
स्वतंत्र लेखक- इंद्र यादव
उत्तर प्रदेश, जहां दीयों के रिकॉर्ड बनते हैं, और विकास के ढोल पीटे जाते हैं। लेकिन हमीरपुर जिले के मौदहा ब्लॉक में बसे गऊघाट छानी ग्राम पंचायत के परसदवा डेरा की रेशमा की कहानी इस चमक-दमक के पीछे की स्याह सच्चाई को उजागर करती है। यह कहानी उस 23 वर्षीय गर्भवती महिला की है, जो प्रसव पीड़ा में तड़पती रही, लेकिन ‘विकास’ के झंडाबरदारों की नजरों से ओझल, उसे बैलगाड़ी पर लिटाकर तीन किलोमीटर का दलदली रास्ता पार करना पड़ा। यह सिर्फ रेशमा की कहानी नहीं, बल्कि उन 500-600 ग्रामीणों की हकीकत है, जो आजादी के 78 साल बाद भी सड़क, स्वास्थ्य और सम्मान की बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। रविवार की सुबह, जब रेशमा प्रसव पीड़ा से कराह रही थी, उनके वृद्ध ससुर कृष्ण कुमार केवट ने एंबुलेंस को फोन किया। लेकिन ‘विकास’ की गंगा में डूबा प्रशासन इतना व्यस्त था कि एंबुलेंस चालक ने खराब रास्ते का बहाना बनाकर आने से इनकार कर दिया। मजबूरी में पुरानी बैलगाड़ी निकली—वही बैलगाड़ी, जो शायद आजादी से पहले भी गांव की गलियों में दौड़ती थी। कीचड़, कांटों और झाड़ियों से भरे रास्ते पर रेशमा को लिटाकर यह यात्रा शुरू हुई। बैलगाड़ी बार-बार दलदल में फंसी, रेशमा का दर्द बढ़ता गया, लेकिन ससुर का हौसला और मजबूरी ने उन्हें भटुरी तक पहुंचाया, जहां जाकर एंबुलेंस मिली। डॉक्टरों ने बताया कि प्रसव में दो दिन बाकी हैं, और रेशमा को घर लौटना पड़ा। लेकिन सवाल यह है—क्या यह सिर्फ रेशमा की पीड़ा थी, या उस ‘विकास’ की पोल, जो दीयों की रोशनी में चमकता है, लेकिन दलदल में डूब जाता है। योगी सरकार दीयों के रिकॉर्ड बनाने में मशगूल है। हर साल दीपोत्सव में लाखों दीये जलाए जाते हैं, गिनीज बुक में नाम दर्ज होता है, और ‘विकास’ की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं। लेकिन परसदवा डेरा जैसे गांवों में यह चमक नहीं पहुंचती। वहां की तीन किलोमीटर की कच्ची सड़क आजादी के बाद से पक्की होने का इंतजार कर रही है। बरसात में यह रास्ता दलदल का मायाजाल बन जाता है, जहां न जिंदगी की गारंटी है, न समय की। रात के अंधेरे में जंगली जानवरों का डर और समय पर इलाज न मिलने का भय ग्रामीणों की जिंदगी का हिस्सा है। ग्रामीण राजेंद्र कुमार का कहना है कि कई बार पंचायत और ब्लॉक अधिकारियों से सड़क की मांग की गई, लेकिन जवाब में सिर्फ आश्वासनों की माला थमाई गई। शायद इन आश्वासनों को भी गिनीज बुक में दर्ज करवाने की तैयारी है! यह घटना सिर्फ एक सड़क की कमी की कहानी नहीं है। यह उस व्यवस्था की नाकामी है, जो शहरों में फ्लाईओवर बनाती है, लेकिन गांवों में दलदल को ही नियति मान लेती है। यह उस सरकार की असलियत है, जो ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देती है, लेकिन रेशमा जैसी महिलाओं को बैलगाड़ी पर जिंदगी और मौत के बीच झूलने छोड़ देती है। एक तरफ चांद पर पहुंचने की बातें, दूसरी तरफ गांवों में एंबुलेंस न पहुंचने की मजबूरी। यह कैसा विकास है, जहां दीयों की रोशनी तो करोड़ों में गिनी जाती है, लेकिन सड़क के तीन किलोमीटर भी नहीं बन पाते? यह कैसी प्रगति है, जहां गर्भवती महिला को बैलगाड़ी पर दलदल पार करना पड़ता है, और प्रशासन ‘खराब रास्ते’ का बहाना बनाकर किनारा कर लेता है।रेशमा की कहानी कोई अपवाद नहीं है। यह उन लाखों ग्रामीणों की साझा पीड़ा है, जो ‘विकास’ के आंकड़ों में कहीं नहीं दिखते। सरकार के पास दीयों के लिए बजट है, मेगा इवेंट्स के लिए फंड है, लेकिन परसदवा डेरा जैसे गांवों के लिए सड़क का बजट कहां गायब हो जाता है? क्या विकास का मतलब सिर्फ शहरों की चमक और रिकॉर्ड्स की किताबें हैं? क्या ग्रामीण भारत की जिंदगी इतनी सस्ती है कि उसे दलदल में छोड़ दिया जाए? और सबसे बड़ा सवाल—कब तक रेशमा जैसी महिलाएं इस उपेक्षा का दंश झेलेंगी? कब तक बैलगाड़ी ही उनकी जिंदगी का सहारा रहेगी। रेशमा की कहानी एक चेतावनी है। अगर सरकार इस दर्द को नहीं सुनेगी, तो दीयों की चमक कभी ग्रामीण भारत तक नहीं पहुंचेगी। परसदवा डेरा जैसे गांवों को पक्की सड़क, स्वास्थ्य सेवाएं और बुनियादी सुविधाएं चाहिए। यह समय है कि सरकार रिकॉर्ड्स की रेस से बाहर निकले और उन गांवों की ओर देखे, जहां लोग दलदल में जिंदगी जीने को मजबूर हैं। विकास का सपना तभी साकार होगा, जब हर गांव, हर डेरा उसकी रोशनी से जगमगाए। अन्यथा, दीयों के रिकॉर्ड बनते रहेंगे, और दलदल में जिंदगी तड़पती रहेगी। योगी सरकार को चाहिए कि वह दीपोत्सव की चमक से बाहर निकले और उन अंधेरे रास्तों को रोशन करे, जहां रेशमा जैसी महिलाएं जिंदगी के लिए जूझ रही हैं। विकास का ढोल तभी सार्थक होगा, जब वह दलदल को पार कर हर गांव तक पहुंचे। रेशमा की बैलगाड़ी सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक सवाल है। क्या सरकार इस सवाल का जवाब दे पाएगी, या फिर यह भी आश्वासनों के दलदल में फंसकर रह जाएगा!




