Personal character: स्वतंत्र कौन नहीं रहना चाहता। तोते को सोने के पिंजरे (parrot gold cage) में बंद कर पाल लीजिए। सोने के पिंजरे में वह उतना संतुष्ट, उतना सुखी नहीं रह सकेगा जितना कि आजाद हो कर पेड़ों पर बैठने और पर तोलते हुए नीलांबर में उन्मुक्त उड़ने में बहुत अधिक आनंद मिलेगा।आप उसे खूब बोलना सिखाइए। खूब खिलाइए लेकिन जिस दिन पिंजरे का द्वार खुला ही रह गया तो वह मौका देखकर बाहर निकल भागेगा।उसी तरह किसी भी पशु को मोटी रस्सी से बांधकर खूब खिलाइए लेकिन देखा होगा कि कभी कभी वह रस्सा तुड़ाकर भाग निकलने में कामयाब होगा। वह एक पल भी बंधन में रुकना नहीं चाहेगा।
तनिक सोचिए। जब पशु, पक्षी बंधन में बंधकर रहना नहीं चाहते तो बुद्धिमान मानव कब बंधन में जकड़ा रहना चाहेगा? इतिहास बताता है कि मुगलों से युद्ध क्यों लडे गए? अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन क्यों हुए? सिर्फ इसलिए कि गुलामी का बंधन किसी को प्रिय नहीं लगता।आज भी शासन, प्रशासन के अन्याय से,अत्याचार से जनता मुक्ति चाहती है।आजाद होने के लिए छट पटाती है। अशिक्षा, अभाव, बेरोजगारी और गुलाम बनाए रखने वाली अन्याई अनीति और तमाम कानूनों से मुक्ति पाना चाहती है जनता।
न्याय पाने के लिए कभी कोर्ट के चक्कर लगाती है और न्याय नहीं मिलने पर गुंडों माफियाओं की शरण में क्यों जाती है जनता।इसलिए कि उनके यहां न्याय तुरंत मिलता है।जबकि कोर्ट से न्याय पाने में कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं। यही कारण है आज लोगों का न्यायालयों के प्रति विश्वास कमजोर हुआ है।एक बार किसी गुंडे या माफिया ने आप के सिर पर हाथ फेर दिया तो दूसरे आप की तरफ आंख उठाकर देखने का दुस्साहस नहीं करेगा। गुंडे माफिया की प्रशंसा करना,कसीदे पढ़ना हमारा लक्ष्य नहीं है।उसका महिमामंडन करना हमारा उद्देश्य नहीं है किंतु निर्विवाद सत्य यह है कि त्वरित न्याय के लिए लोग माफिया की शरण में जाते ही हैं।
मनुष्य स्वातंत्र्य प्रिय, न्यायप्रिय होता है। उसे त्वरित न्याय चाहिए और त्वरित न्याय कोर्ट नहीं देती। स्थानीय अधिकारियों के यह गुहार करने पर उपेक्षा का भाव दिखता है। जिला कोर्ट से हाईकोर्ट फिर सुप्रीमकोर्ट तक विवश होकर दौड़ते रहने को विवश होकर अंत में वर्षो बाद भी अनिश्चय की स्थिति रहती है। व्यक्ति ऊहापोह में रहता है कि क्या पता कोर्ट से कब न्याय मिलेगा या नहीं ही मिलेगा।
इसलिए चारित्रिक स्वातंत्र्य ज़रूरी है। यह स्वतंत्रता चार स्तरों पर होती है। व्यक्तिगत, जिसमें हम क्या खाएं, क्या पहनें, विश्वास और श्रद्धा चाहे जिसके प्रति हो। किसी धर्म के अनुयाई हों। धर्म ग्रहण करने, त्याग करने का व्यक्तिगत अधिकार होना ज़रूरी है। हर किसी को अपनी पसंद, नापसंद करने प्रेम, मैत्री करने और विवाह करने का वैयक्तिक अधिकार होने ही चाहिए। व्यक्ति परिवार में रहता है।
पारिवारिक नियम भी कभी कभी आजादी में बाधक होते हैं। बच्चे से माता-पिता अपेक्षा करने लगते हैं कि उनकी संतान डॉक्टर इंजिनियर, आईएएस,आईपीएस या पीसीएस बनें। इससे बच्चों पर मानसिक दबाव बना रहे तो कुंठित होने की संभावना होती है।आजकल तो ढाई साल का बच्चा बस्ते के बोझ तले लाद दिया जाता है जिससे उसे ज्ञात ही नहीं हो पाता कि बचपना क्या होता है। तीसरा स्तर आता है सामाजिक धरातल पर स्वतंत्रता।व्यक्ति समाज में रहता है इसलिए उसे सामाजिक प्राणी कहते हैं। समाज के प्रति उसके दायित्वों के प्रति चेताया जाता है किंतु कभी भी उसके सामाजिकता में उसकी स्वतंत्रता की बात नहीं बताई जाती।
समाज में उसे भी अपनी बातें, इच्छाएं बताने के वैयक्तिक अधिकार ही स्वतंत्रता है। कोई लड़का या लड़की को यह वैयक्तिक स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन सके। आजकल तो व्यक्तिगत मामलों में भी निर्णय माता-पिता, भाई बहन, चाचा, ताऊ आदि का हस्तक्षेप ही निर्णय पालने की प्रतिबद्धता दी जाती है। कहीं कहीं तो व्यक्तिगत पसंद और विवाह खाप पंचायतें तय करती हैं कि कौन किससे विवाह करे या नहीं करे।पिता भी अपनी मर्जी थोपते हैं यही कारण है ऑनर किलिंग का जहां लड़का लड़की दोनो या लड़के की हत्या तक की जाती है।
तीसरा स्तर है राष्ट्रीय।राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यक्तिगत स्वातंत्र्य ज़रूरी है। शासन को व्यक्तिगत मामलों में नाक घुसेड़ने का नैतिक अधिकार नहीं होता। यह ठीक है कि गैरकानूनी कार्य नहीं करे लेकिन व्यति के व्यक्तिगत स्वातंत्र्य पर सरकारी हस्तक्षेप अथवा अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए क्योंकि व्यक्तिगत आजादी पर कुठाराघात अन्याय और अत्याचार होता है। यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर कतिपय आजादी मिली है लेकिन तमाम ऐसी चीजें हैं जिसपर शासन का हथौड़ा दंड देने के लिए चलता है।अधिनायक वादी व्यवस्था में आलोचना के अधिकार अपरोक्ष रूप में छीन लिए जाते हैं। आलोचना करने को अपराध मानकर अधिनायक दंडित करने की कोशिशें कराता है यथा किसी संस्थान में नौकरी करने पर निकल दिया जाना।आलोचक को पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों द्वारा बेवजह परेशान किया जाना आदि।