Wednesday, June 26, 2024
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जीवनदायिनी हैं हमारी नदियां

डॉ. गीता गुप्त
मानव जीवन में नदियों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल से ही मानव की बुनियादी आवश्यकताओं जैसे पेयजल, खाद्यान्न तथा यातायात के लिए नदियों का उपयोग होता आया है। भारत में नदियां पूजी जाती हैं। अत: वे मनुष्य की आस्था का केन्द्र हैं। इसके अलावा भारतीय संस्कृति तथा परंपरा की परिचायक भी हैं। भारत में दो प्रकार की नदियां हैं। पहली, उत्तर भारत की सदावाही नदियां और दूसरी, दक्षिण भारत की मौसमी नदियां। उत्तर भारत में हिमालय पर्वत पर जमा अलवणीय जल के 80 प्रतिशत भाग में पिघलते रहने के कारण गंगा, यमुना, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र आदि कई नदियां प्रवाहित होती हैं, जबकि महानदी, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी आदि दक्षिण भारत की मौसमी नदियां हैं, जिनका जल बंगाल की खाड़ी में जाकर मिल जाता है। नर्मदा व ताप्ती नदियों का जल अरब सागर में जाकर मिलता है। देश की समस्त नदियों से वर्ष भर में 1672.8 लाख हैक्टेयर मीटर जल बहता है, लेकिन सिर्फ 666 लाख हैक्टेयर जल ही उपयोग में आ पाता है। भारतीय नदियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला, उत्तर भारतीय नदी तन्त्र। इसके भी तीन भाग हैं, सिन्धु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदी तन्त्र। दूसरा है दक्षिण भारतीय नदी तन्त्र। इसे भी दो भागों में बांटा गया है, बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियां तथा अरब सागर में गिरने वाली नदियां।
सिन्धु नदी तंत्र की सबसे बड़ी नदी है सिन्धु। तिब्बत में स्थित मानसरोवर झील के समीप कैलाश हिमानी, इस नदी का उद्गम स्थल है, जो समुद्र तल से 4923 मीटर ऊंचा है। सिन्धु नदी की कुल लंबाई 3880 किलोमीटर है।
भारत में इसका प्रवाह 1134 किलोमीटर का है। भारत और पाकिस्तान में प्रवाहित होती हुई सिन्धु नदी अरब सागर में गिरती है। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों सतलज, रावी, व्यास, झेलम, चिनाब, जस्कर, श्याक आदि को संयुक्त रूप से सिन्धु नदी तन्त्र के नाम से जाना जाता है। इस नदी तंत्र का विस्तार चीन और अफगानिस्तान में भी है।
सतलज का उद्गम स्थल कैलाश श्रेणी के दक्षिणी ढाल पर स्थित मानसरोवर झील के निकट का राक्षस ताल है। राक्षस ताल की समुद्र तल से ऊंचाई 4630 मीटर है। भारत में इस 1050 मीटर लम्बी नदी को शतदु्र या शतुद्री भी कहा जाता है। भाखड़ा और नांगल पर बने बांध के कारण यह अधिक महत्वपूर्ण है।
हिमाचल प्रदेश के लाहुल में स्थित टाण्डी के समीप बारालाचा दर्रा है, जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई 4480 मीटर है। यही चिनाब नदी का उद्गम स्थल है। भारत में इस नदी की लंबाई 1180 किलोमीटर है। इसे संस्कृत में अस्कनी या चन्द्रभागा नदी कहा जाता है। भारत में 725 किलोमीटर लम्बी रावी नदी को लाहौर की नदी के नाम से भी जाना जाता है। पीरपंजाल तथा धौलाधार श्रेणियों के बीच स्थित बंगालह बेसिन इस नदी का उद्गम स्थल है जो समुद्र तल से 4570 मीटर की ऊंचाई पर है। व्यास नदी का उद्गम स्थल है पीरपंजाल जो कि समुद्र तल से 4062 मीटर की ऊंचाई पर है। यह नदी संस्कृत में विपाशा या अर्गिकिया के नाम से जानी जाती है। झेलम कश्मीर की एक प्रमुख नदी है, जो वितस्ता के नाम से भी चर्चित है। सिन्धु तन्त्र की कुछ अन्य सहायक नदियां और हैं, जो अल्पचर्चित हैं।
अब गंगा नदी तन्त्र की बात करें, जो भारत का सबसे महत्वपूर्ण नदी तंत्र है। इसके अंतर्गत भारत का एक चौथाई से अधिक क्षेत्र आता है। इस नदी तंत्र की प्रमुख नदी है गंगा। इसकी सहायक नदियां हैं- रामगंगा, गोमती, घाघरा, राप्ति, गण्डक, कोसी, यमुना, चम्बल, सिंध, बेतवा, केन, टोंस और सोन नदी। वैसे तो इन सभी नदियों का अपना एक महत्व है परंतु गंगा नदी से भारतवासियों का सर्वाधिक भावनात्मक एवं आध्यात्मिक लगाव है। यह सर्वाधिक पवित्र एवं पूज्य मानी जाने वाली नदी है। प्राय: धार्मिक संस्कारों में गंगा जल का उपयोग अनिवार्यत: किया जाता है। यह भी लोक विश्वास है कि मरणासन्न व्यक्ति के मुख में गंगा जल डालने से मृत्यु का कष्ट कम होता है और आत्मा शरीर से मुक्त हो जाती है। सचमुच, यह आश्चर्यजनक है।
उत्तरकाशी जिले के गंगोत्री में गंगा का उद्गम स्थल है। समुद्र तल से गंगोत्री की ऊंचाई 7010 मीटर है। भारतवासियों लिए मोक्षदायिनी गंगा के महत्व को समझते हुए केन्द्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी घोषित करने का निर्णय किया होगा परन्तु दु:ख की बात यह है कि पवित्रता की प्रतीक यह नदी निरंतर प्रदूषित हो रही है। इसके प्रदूषण स्तर को कम करने के लिए सन् 1985 में ही गंगा एक्शन प्लान प्रारंभ किया था, जो बुरी तरह विफल रहा। आज भी सरकार इसे प्रदूषणमुक्त करने हेतु चिन्तित है। ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र के अंतर्गत प्रमुख नदी है ब्रह्मपुत्र। सुवनशिरी, धनशिरी, मानस, तिस्ता, दिवांग, टीशू आदि इसकी सहायक नदियां हैं। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत के पठार में स्थित कैलाश पर्वत के पूर्वी ढाल पर 5150 मीटर की ऊंचाई से निकलती है। इस नदी का प्रवाह क्षेत्र तिब्बत, बांग्लादेश और भारत में है। ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवाहित होने वाली नदियों में सबसे बड़ी नदी है किन्तु प्रवाह क्षेत्र की दृष्टि से बड़ी नहीं है। दक्षिण और उत्तर भारत की नदियों में एक मूलभूत अन्तर है, उत्तर भारत की नदियां बारहमासी हैं, जबकि दक्षिण भारत की नदियां बारहमासी नहीं हैं। बरसात के मौसम में तो उनमें पानी रहता है पर गर्मी और शीत के महीनों में उनमें पानी का अभाव होता है। दक्षिण भारत की नदियां प्राय: प्रायद्वीपीय पठार से निकलती हैं और कुछ पूर्व की ओर तो कुछ पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हैं। प्रायद्वीपीय नदियों में जो प्रमुख हैं, वे हैं महानदी, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, भीमा, सुवर्ण रेखा, ब्रह्मणी, वैतर्णी, पेन्नार, कावेरी, शरावती, ताम्रपर्णी, पेरियार, नर्मदा ताप्ती, लूनी, माही और साबरमती। इनमें भी धार्मिक दृष्टि से नर्मदा गोदावरी और कावेरी का महत्व सबसे अधिक है। कावेरी को दक्षिण की गंगा माना जाता है।
नदियां देश का महत्वपूर्ण जल-संसाधन हैं। पर्यावरण एवं आसन्न जल संकट को दृष्टिगत रखते हुए नदियों का संरक्षण अनिवार्य है। सिर्फ गंगा ही नहीं, हमें देश की तमाम नदियों को प्रदूषण से बचाना होगा। चिन्ता की बात यह है कि प्राय: सभी सरकारें प्राकृतिक संसाधनों के प्रति उपभोक्तावादी दृष्टिकोण रखती हैं। नदियों के किनारे तटबन्ध बना दिये जाते हैं। विशाल भवन और पांच सितारा होटलों का निर्माण कर दिया जाता है। सस्ती बिजली मिलने के कारण नदियों के किनारे बसे ग्रामवासी खेतों में सिंचाई के अलावा भी पानी का अन्धाधुंध दुरुपयोग करते हैं। तीज-त्यौहारों पर कर्मकांडों के माध्यम से नदी में प्रवाहित की जाने वाली वस्तुएं और असंख्य मूर्तियों का विर्सजन भी प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण है। चूंकि सिंचाई, बिजली एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल की उपलब्धता सदैव अनिवार्य रहेगी। अत: अब नदियों के संरक्षण का दायित्व समाज को सामूहिक रूप से सौंपा जाना चाहिए। धार्मिक परंपराओं में समयानुरूप परिवर्तन कर अब गंगा ही नहीं, बल्कि प्रत्येक नदी के संरक्षण की सामूहिक पहल होनी चाहिए। सरकार के भरोसे किसी भी नदी की रक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती है।
901.71 करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद गंगा आज भी प्रदूषणमुक्त नहीं हो सकी है। सरकारी प्रयास का दुष्पपरिणाम विगत पच्चीस वर्षों से जनता देख ही रही है। उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एवं अविवेकपूर्ण आचार से असमय ही नदियों पर अस्तित्व समाप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। चूंकि मानव समाज का नदियों से सीधा सरोकार है। अत: इस समाज को ही नदियों के संरक्षण का उपाय करना चाहिए। वस्तुत: नदियां मोक्षदायिनी ही नहीं, जीवनदायिनी भी हैं। जल नहीं होगा तो हमारा कल कैसे सुरक्षित होगा? वैसे भी जल प्रदूषण और जलसंकट आज देशव्यापी समस्या है, इसलिए सभी नदियों, झील-तालाबों, कुआं-बावडिय़ों और जलाशयों के संरक्षण की आवश्यकता है। इन सबको राष्ट्र की सम्पदा समझा जाना चाहिए और सबके संरक्षण का उपाय किया जाना चाहिए। वस्तुत: नदी और समाज के बीच जो महत्वपूर्ण जीवंत संबंध है, उसे ध्यान में रखकर उनके सामूहिक संरक्षण और समुचित प्रबंधन की ठोस पहल की जाएगी, तभी आशातीत परिणाम सामने आएंगे। बढ़ते जल संकट के कारण देश की जनता जल का महत्व समझने लगी है। ऐसी स्थिति में जनजागरण से ही नदियों की अस्तित्वरक्षा संभव है। सरकार के प्रयास अपनी जगह हैं पर इसमें जनता की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो चली है। नदियों के विषय में तमाम भारतीय भाषाओं और बोलियों में अभूतपूर्व साहित्य और मिथक उपलब्ध हैं। आज भी ये नदियां कई रूपों में हमारे साहित्य में जगह-जगह दिखाई पड़ती हैं। कई लोकगाथाएं एवं लोकगीत प्रचलित हैं, जिनका संकलन आज जरूरी है, जिससे आने वाली पीढ़ी को एक नई दृष्टिï मिलेगी और वह इस विरासत के महत्व को समझ सकेगी।

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