
मुंबई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) को जैन समुदाय के पवित्र पर्यूषण पर्व के दौरान केवल एक दिन के लिए बूचड़खाने बंद रखने के निर्णय पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने यह भी कहा कि धार्मिक भावनाओं का सम्मान जरूरी है, लेकिन साथ ही यह भी चिंता जताई कि क्या ऐसा फैसला अन्य समुदायों के समान अनुरोधों की मिसाल बन सकता है। मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप वी. मार्ने की खंडपीठ शेठ मोतीशॉ लालबाग जैन चैरिटीज और शेठ भेरूलालजी कनैयालालजी कोठारी धार्मिक ट्रस्ट द्वारा दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाओं में बीएमसी के 30 अगस्त 2024 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें पर्यूषण के दौरान केवल एक दिन बूचड़खानों को बंद रखने की अनुमति दी गई थी। याचिकाकर्ताओं की मांग है कि परंपरा के अनुसार पूरे नौ दिनों तक बूचड़खाने बंद रखे जाएं, जैसा पूर्व वर्षों में होता आया है। ट्रस्ट का प्रतिनिधित्व करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता डेरियस खंबाटा ने तर्क दिया कि अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्व है, और पर्व के दौरान वध गतिविधियाँ समुदाय की धार्मिक भावनाओं को गहरी ठेस पहुंचाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि पुणे और नासिक के नगर निकायों ने बिना कोई स्पष्ट कारण बताए बूचड़खानों को बंद करने के आदेश दिए हैं, जबकि मीरा-भायंदर ने कोई आदेश ही जारी नहीं किया। हालांकि, हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह आदेश को तत्काल खारिज नहीं करेगा, लेकिन यह भी चेताया कि यदि इस अनुरोध को मंज़ूरी दी गई तो भविष्य में अन्य धर्मों के लिए भी समान मांगों का रास्ता खुल सकता है। पीठ ने कहा, अगर आज आपको नौ दिन का बंदी आदेश दे दिया गया, तो कल कोई और समुदाय गणेशोत्सव या नवरात्रि के लिए ऐसी ही मांग करेगा। न्यायालय ने यह भी सवाल उठाया कि किस वैधानिक दायित्व के तहत नगर निकाय बूचड़खानों को नौ दिनों तक बंद रखने का आदेश दे सकते हैं, जबकि महाराष्ट्र सरकार पहले ही 15 ‘नो-स्लॉटर’ दिन वार्षिक रूप से निर्धारित कर चुकी है। पीठ ने अंततः याचिकाकर्ता ट्रस्ट को निर्देश दिया कि वे मुंबई, पुणे, नासिक और मीरा-भायंदर नगर निकायों को औपचारिक आवेदन प्रस्तुत करें। कोर्ट ने संबंधित नगर निकायों को 18 अगस्त 2024 तक इन पर गंभीरतापूर्वक विचार कर निर्णय लेने का निर्देश दिया है। यह मामला धर्म, सार्वजनिक नीति और बहुलतावादी समाज में अधिकारों की सीमाओं के बीच संतुलन की नाजुक बहस को एक बार फिर उजागर करता है। हाईकोर्ट की चेतावनी इस बात की तरफ संकेत है कि सार्वजनिक नीति में धार्मिक अपवादों को शामिल करते समय सामाजिक प्रभाव और समानता के सिद्धांत का ध्यान रखना अनिवार्य है।