लेखक- चेतन चौहान
देश, काल व समाज कोई भी हो, संतों की महिमा हमेशा गायी जाती रही है। संसार भर के संतों ने अपने जीवन में, मानव कल्याण की ही कामना की है। सच्चे संत या महात्मा जाति, पंथ, सम्प्रदाय, रंग, रूप, देश और धर्म के बनावटी भेद-भावों से सर्वथा ऊपर होते हैं, संत, महात्मा संसार में ईश्वर से बिछुड़े जीवों को जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करने और परमात्मा से मिलाने के लिए आते हैं। गुरु रविदास जी भी नामदेव, कबीर, नानक, दादू, पलटू, संत तुकाराम तथा अन्य सभी संतों की तरह इसी उद्देश्य से संसार में आये थे और इनका भी संदेश इन्हीं संतों के तुल्य था।
संत रविदास जी का जन्म सम्वत् 1456 में माघ शुक्ल पूर्णिमा को रविवार के दिन हुआ था। हालांकि इनके जन्म स्थल के बारे में अनेक भ्रम हैं लेकिन ऐसा माना गया है कि इनका जन्म मांडूरगढ़ में हुआ था, जो बनारस से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इनके पिता का नाम रघु व माता का नाम करमा देवी माना गया है। बचपन से ही रविदास का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर था। वे अक्सर अपनी माता के साथ साधु-संतों के प्रवचन सुनने जाया करते थे। नौ वर्ष की अवस्था में ही उन पर परमात्मा की भक्ति का ऐसा रंग चढ़ा कि परिवार के लोग चिंतित हो उठे और पारिवारिक पेशे में लगाकर इनका ध्यान आध्यात्मिकता से विमुख करने लगे। हालांकि रविदास जी ने चमार कुल में पैदा होकर अपना पुश्तैनी धंधा अवश्य सीखा, लेकिन परमात्मा व साधु-संतों के प्रति प्रेम-भक्ति में कोई कमी न आने दी।
साधु-संतों के प्रति तो वे इतने उदार थे कि बहुत ही कम कीमत में अपने हाथों से बनाये जूते उन्हें पहना दिया करते थे। सांसारिकता में उलझाने के लिए उनका विवाह कम उम्र में ही कर दिया, पर जब इन पर कोई फर्क नहीं पड़ा तो पिता ने इन्हें पत्नी सहित घर से निकाल दिया व अपनी सम्पत्ति में से कोई हिस्सा नहीं दिया, लेकिन वे संतोष धारण कर खुशी-खुशी घर से निकल गये। इनका जीवन काफी तंगी व गरीबी में बीता, लेकिन वे भक्ति के मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। संत रविदास और कबीर समकालीन संत थे, इसलिए यह भी माना जाता है कि रविदास, कबीर को अपना बड़ा भाई मानते थे व उन्हें गुरु तुल्य आदर देते थे:- तब रैदास विचारी बाता। गुरु समान बड़ भ्राता (कबीर परिचई) रविदास जी अपने जीवन के प्रारंभिक काल मेंं रामानन्द जी के सम्पर्क में रहे व उन्हें गुरु माना, लेकिन बाद में कबीरदास जी से ही दीक्षा ली। कबीर की भांति रविदास भी पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु उनकी वाणी से पता चलता है कि उन्हें हिन्दी, उर्दू, फारसी व हिन्दुस्तान की अनेक भाषाओं का ज्ञान था। उनका ज्ञान संत-महात्माओं की संगति व विविध प्रांतों के भ्रमण तथा आंतरिक आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित था। वे अनुभव को महत्व देते थे, जिससे परमात्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है, कहा भी है-
पढ़ै-गुनै समझि न परहिं, जो लौ अनभे भाऊ न दरसे॥
चलि मन हरि चटसाल पढ़ाऊँ
गुरु की सांति ग्यान का अच्छर, बिसरै तो सहज समाधि लगाऊं॥
रविदास जी की रचनाओं में देश की विभिन्न भाषाओं के शब्द मिलते हैं तथा इससे पता चलता है कि वे विभिन्न प्रांतों में घूमे थे। उत्तर भारत के अनेक स्थानों में इनके अनुयायियों ने स्मारक बनवाये हैं। काशी के निकट मांडूर में इनकी स्मृति में एक तालाब भी बना हुआ है तो हैदराबाद स्थित एलोरा में एक रविदास कुण्ड भी है। इसी तरह एक रविदास कुण्ड काठियाबाड़ के जूनागढ़ नगर में भी है। चित्तौड़ (राजस्थान) में उनकी स्मृति में रविदास जी के चरण-चिन्ह तथा रविदास जी की छतरी बनी हुई है। दक्षिण भारत में बालाजी पहाड़ी की तलहटी में तिरुपति मंदिर के निकट इनका एक स्मारक भी बना हुआ है। संत रविदास जी को अनेक अवसरों पर ब्राह्मïणों और पुजारियों का विरोध सहना पड़ा, लेकिन समाज पर इनके ज्ञान की गहरी छाप पड़ी। रविदास जी चमार भले ही थे, लेकिन उनके अति विनम्र जीवन के समक्ष ब्राह्मïणों को अपने कर्म काण्ड की निस्सारता स्वीकारनी पड़ी। क्योंकि रविदास की भक्ति उनसे कहीं ऊंचे दर्जे की थी। रविदास जी सदैव संतों-महात्माओं की सेवा में जुटे रहते थे। एक बार एक साधु उनकी कुटिया में आया और इनकी निर्धनता देखकर इन्हें एक पारसमणि देकर कहा कि आपके जूते बनाने के औजार इससे छुआने से वे सोने के बन जाएंगे व आपकी गरीबी दूर हो जायेगी, लेकिन आपने इसे लेने से इन्कार कर दिया। अपनी सन्त मर्यादा का निर्वाह करते हुए उन्होंने किसी भी भेंट को नहीं स्वीकारा इनकी नजर में सुख तो यूं था-
सच्चा सुख सत धरम महि, धन संचय नाहि
धन संचन दुख खान हैं, रविदास समुझि मन मांहि।
रविदास जी के भगवत्-भक्त होने की ख्याति से काशी के ब्राह्मïण तक तिलमिला उठे थे, उन्होंने काशी के राजा के समक्ष फरियाद की कि एक शूद्र को आध्यात्मिक कार्य करने और धर्मोपदेश देने से रोकें, पर वे भी इस संत की भक्ति के आगे झुक गये। रविदास जी के शिष्यों में राजघराने के लोग भी थे। मीराबाई इनकी अनन्य भक्त थीं, लोगों ने उन्हें ताना मारा कि तेरा गुरु भूखा-नंगा है, एक गरीब चमार है। तो तानों से तंग आकर मीराबाई ने रविदास जी को एक हीरा दिया जिससे गरीबी दूर हो सके, लेकिन इन्होंने कहा हमें किसी सांसारिक भेंट की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्होंने कहा-दारिद्र देख सभ को हसै, ऐसी दसा हमारी
असट दसा सिध करतलै, सम कृपा तुमारी
चित्तौड़ की रानी झाली भी इनकी शिष्या थी। कहा जाता है कि रानी झाली ने रविदास को चित्तौड़ आने का निमंत्रण दिया तो वे चित्तौड़ गये, वहां इनका बड़ा आदर सत्कार हुआ। उनके आगमन पर भंडारा किया गया तो चित्तौड़ के ब्राह्मïणों ने एक चमार के साथ पंक्ति में बैठ कर भोजन करने से मना कर दिया। उन्होंने अलग से भोजन बनाकर अलग बैठ कर ज्यों ही भोजन करना चाहा तो ब्राह्मïणों ने देखा कि हर दो ब्राह्मïणों के बीच रविदास जी बैठे हैं। इस कौतुक को देख वे बड़े ही शर्मिन्दा हुए तथा उन्हें अपने जाति-अभिमान की व्यर्थता का ज्ञान हुआ। कहा जाता है कि यज्ञोपवीत पहिनने का गर्व करने वाले ब्राह्मïणों को रविदासजी ने अपनी त्वचा के भीतर से स्वर्ण जैसा चमचमाता हुआ एक दिव्य यज्ञोपवीत (आन्तरिक प्रकाश) दिखलाया, जिसकी चकाचौंध से कुछ क्षणों के लिए ब्राह्मïणों की आंखें तिलमिला कर बंद हो गयीं। रविदास जी के पार्थिव शरीर का यह अन्तिम दर्शन था। इसके बाद फिर किसी ने इन्हें नहीं देखा। वे केवल अपने चरण-चिन्ह छोड़कर सदा के लिए इस संसार से विलीन हो गये, परम्परानुसार स्मारक के रूप में उनके चरण-चिन्ह आज भी चित्तौड़ में संरक्षित है। इस तरह रविदास जी ने एक पिछड़ी जाति में जन्म लेकर भी आध्यात्मिकता की सर्वोच्च चोटी पर पहुंचने का आदर्श स्थापित कर सभी जाति और सम्प्रदाय के लोगों के बीच ईश्वर से प्रेम और भक्ति का उपदेश फैलाया। रविदास जी की भक्ति व ज्ञान से प्रभावित होकर उच्च जाति के भी अनेक लोग उनके चरणों में शीश झुकाते थे, जैसा कि रविदास जी ने स्वयं कहा-
मेरी जाति कुटबांढला ढोर ढोवंता
नितहि बानारसी आस पासा
अब विप्र तिह करह डंडउत
तेरे नाम सरणाई रविदास दासा॥