जब तक यह संक्षिप्त लेख हमारे जागरूक पाठकों तक पहुंचेगा, दुनिया एक और हिंदी दिवस मना चुकी होगी। भीषण भाषण के साथ प्रबुद्ध वक्ता पूरे जोश में उसका वास्तविक सम्मान दिलाने के कोरे वादे कर तालियां पिटवा चुके होंगे।वाहवाही लूट चुके होंगे। इनकी कथनी अरण्य रूदन अथवा नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर किसी अंधेरे कोने में चुपचाप बैठकर सिसकियां ले रही होंगी। हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान की स्वघोषित ठेकेदार जी 20 की स्वघोषित सफलता के लिए जनता का पैसा बेकार में लुटाकर, उसी खुमारी में अंतः प्लावित होकर झूम रहे होंगे। इसके अलावा एक अलग और अद्भुत सर्वथा नवीन मिथ्या हिंदू धर्म की भी ठेकेदारी लेकर हिंदू मुस्लिम के नारे देकर चुनाव में मत पाने के लिए हिंदू ध्रुवीकरण के प्रयास में रत होकर हिंदी को विस्मृत कर चुके होंगे। सरकारी बाबू ब्यूरोक्रेट शायद स्मरण करा दें तो फिर हिंदू दिवस अनमने मन से हिंदी को सम्मान दिलाने के संकल्प को पुनः दोहराकर वाहवाही लूटने में व्यस्त हो जाएं क्योंकि हिंदी की सेवा के लिए अब अंग्रेजी नाम बदलकर हिंदी नाम भारत करने की जिद में आगे निकलकर देश से इंडिया शब्द मिटाने चल पड़े होंगे। भले ही भारत नाम बदलने में जनता की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ लुटाने पड़ें, इसकी चिंता न कभी थी, न है और न भविष्य में कभी होगी अन्यथा रूटीन होने वाले जी 20 सम्मेलन के नाम पर खुद 990 करोड़ का प्रावधान कर 4100 करोड़ अपव्यय नहीं किया जाता। गरीबी हटाने की जगह गरीबों के झोपड़े नहीं तोड़े जाते। गरीब नहीं मिटाए जाते। गरीबी को ढकने के लिए दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों को हरे परदे से ढांकने की कोशिश कर उसपर अपने नाम के प्रचार के लिए फोटो सहित पोस्टर नहीं लगाए जाते। अब लोकसभा चुनाव तक स्वघोषित जी 20 की स्वघोषित अपार सफलता के साथ हिंदुत्व की चासनी चटाकर वोट लेने की जुगत न भिड़ाई जाती।
दिवस तो कमजोरों, हाशिए पर हटाए गए, उपेक्षा की शिकार का मनाया जाता है। यथा स्त्री दिवस, फलाने, ढकाने दिवस। यह वह देश है जहां मातृ देवों भव, पितृदेव भव, गुरूदेवो भव के साथ सर्वेभवन्तु सुखिन और वसुधैव कुटुंबकम् का उद्घोष किया जाता रहा हो। देव वाणी की गोद से निकली हिंदी के उत्कर्ष में राजनीति ही सदैव आड़े आती रही है।बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि संविधान समिति में दूसरी तमाम चीजों की तरह हिंदी को राजभाषा घोषित करने के उपरांत राजाभाषा पद पर आसीन करने के लिए पंद्रह वर्ष तैयारी के लिए रखने की बात पर राजार्शी टंडन ने जोरदार शब्दों में आपत्ति दर्ज कराते हुए चेतावनी दी थी कि यदि हिंदी को वास्तव में राजभाषा का स्वरूप देना चाहते हैं तो इसे यह दर्जा अभी दे दो अन्यथा हिंदी कभी भी राजभाषा नहीं बन पाएगी। राजऋषि टंडन की आशंका सत्य सिद्ध हुई जो कथित आजादी के 75 वर्ष बाद भी हिंदी को उसका उचित स्थान नहीं मिला। अब तो देश की आजादी के समय को लेकर भी विरोधाभास दिख रहा है। इतिहास कहता है भारत को आजादी 15 अगस्त 1947 में मिली जब कि बीजेपी के अनुसार आजादी 2014 में मिली। जबकि दोनो दावे ही गलत हैं। देश की जनता तब गोरे शासकों की गुलाम थी और अब काले शासकों की गुलाम है। बिना राष्ट्रभाषा और राजभाषा अर्थात सरकारी कामकाज की भाषा अपनी होने से राष्ट्र गूंगा होता है। इस अर्थ में भारत एक गूंगा राष्ट्र अभी भी है। चिंतनीय बात यह कि हिंदी हिंदू हिंदुस्तान का घोष करने वाले भी दस वर्ष केंद्र में राज करने के बावजूद हिंदी के साथ न्याय नहीं किए।