
केंद्र सरकार ने दिल्ली में सर्दी के दिनों में बढ़ते प्रदूषण के लिए पहले पंजाब और हरियाणा में पराली जलाए जाने को जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन पराली जलाना बंद या बहुत कम होने के बावजूद दिल्ली की हवा में जहर फैलाने को लेकर अब एक नई थ्योरी गढ़ी जा रही है, जिसके अनुसार कहा जा रहा है कि दिल्ली का आकार कटोरे जैसा है और यहाँ प्रदूषण तेज हवा न बहने के कारण जमा होता है। तेज हवा न बहने के इसी बहाने अरावली पहाड़ियों की परिभाषा बदलकर सौ मीटर ऊँचे पहाड़ को ही अरावली मान लिया गया है और खनन माफियाओं के दबाव में अरावली को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। जबकि सच यह है कि अरावली में पाई जाने वाली बेशकीमती चट्टानों पर खनन माफिया की नजर है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने आत्मघाती परिभाषा गढ़कर अरावली को नष्ट कर पश्चिमी ठंडी हवाओं और गर्मियों में लू के थपेड़ों से दिल्ली के पर्यावरण को पूरे वर्ष प्रदूषित रखने का निर्णय लिया है। अरावली पहाड़ी की संरचना ऐसी है कि वह रेगिस्तान को फैलने से रोकती है। वह बंगाल की खाड़ी से उठने वाले बादलों को रोककर वर्षा कराती है। इसमें ऐसी चट्टानें हैं जो वर्षाजल को संचित कर भूजल बढ़ाती हैं, जिसके कारण दिल्ली और हरियाणा रेगिस्तान बनने से अब तक बचे हुए हैं। जिस दिन अरावली खत्म हो गई, उत्तरी मैदानी क्षेत्रों की खेती का सर्वनाश सुनिश्चित है। भीषण ठंड और गर्म पश्चिमी हवाओं का प्रचंड वेग उत्तरी मैदानी क्षेत्र का भूगोल ही बदलकर रख देगा। बंगाल की खाड़ी से उठा मानसून मैदानी क्षेत्रों में वर्षा ही नहीं कर पाएगा। भीषण अकाल की स्थिति उत्पन्न होगी। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की राय के विपरीत चलकर सरकार देश के विनाश का षड्यंत्र रच रही है। दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट भी इसमें शामिल हो गया है। सौ मीटर ऊँचे पहाड़ों को ही अरावली मान लेने वालों को भूगोल का ज्ञान ही नहीं है। कोई भी पहाड़ जितना जमीन के ऊपर होता है, उतना ही जमीन के नीचे भी होता है। इसलिए जिसे सौ मीटर ऊँचा मानने की भूल की जा रही है, वह वास्तव में लगभग दो सौ मीटर ऊँचा होगा। नब्बे प्रतिशत अरावली धन्नासेठों की तिजोरियों में धन वर्षा करके उन्हें मालामाल बनाएगी। व्यापारी कभी भी देश और जनता के हित में नहीं सोचते, क्योंकि वे केवल मुनाफे और परिवारवादी धन के लोभी होते हैं, जिन्हें देश और जनता की कोई परवाह नहीं होती। जबकि उद्योगपति देश और जनता के बारे में सोचते हैं—ये शब्द स्वयं रतन टाटा ने कहे थे। दरअसल केंद्र और दिल्ली सरकार दिल्ली प्रदूषण के लिए अपनी जवाबदेही से भाग रही हैं। दिल्ली और एनसीआर में बनती विशाल मल्टीस्टोरी इमारतों से क्या कम धूल उड़ती है? दिल्ली में ही ऐश प्लांट लगाए गए हैं, जहाँ भट्ठों की राख से ईंटें बनाई जाती हैं। क्या उनके अवशेष हवा में मिलकर जहर नहीं फैलाते? यही नहीं, वैज्ञानिक शोध में पाया गया है कि प्रधानमंत्री, मंत्री और मुख्यमंत्रियों के साथ चलने वाले कारों के काफिलों से भी भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है। पूंजीपतियों के आवासों, इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की गाड़ियों और एनसीआर में बसे अमीरों के काफिलों से क्या प्रदूषण नहीं होता? पिक आवर में एकाएक दिल्ली-एनसीआर की हवा में कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे जहरीले तत्वों की भरमार हो जाती है। डीज़ल से चलने वाले भारी वाहनों का धुआँ हो या दिल्ली सरकार द्वारा स्थापित संयंत्र, जिनसे लगातार धुएँ का अंबार उठता रहता है। सबसे अहम बात यह है कि संसद और उसके आसपास रहने वाले मंत्रियों और सांसदों के लिए क्या यह आवश्यक है कि वे जनता के धन की बरबादी करते हुए एक से तीन किलोमीटर तक कारों के काफिले के बिना न चल सकें? सर्दी के दिनों में ऊपर की हवा अत्यंत ठंडी होने के कारण नीचे जमीन से कुछ ऊपर तक धूल और धुआँ रुका रहता है, जो ऊपर उठ नहीं पाता। घना कोहरा होने से प्रदूषण निचले स्तर पर जमा होता चला जाता है। ऐसे में पिक आवर में प्रदूषण का अचानक बढ़ना यह साबित करता है कि अमीरों के शौक के कारण दिल्ली की हवा जहरीली हो चुकी है, जिसमें सांस लेना मुश्किल होता है। यही नहीं, दिल्ली में कचरे के निपटान की समुचित व्यवस्था न होने से कचरे के ढेर जलाए जाते हैं, जिनका निरंतर धुआँ हवा को और अधिक विषैला बनाता है। क्या सांसदों और मंत्रियों का कारों के काफिले में, वह भी अत्यंत सुरक्षित क्षेत्रों में, चलना वास्तव में आवश्यक है? क्या विदेशी राष्ट्राध्यक्षों की तरह वे साइकिल से दो-चार किलोमीटर नहीं चल सकते? विदेश की बात छोड़िए, केंद्रीय रक्षा मंत्री और गोवा के मुख्यमंत्री स्वयं गोवा में विधान भवन तक साइकिल से आते-जाते रहे हैं। यदि सर्दियों के दिनों में सांसद और मंत्री चंद किलोमीटर की दूरी साइकिल से तय करें, तो प्रदूषण काफी हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन नहीं—राजनेताओं ने अपने लिए ऐसी वीआईपी व्यवस्था बना रखी है कि भारत जैसे गरीब देश में, जहाँ अस्सी करोड़ लोग पाँच किलो अनाज पर जीवित हैं, जहाँ साठ प्रतिशत जनता बेहद गरीब है और फिर भी पूंजीपतियों से अधिक टैक्स देती है, वहाँ वीआईपी सुविधाएँ बेशुमार हैं। स्मरण रहे कि भारत में वीआईपी की संख्या लगभग छह लाख है, जो जनता के धन पर सुख-सुविधाएँ भोगते हैं। सबसे पहले भारत से वीआईपी संस्कृति समाप्त करनी होगी। नकारा लोगों को देशवासियों की मेहनत की कमाई से दिए गए टैक्स पर ऐश क्यों करने दिया जाए, जबकि देश में 22 रुपये प्रतिदिन पर जीवन यापन करने वालों की संख्या आधे से अधिक है? यह वीआईपी कल्चर जनता का खून चूसने के लिए ही बनाया गया है। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को साधारण जनता की तरह क्यों नहीं चलना चाहिए? प्रोटोकॉल किसलिए और क्यों? आखिर अपने ही देशवासियों से पीएम, सीएम, मंत्री, सांसद और विधायकों को डर क्यों लगता है? यदि वे वास्तव में जनता की सेवा करेंगे, तो डरने की आवश्यकता ही नहीं होगी। दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण के खतरे को नियंत्रित करने में असफल होकर अरावली को निशाना बनाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। चंद पूंजीपतियों और खनन माफियाओं के लाभ के लिए तीन अरब वर्ष पुरानी अरावली पर्वत श्रृंखला को नष्ट कर देश का भविष्य खतरे में डालना सरकार के लिए न तो उचित है और न ही क्षम्य।




