
सुधाकर आशावादी
जब मैं किसी की ज़िंदगी में नही झाँकना चाहता, तो कोई मेरी क्यों झाँके ? ज़रा जरा सी बात पर बात का बतंगड़ बनाना लोगों की आदत बन चुकी है। जब से सोशल मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से तो जिसे देखो वही मान न मान मैं तेरा मेहमान बन कर कोई भी किसी की ज़िंदगी में दाखिल होने में देर नहीं लगाता। कभी शुभ चिंतक बन जाता है, कभी आलोचक। बहरहाल कोई अपने कष्टों से दुखी नहीं है। उसे बस उस सेलिब्रिटी पर टीका टिप्पणी,छींटाकशी करनी है, जो उसे न जानता है न पहचानता है। मुझे क्या पसंद है, क्या नहीं, मुझसे किस से बात करनी है, किस से नहीं, यह मेरी मर्जी पर निर्भर होना चाहिए या किसी अन्य की मर्जी पर। सवाल मेरे स्वाभिमान और मेरी स्वतंत्रता से जुड़ा है। न जाने क्यों लोग मुझसे अपेक्षा करते हैं, कि मैं उनकी मर्जी से ही जीवनचर्या अपनाऊं, वे जैसे कहें वैसे ही उनके इशारे पर कठपुतली का नाच दिखाऊं, वे कहें कि खड़ा हो जा तो खड़ा हो जाऊं, बैठ जा, तो बैठ जाऊं, चाय पी ले, तो चाय पी लूँ। पानी पी ले तो बिना प्यास के पानी पी लूँ। आखिर मेरी भी तो कोई अपनी इच्छा होगी, मेरा भी अपना नजरिया होगा, जिस नजरिये से मैं जीना चाहता हूँ, उस नजरिये से मेरी भी जीने की तमन्ना होगी। पर मेरे बारे में कोई सोचता ही नहीं, जिसे देखो वही मेरे आचरण के बाल की खाल निकालने में जुटा हुआ है। कल ही मैं मैदान में क्रिकेट खेल रहा था। टॉस हुआ, मैं टॉस हार गया। खेल में जीत हार नई बात नहीं है। चाहे टॉस जीतो या मैच, चाहे टॉस हारो या मैच, क्या फर्क पड़ता है। पर कुछ ऐसे लोग हैं, जो टॉस जीतने को मैच जीतने की प्रस्तावना मान लेते हैं। खेल के मैदान में खेल की शुरुआत ही खेल भावना के प्रदर्शन से होती है। कहा जाता है कि पहले प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी से हाथ मिलाओ, फिर खेल में अपना कौशल दिखाओ। मैं तर्कशील हूँ। हर परंपरा को तब तक निभाना नहीं चाहता, जब तक कि उस परंपरा को तर्क की कसौटी पर न तौल लूँ। मैंने टॉस हार कर विपक्षी टीम के मुखिया से हाथ नहीं मिलाया, मैच जीतकर भी विपक्षी टीम के खिलाड़ियों से हाथ नहीं मिलाया। लोग उसी की चर्चा करने लगे। हद है, लगता है कि कोई अपने दुःख से दुखी नहीं है। उन्हें केवल दूसरों के आचरण पर नजर रखनी है, कि कब किसने किस से हाथ मिलाया और कब हाथ पीछे कर लिए , कब किस को अपनत्व की नजर से निहारा और कब किसकी तरफ से निगाहें फेर ली। कब किस का अपमान किया, कब किसका सम्मान किया। वैसे समय बलवान है, न जाने कब किस का अपमान करा दे और कब किस का सम्मान। पग पग पर ऐसे लोग खड़े मिलते हैं, जिनसे हमारे विचार नहीं मिलते। क्या सभी से हाथ मिलाना जरुरी है। क्या जरुरी है कि किसी से मन मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए। अपुन तो अपनी मर्जी के मालिक हैं। न किसी के प्रभाव में रहते हैं, न किसी को अपने प्रभाव में रखने का प्रयास करते हैं। अपुन का मूल मंत्र है खुद भी अपनी मर्जी से जियो और औरों को भी उनकी मर्जी से जीने दो। खेल का मैदान हो या ज़िन्दगी का, अपुन तो अपनी मर्जी से ही हाथ मिलाएंगे।




