Wednesday, November 12, 2025
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दृष्टिकोण: राजनीति में भाषा की मर्यादा का प्रश्न

डॉ. सुधाकर आशावादी
जिस देश में राजनीति को राष्ट्र कल्याण और जनसेवा के लिए समर्पित नहीं समझा जाता, वहां राजनीतिक शुचिता की बात करना ही बेमानी है। विगत कुछ वर्षों से सत्ता स्वार्थ के लिए राजनीतिक दल और उनके समर्थक जिस प्रकार की नकारात्मक राजनीति कर रहे हैं तथा भीड़ जुटाने के लिए धन बल का प्रयोग कर रहे हैं, उससे लगता है कि राजनीति विशुद्ध रूप से व्यवसायिक होती जा रही है, जिसका उद्देश्य ही जनता को झूठ, फरेब,झूठे वादों से भ्रमित करके देश के लोकतंत्र को छलना है। यदि ऐसा न होता, तो सोची समझी शतरंजी चालों से एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए राजनीतिक दलों से जुड़े लोग न तो भाषाई मर्यादा लांघते और न ही विघटनकारी चालें चलकर समाज को बांटने का प्रयास करते। न ही राजनीति में भारतीय सेना को घसीटते और न ही पप्पू, अप्पू, टप्पू जैसे तीन बंदरों की तुलना राजनीतिक चरित्रों से की जाती। न ही बदले में दो बंदरों गप्पू और चम्पू की बात की जाती। यदि किसी संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति ऐसी बातें करे, तो स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है, कि क्या किसी उच्च पद पर आसीन अनुकरणीय व्यक्ति द्वारा ऐसी भाषा का प्रयोग करना उचित है? यह तो बानगी भर है। इससे अधिक भाषाई मर्यादा तब तार तार होती है, जब पत्रकार वार्ताओं में खुला झूठ बोलकर देश के बड़े नायकों के विरुद्ध अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता है। बेशर्मी से ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिन शब्दों के अर्थ और परिभाषा का ज्ञान भी आरोप लगाने वाले व्यक्ति को नहीं होता। हास्यापद स्थिति तब होती है, जब दूसरे पक्ष के लोग भी अमर्यादित भाषा का विरोध करने की हिम्मत जुटाने के बदले अमर्यादित भाषा के बचाव में कुतर्क देने लगते हैं। भाषा की मर्यादा लांघने में किसी भी एक दल या एक नेता को दोषी नहीं कहा जा सकता। राजनीति के हमाम में सभी एक जैसे हैं, कोई थोड़ा कम, कोई थोडा अधिक। यूँ तो अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने पर दण्ड़ का प्रावधान है,किन्तु मानहानि के वाद में दण्ड़ की औपचारिकता कितनी निभाई जाती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भयमुक्त होकर भाषाई मर्यादा को लांघना सामान्य बात हो गई है। इस प्रवृत्ति को समय से नहीं रोका गया, तो देश में अराजकता फ़ैलाने वाले तत्वों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने से रोक पाना आसान नहीं होगा।

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