
वरिष्ठ लेखक- जितेंद्र पांडेय
जवाहरलाल नेहरू के सामने 15 अगस्त 1947 को जो चुनौती थी, वह केवल एक स्वतंत्र राष्ट्र का नेतृत्व करना नहीं था। उन्हें 562 रियासतों का एक विशाल पहेली मिली थी। प्रत्येक अपनी सेना, अपने कानून, और अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ। ब्रिटिश भारत तो आज़ाद हो गया था, लेकिन देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे भारत में शामिल हों, पाकिस्तान में जाएं, या स्वतंत्र रहें। यह स्थिति एक राजनीतिक विस्फोट की तरह थी, जिसमें भारत कभी भी बाल्कन जैसे टुकड़ों में बिखर सकता था। हैदराबाद के निज़ाम उस्मान अली खान, जो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति माने जाते थे, ने स्वतंत्र रहने का सपना देखा। उनकी रियासत में 1.6 करोड़ की आबादी थी, जिसमें 85 प्रतिशत हिंदू थे, लेकिन शासन मुस्लिम अभिजात वर्ग का था। जूनागढ़ के नवाब ने तो हद ही कर दी। समुद्र तट पर स्थित इस हिंदू बहुल रियासत को पाकिस्तान में शामिल करने का फैसला कर लिया, जबकि पाकिस्तान से कोई भौगोलिक संबंध भी नहीं था। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह हिचकिचा रहे थे, स्विट्जरलैंड की तरह तटस्थ रहने का स्वप्न देख रहे थे। त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने अपनी मुद्रा छापने और स्वतंत्र व्यापार संधियाँ करने की योजना बनाई थी। भोपाल, जोधपुर, और इंदौर जैसी रियासतें भी अपने-अपने सौदे तय करने में लगी थीं। सरदार वल्लभभाई पटेल की लौह इच्छाशक्ति और वी.पी. मेनन की कूटनीतिक चतुराई से इस असंभव कार्य की शुरुआत हुई। पटेल ने राज्य विभाग की स्थापना की और वी.पी. मेनन को इसका सचिव नियुक्त किया। मेनन ने “इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन” (विलय पत्र) का मसौदा तैयार किया। एक कानूनी दस्तावेज जिसके तहत रियासतें रक्षा, विदेश मामले और संचार भारत सरकार को सौंपने पर सहमत होती थीं। पटेल का मूल हथियार था अनुनय-विनय, लेकिन वे दृढ़ता से संदेश देते थे। आप अतीत की छाया हैं, भविष्य जनता का है। पटेल की रणनीति बहुआयामी थी। पहला, उन्होंने प्रिवी पर्स (निजी थैली) की अवधारणा पेश की। शाही परिवारों को वार्षिक कर-मुक्त भुगतान का आश्वासन, जो 1971 तक जारी रहा। यह रणनीति अहिंसक और पारस्परिक रूप से लाभप्रद थी, जिसने राजाओं को विश्वास दिलाया कि उनका भविष्य सुरक्षित है। दूसरा, उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन के शाही संबंधों का लाभ उठाया, जिनकी उपस्थिति ने कई राजकुमारों को प्रभावित किया। तीसरा, बीकानेर और बड़ौदा जैसी छोटी और मध्यम रियासतों को पहले मिलाकर एक गति पैदा की। राजपूताना क्षेत्र (अब राजस्थान) में कई छोटी रियासतों को एक प्रशासनिक इकाई में संयोजित किया गया। लेकिन जब अनुनय विफल हुआ, पटेल ने कठोर कदम उठाए। जूनागढ़ में जब नवाब पाकिस्तान भाग गया, तो पुलिस कार्रवाई हुई और जनमत संग्रह कराया गया। 99.5 प्रतिशत मतों से भारत में विलय हुआ। हैदराबाद सबसे बड़ी चुनौती था, जहां निज़ाम ने रजाकार मिलिशिया बनाई जो सांप्रदायिक हिंसा फैला रही थी। सितंबर 1948 में ऑपरेशन पोलो के तहत पाँच दिनों में भारतीय सेना ने हैदराबाद राज्य सेना को परास्त किया। 17 सितंबर को हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर में कबायली हमले के बाद महाराजा ने भारत की शरण ली।
मेनन की कार्यप्रणाली व्यवस्थित थी। उन्होंने पहले छोटी रियासतों को व्यावहारिक प्रशासनिक इकाइयाँ बनाया, फिर उन्हें बड़े राज्यों या प्रांतों में मिलाया। उनकी राजनयिक कुशलता और पटेल की रणनीतिक दृष्टि ने मिलकर भारत को विखंडन से बचाया। दो वर्षों की अथक मेहनत में, इन दोनों ने 500 से अधिक रियासतों को एकीकृत किया, जो स्वतंत्र भारत के 48 प्रतिशत क्षेत्र और 28 प्रतिशत जनसंख्या को कवर करती थीं। लेकिन असली चुनौती विलय के बाद शुरू हुई। इन रियासतों को प्रशासनिक रूप से एकीकृत करना था। प्रत्येक की अपनी कर प्रणाली, न्यायिक संरचना, और सामंती परंपराएँ थीं। फिर भाषाई पुनर्गठन की मांगें उठने लगीं। 1949 में जेवीपी समिति प्रधानमंत्री नेहरू, सरदार पटेल, और कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमय्या ने चेतावनी दी कि भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन राष्ट्रीय एकता के लिए विघटनकारी हो सकता है। लेकिन तेलुगु भाषियों की मांग प्रबल होती गई। 1952 में पोट्टी श्रीरामुलु- एक गांधीवादी और पूर्व रेलवे इंजीनियर ने अलग तेलुगु राज्य की मांग के लिए 58 दिनों का अनशन शुरू किया। दिसंबर 1952 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी शहादत ने व्यापक हिंसक प्रदर्शनों को जन्म दिया, जिसने प्रधानमंत्री नेहरू को 17 दिसंबर 1952 को आंध्र राज्य की घोषणा करने पर मजबूर कर दिया। 1 अक्टूबर 1953 को यह आधिकारिक रूप से बना। स्वतंत्र भारत का पहला भाषाई राज्य। श्रीरामुलु की मृत्यु ने भारत का नक्शा बदल दिया। आंध्र प्रदेश के गठन ने पूरे भारत में भाषाई राज्यों की मांगों की बाढ़ ला दी। मराठी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम सभी भाषाओं के लोग अपने राज्य चाहते थे। प्रोफेसर सुनीति कुमार चटर्जी जैसे महान भाषाविदों को संदेह था कि देश इस “भाषाई राष्ट्रवाद” को झेल पाएगा या नहीं।
उन्हें लगा कि प्रमुख गैर-हिंदी भाषाओं के बोलने वाले अपनी अलग भाषाई पहचान और संस्कृति के साथ हिंदी-हृदय राज्यों के साथ लंबे समय तक नहीं रह सकेंगे। जटिलता को समझते हुए, केंद्र ने दिसंबर 1953 में न्यायमूर्ति फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) की स्थापना की। 30 सितंबर 1955 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में, एसआरसी ने स्वीकार किया कि क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते महत्व और राजनीतिक जागरूकता ने भाषाई पुनर्गठन को अपरिहार्य बना दिया था। लेकिन आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल भाषा या संस्कृति पर निर्भर रहना न तो संभव था और न ही वांछनीय। राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा, प्रशासनिक, वित्तीय और आर्थिक व्यवहार्यता समान रूप से महत्वपूर्ण थीं।
नेहरू की आधुनिक दृष्टि और विरासत
नेहरू ने भारत को विश्व मंच पर एक सम्मानित स्थान दिलाया। शीत युद्ध के दौरान जब दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के खेमों में बंट रही थी, नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की नींव रखी। 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में हुए एशिया-अफ्रीका सम्मेलन में नेहरू ने उपनिवेशवाद विरोधी और शांति के संदेश को वैश्विक स्तर पर पहुंचाया। उन्होंने मिस्र के नासर और युगोस्लाविया के टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्षता को एक मजबूत विदेश नीति के रूप में स्थापित किया। विविधता में एकता का जीवंत प्रतीक बना भारत- अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले भाषाई राज्यों के डर झूठे साबित हुए। आज जब हम एक एकीकृत भारत देखते हैं, जहां तमिलनाडु से पंजाब तक एक ही संविधान, एक ही चुनाव आयोग, और एक ही सर्वोच्च न्यायालय है, तो भूल जाते हैं कि 1947 में यह कोई निश्चित परिणाम नहीं था। यह केवल नेहरू, पटेल या मेनन की जीत नहीं थी। यह उन लाखों भारतीयों की इच्छाशक्ति थी जिन्होंने टुकड़ों से एक राष्ट्र गढ़ने का सपना देखा था। नेहरू ने उस राष्ट्र को आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच की नींव पर खड़ा किया। देश की समस्त भाषाएँ संस्कृत की कोख से ही जन्मी हैं। सभी भारतीय भाषाएँ हिंदी की सहचरी और सगी बहनें हैं, जिन्हें छोटी बहन कहा जा सकता है। इनमें कोई शत्रुता नहीं है।
भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा देने की बात आई तो दक्षिणी राज्यों के नेताओं ने विरोध करना शुरू किया।
आज वही दक्षिणी नेता केंद्र में मंत्री बनने, उत्तरी राज्यों से संबंध बढ़ाने और भारतीय राजनीति में प्रतिष्ठा पाने हेतु अपने बच्चों को हिंदी शिक्षक रखकर हिंदी पढ़ा रहे हैं। तब हिंदी को राजभाषा का विरोध किसी भारतीय भाषा ने नहीं किया, बल्कि अंग्रेजी को सामने लाकर उसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया।




