेटी की परख करते हैं। महंत नृत्य गोपाल दास को चेयर मैन बनाया गया है जबकि सस्ते रेट में जमीन खरीदकर कमेटी को मंहगे दाम में बेचने के आरोपी और रामाजनंभूमि के नाम पर आए १४०० करोड़ रूपए चंदा हजम करने के आरोपी चंपतराय को महासचिव बनाया गया है। अन्य १६ में से १२ का चयन इस प्रकार सरकार ने किया है। के पारासरण ,वासुदेवानंद सरस्वती, विश्वप्रश्न तीर्थ, परमानंद गिरी, गोविंद देव गिरी, विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्र, डॉक्टर अनिल मिश्र, कामेश्वर चौपाल, महंत दिनेंद्र दास, ज्ञानेश कुमार आईएएस, अवनीश आर्किटेक्ट, आईएएस, डीएम अयोध्या आईएएस और नृपेंद्र मिश्र आईएएस को समिति का सदस्य मनोनित किया गया है। शंकराचार्य के शब्दों में इनमे से क्या किसी ने राममंदिर की लड़ाई में कोई भूमिका निभाई है।उत्तर मिलेगा नहीं।
इनमे अधिकांश ब्यूरोक्रेट्स हैं। मंदिर निर्माण समिति में शत्रुघ्न सिंह पुरातत्व और पूर्व मुख्य सचिव उत्तराखंड, दिवाकर त्रिपीठ शास्त्र प्रशासक प्रमुख हनुमान मंदिर नासिक, प्रोफेसर रतन सूरी रिटायर डीन,के के शर्मा पूर्व कर्मचारी सचिवालय, ओ पी मुकेश पूर्व एमडी राष्ट्रीय भवन निर्माण, आशुतोष शर्मा सचिव भारत के नियंत्रक एवम महालेखा परीक्षक सदस्य मनोनित किए गए हैं सरकार द्वारा। अब प्रश्न यह है कि इनका राम जन्मभूमि की लड़ाई में क्या योगदान रहा है जिन्हें समिति में मनोनित किया गया? राममंदिर निर्माण में ९०० करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं जबकि चंदे की राशि में से ३००० करोड़ रूपए शेष बताए गए हैं। अब २२ जनवरी को मोदी द्वारा प्राणप्रतिष्ठा संपन्न कराने की योजना है जो शंकराचार्य के अनुसार पात्र ही नहीं हैं। मोदी पर आरोप लग रहे हैं कि हिंदुओं का कोई धार्मिक आयोजन पत्नी बिना संपन्न नहीं माना जाता। चूंकि मोदी की पत्नी जीवित हैं। तलाक नहीं हुआ है। चुनाव के घोषणापत्र में मोदी ने पत्नी का नाम लिखा है फिर प्राणप्रतिष्ठा में सपत्नी क्यों नहीं आ रहे। फिल्मी और अन्य क्षेत्र के लोगों को आमंत्रण भेजा गया है लेकिन बीजेपी के घर के और राममंदिर रथयात्रा निकालने वाले महारथी लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को चंपत राय ने मना कर दिया। किसके आदेश से? ताकि कैमरा मोदी को ही फोकस और हाई लाइट करता रहे जिसका फायदा मोदी लोकसभा चुनाव में उठा सकें।

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