
धर्मेन्द्र पाण्डेय
बढ़ते वैश्विक दबावों के बीच भारत की विदेश नीति और ऊर्जा रणनीति आज एक जटिल मोड़ पर खड़ी है। रूस से तेल आयात को लेकर भारत पर अमेरिका और यूरोपीय देशों का दबाव तेज़ हो गया है। यह दबाव केवल नैतिक आग्रह नहीं, बल्कि रणनीतिक चेतावनियों और संभावित प्रतिबंधों के रूप में सामने आ रहा है। पश्चिम चाहता है कि भारत रूस से तेल और अन्य संसाधनों का आयात कम करे, ताकि पुतिन सरकार की युद्ध अर्थव्यवस्था को कमजोर किया जा सके। लेकिन क्या भारत इतनी आसानी से झुक सकता है? या यह स्थिति उसकी दुविधा को और गहरा बनाएगी?
पिछले दो वर्षों में भारत ने रूस से कच्चे तेल की खरीद में आश्चर्यजनक वृद्धि की है। पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के कारण रूस ने एशियाई देशों को रियायती दरों पर तेल बेचना शुरू किया, जिसका सबसे बड़ा लाभार्थी भारत रहा। इससे भारत को दोहरे फायदे मिले—एक ओर ऊर्जा लागत में भारी कटौती हुई और दूसरी ओर घरेलू मुद्रास्फीति को काबू में रखने में मदद मिली। लेकिन अब जब अमेरिका और यूरोपीय संघ रूस के खिलाफ अपनी आर्थिक कार्रवाई को और तेज़ करने पर आमादा हैं, भारत के लिए स्थिति आसान नहीं रही। भारत की विदेश नीति का मूल सिद्धांत “रणनीतिक स्वायत्तता” रहा है। यानी, वह किसी भी गुट या महाशक्ति के दबाव में बिना अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता रहा है। रूस के साथ भारत के रिश्ते केवल व्यापार तक सीमित नहीं, बल्कि दशकों पुराने रक्षा, ऊर्जा और अंतरिक्ष सहयोग तक फैले हैं। भारत के सैन्य उपकरणों का बड़ा हिस्सा रूस से आता है। ऐसे में रूस से अचानक दूरी बना लेना व्यवहारिक नहीं है।
इसके विपरीत, अमेरिका के साथ भी भारत के रिश्ते अब केवल रणनीतिक नहीं, बल्कि तकनीकी, व्यापारिक और नागरिक परमाणु सहयोग की गहराई तक जा चुके हैं। क्वाड जैसे मंच पर भारत-अमेरिका सहयोग बढ़ा है, और चीन को संतुलित करने में दोनों देश समान रुचि रखते हैं। इस संदर्भ में अमेरिका की उम्मीदें यह हैं कि भारत रूस से दूरी बनाकर पश्चिमी मोर्चे की तरफ अधिक स्पष्टता से खड़ा हो। लेकिन भारत अब भी दोनों पक्षों के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है। यह संतुलन आसान नहीं है। अमेरिका खुले तौर पर उन देशों को चेतावनी दे रहा है जो रूस से व्यापार कर रहे हैं—विशेषकर तेल और हथियारों को लेकर। भारत पर “सेकेंडरी सैंक्शन्स” का खतरा मंडरा रहा है, जो उसके बैंकिंग लेन-देन, डॉलर आधारित भुगतान प्रणाली और तकनीकी निवेश को प्रभावित कर सकता है। इसके साथ ही, भारत को यह भी आकलन करना है कि क्या वह पश्चिम के साथ खड़ा होकर ऊर्जा के मामले में अधिक खर्च और अनिश्चितता को सहन कर सकता है। भारत की एक और चुनौती यह है कि पश्चिमी देश जो विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं, वे तत्कालिक समाधान नहीं हैं। पश्चिम एशिया या अमेरिका से आयात महंगा है, और उनकी आपूर्ति श्रृंखला भी स्थिर नहीं मानी जाती। इसके अलावा, रूस के साथ भारत का भुगतान व्यवस्था रचनात्मक रही है—रुपया-रूबल व्यापार जैसे मॉडल में भारत को डोलर निर्भरता से कुछ राहत मिली है। भारत के पास कुछ विकल्प हैं। वह रूस से तेल खरीद में मामूली कटौती करते हुए पश्चिम को संकेत दे सकता है कि वह वैश्विक चिंता को समझता है। साथ ही, वह अपनी ऊर्जा रणनीति में विविधता लाकर पश्चिमी देशों से एलएनजी और अक्षय ऊर्जा में दीर्घकालिक समझौते कर सकता है। इससे एक ओर दबाव कम होगा, दूसरी ओर ऊर्जा निर्भरता के जोखिम भी घटेंगे। तीसरा रास्ता यह है कि भारत एक वैश्विक मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए, रूस और पश्चिम के बीच संवाद बढ़ाने में मदद करे—जैसा वह अतीत में यूक्रेन युद्ध के मसले पर संकेत दे चुका है। यह समय भारत के लिए केवल विदेश नीति का नहीं, बल्कि दीर्घकालिक ऊर्जा नीति और आत्मनिर्भरता के पुनरावलोकन का भी है। अक्षय ऊर्जा, परमाणु विकल्प, और घरेलू उत्पादन को प्राथमिकता देकर भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा को अधिक टिकाऊ बना सकता है, जिससे भविष्य में ऐसे किसी भू-राजनीतिक दबाव का मुकाबला बेहतर ढंग से किया जा सके। इस पूरी स्थिति में सबसे अहम बात यह है कि भारत को अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से परिभाषित करनी होगी। अनिर्णय की स्थिति उसकी वैश्विक छवि को नुकसान पहुँचा सकती है। भारत को यह दर्शाना होगा कि वह न तो दबाव में झुकता है, न ही अपने दीर्घकालिक हितों की अनदेखी करता है। यह भारत की अग्निपरीक्षा भी है—जहाँ उसे सिद्ध करना है कि उसकी विदेश नीति केवल प्रतिक्रिया तक सीमित नहीं, बल्कि दूरदर्शिता और आत्मबल पर आधारित है। भारत की ताकत उसका संतुलन है, लेकिन अब वह संतुलन सिद्धांत से आगे बढ़कर निर्णय की मांग कर रहा है। यही क्षण भारत को एक परिपक्व वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने या असमंजस में उलझे राष्ट्र के रूप में सीमित कर देने वाला बन सकता है।