
डॉ.सुधाकर आशावादी
उच्च पद पर आसीन रह चुका कोई भी बुद्धिजीवी देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र है। यदि उसकी अभिव्यक्ति तर्कपूर्ण है, तब उसे जन सामान्य की सहमति मिलती ही है, किन्तु संकीर्ण सोच उदात्त विचारों को भला कब स्वीकार करती है। राष्ट्र को बरसों तक विकलांग बनाने की दिशा में जातीय आरक्षण पर विवाद जारी है। कोई जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर रहा है, तो कोई दुर्बल आय वर्ग के आरक्षण का। कभी कभी जातीय आधार पर क्रीमीलेयर को मिलने वाले आरक्षण पर भी चर्चा हो जाती है, किन्तु आरक्षण के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त सोच सत्य स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया श्री बी.आर.गंवई ने जब अनुसूचित जातियों में क्रीमीलेयर आरक्षण समाप्त करने की बात कही, तो उन्हें अपनी ही जाति के लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। श्री गंवई ने फिर कहा कि डॉक्टर बी. आर.अंबेडकर की नजर में आरक्षण ऐसा था, जैसे किसी पिछड़ गए व्यक्ति को साईकिल देना, ताकि वह बाकी लोगों के बराबर पहुँच सके। इसका मतलब यह नहीं कि वह हमेशा साइकिल पर चलता रहे तथा औरों के लिए रास्ता बंद कर दे।
वस्तुस्थिति यह है कि आरक्षण देश को अक्षम और विकलांग बनाए रखने का साधन भर रह गया है। कौन नहीं जानता, कि जातीय आरक्षण का लाभ अनुसूचित जातियों की श्रेणी में जीवन यापन कर रही सभी जातियों को समान अनुपात में नहीं मिल सका है, यह विशेष जाति के चंद परिवारों तक ही सीमित रह गया है। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश श्री पंकज मित्तल का विचार भी सराहनीय है कि आरक्षण सिर्फ पहली पीढ़ी के लिए होना चाहिए, अगली के लिए नहीं। अगर आपके परिवार को पहले ही फायदा मिल चुका है तो दूसरों के लिए जगह छोड़ो। ऐसे में आवश्यक है, कि आरक्षण की पुनर्समीक्षा हो तथा किसी भी आधार पर प्रदान किये जाने वाले आरक्षण को निरस्त किया जाए। यदि कुछ प्रतिशत आरक्षण प्रदान करना भी हो, तो अंतिम व्यक्ति के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो, जिसे किसी भी प्रकार से आगे बढ़ने का अवसर न मिला हो। कहने का आशय यही है कि आरक्षण की पुनर्समीक्षा दलगत राजनीति से अलग हटकर की जानी चाहिए तथा समीक्षकों में ऐसे बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री व शिक्षाविद सम्मिलित हों, जो मानवीय एवं राष्ट्रवादी सोच के प्रति समर्पित हों।




