
विवेक रंजन श्रीवास्तव
आदर्श स्थिति यही है कि साहित्य को राजनीति से दूर रखना चाहिए। किन्तु यह बात सुनने में जितनी सहज लगती है, व्यवहार में उतनी ही कठिन है। साहित्य का उद्देश्य ही समाज की बात करना है, पर जैसे ही साहित्य समाज का प्रतिबिंब बनता है, वह राजनीति से अनजाने में ही जुड़ जाता है, क्योंकि समाज का हर तंतु राजनीति से रँगा होता है। रसोई से लेकर संसद तक वही भाषा, वही चाल-ढाल, वही सोच विस्तार पा रही है। साहित्यकार चाहे जितना तटस्थ रहने की कोशिश करे, अंततः उसे इसी माहौल की मिट्टी से अपनी काया बनानी पड़ती है। आदर्श यह है कि साहित्यकार सत्ता से दूरी बनाए रखे। उसका उद्देश्य सत्ता की कृपा प्राप्त करना नहीं, बल्कि समाज की चेतना जगाना होना चाहिए। पर अब यह सीमारेखा गड्मगड्ड हो चली है। साहित्यकार और राजनीतिज्ञ दोनों एक-दूसरे की जरूरत बन चुके हैं। नेता पुरस्कार और पद बाँटकर अपनी चमक बढ़ाते हैं, और कुछ लेखक इन कृपाओं को आत्मगौरव मान बैठते हैं। इस परस्पर सौदेबाज़ी में साहित्य का आत्मबल खो जाता है। रचनाकार को समाज की आत्मा होना था, वह सत्ता की शक्ति बनने की राह में खड़ा दिखता है। राजनीति साहित्य में सीधे नहीं उतरनी चाहिए। उसके निहितार्थ मानवता के पक्ष में होने चाहिए। जब साहित्य, सामाजिक न्याय, समानता, और विवेक की बात करता है, तो वह राजनीति नहीं, नैतिकता का निर्वाह करता है। समस्या तब होती है जब विचारधारा रचना पर हावी हो जाती है। लेखक को तब एक विशेष खेमे का प्रवक्ता मान लिया जाता है। विडंबना यह है कि बिना किसी विचारधारा के समर्थन के भी साहित्य असंभव है, क्योंकि हर रचना के पीछे कोई दृष्टिकोण होता है। फर्क केवल इतना है कि क्या वह दृष्टिकोण स्वतंत्र है या सत्ता-प्रेरित है। आज साहित्यिक दुनिया में एक नया समीकरण बन रहा है। बरसों तक वामपंथियों ने अपने गुट बनाकर एक-दूसरे को बढ़ाया। अब जब सत्ता दक्षिणपंथियों के हाथ में है, वही खेल दूसरी तरफ से दोहराया जा रहा है। यानी साहित्य अपने मूल रूप में सत्ता का मुखापेक्षी बना हुआ है। कभी पुरस्कारों के लिए नेताओं की चापलूसी, कभी संस्थाओं की अनुशंसा पाने की होड़, कभी आयोजनों में राजनेताओं की उपस्थिति से गौरव पाने की प्रवृत्ति, ये सब साहित्य के लिए आत्मघाती हैं। यह प्रवृत्ति लेखक को विचारशील व्यक्ति से दरबारी व्यक्ति में बदल देती है। चारण, भाट और प्रबुद्ध साहित्यकार क्षीण रेखा से विभाजित हैं। परंतु समाधान सत्ता से कटकर मौन रहना नहीं है। साहित्य को सत्ता से डरना नहीं चाहिए, बल्कि उसे आईना दिखाने का साहस रखना चाहिए। सत्ता चाहे किसी दल की हो, लेखक को सत्य कहना आना चाहिए। सच्चा साहित्य न सरकार के पक्ष में होता है, न विपक्ष में, वह केवल मनुष्य के पक्ष में होता है। व्यंग्यकार इस मुगालते में हैं कि सत्ता का विरोध ही उनका रचना धर्म है।
वही साहित्य अमर होता है जो अपने समय से टकराने का जोखिम उठाता है। जो शाश्वत सत्य का पक्षधर होता है। सत्ता के कृत्रिम नैरेटिव के बीच जो लेखक सत्य बोलता है, वही समाज का असली प्रवक्ता है। लेखक का दायित्व केवल सप्रयास सुंदर भाषा गढ़ना नहीं, बल्कि विवेक को जिंदा रखना है। आज जब हर मंच पर नारे और विमर्श विचार की जगह ले रहे हैं, तब साहित्य को और सजग रहना होगा। उसे पुरस्कारों की चमक से नहीं, अपने अंतर्मन की सच्चाई से रोशन होना चाहिए। अगर साहित्य सत्ता के इशारों पर लिखे जाने लगे तो वह प्रचार बन जाता है, और अगर समाज की पीड़ा से जुड़कर लिखा जाए तो वह इतिहास बन जाता है।
सत्ता अक्सर साहित्य का इस्तेमाल इतिहास को अपने ढंग से लिखाने के लिए करती है। वह चाहती है कि कवि उसकी जीतों के गीत गाएँ और आलोचक उसकी नीतियों को दर्शनशास्त्र घोषित कर दें। ऐसे समय में स्वतंत्र साहित्य का होना आवश्यक है। वह सत्ता को चुनौती देने वाला होना चाहिए, उसे आईना दिखाने वाला होना चाहिए, क्योंकि साहित्य का जन्म ही इसीलिए हुआ कि मनुष्य को विचार की स्वतंत्रता मिले। साहित्य और राजनीति के बीच यह जटिल रिश्ता कभी पूरी तरह टूट नहीं सकता। पर यह रिश्ता ऐसा हो जिसमें साहित्य सत्ता का दर्पण बने, उसकी छवि न बने। लेखक की निष्ठा किसी दल या विचारधारा से नहीं, सत्य और संवेदना से होनी चाहिए। तभी साहित्य समाज का विवेक कहलाएगा, तभी उसकी कलम को अर्थ मिलेगा। राजनीति भले सब जगह फैल जाए, साहित्य को हर हाल में स्वतंत्र रहना होगा, क्योंकि अगर साहित्य बिक गया तो समाज सोचने की अपनी अंतिम ताकत खो देगा।




