
लेखक- जितेंद्र पांडेय
राजनीतिक दल विशेषकर सरकारें पुलिस विभाग को अपनी जागीर बना लेते हैं। जबकि कानून व्यवस्था का जिम्मा पुलिस विभाग का है। मंत्री कुछ पुलिस अधिकारियों पर ज्यादा ही मेहरबान होते हैं। पुलिसिया कार्रवाई यहीं से प्रभावित होती है। किस को फांसी दिलवाना है किस गुनाहगार को बेगुनाह साबित करना है यह पुलिस पर पूरी तरह निर्भर होता है। पुलिस वादी पक्ष से धन पा जाती है तो प्रतिवादी पर संगीन धाराएं लगाकर साक्ष्य जुटा लेती है। यदि प्रतिवादी से धन पा जाती है तो हल्की धाराएं लगाती है और साक्ष्य मिटाने में लग कर वादी पर खाकी का भय दिखाकर बयान बदलने और गवाही नहीं देने पर बल लगाती, धमकती है कि परिणाम बहुत बुरा होगा यदि तुमने कहा नहीं माना तो। अधिकतर ताकतवर माफिया इतनी दहशत फैला देते हैं कि कमजोर वादी खुद पीछे हटने को मजबूर हो जाता है। ऐसे में विभिन्न न्यायालयों के फैसलों में विसंगतियां आनी स्वाभाविक हैं। दूसरी बात आज कल अपराधी मॉडर्न विकसित तरीके अपनाकर अपराध को अंजाम देने लगे हैं। पुलिस के पास न तो अत्याधुनिक साधन हैं, न योग्य पुलिस और सबसे बड़ी बात मंशा का है जिसके पीछे दौलत की हवश बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। हर पुलिस योग्य नहीं है विवेचना करने के लिए। न कौशल है न बुद्धि विवेक। आरक्षण और घूस देकर आए पुलिस वाले कैसे योग्य हो सकते हैं? दरअसल पुलिस हो या अन्य प्रशासनिक विभाग, उसमें पात्रता देखी ही नहीं जाती। आईएएस हो या आईपीएस की योग्यता अंग्रेजों ने आई क्यू रखी थी। आईक्यू वाले धन के लोभी परिवारवादी होते हैं जो सिर्फ अपने और परिजनों के हित की सोचकर भ्रष्ट आचरण करते हैं।अपात्र पुलिस से आप न्याय दिलाने की आशा नहीं करते। आप ने किसी की हत्या की है तो आप पुलिस को लाख पचास हजार देकर अपराध मुक्त होने के लिए संतुष्ट हो सकते हैं। बेगुनाह के घर चरस अफीम पिस्टल रखकर जो पुलिस अपने साथ लाती है, कुसुरवार ठहरा देती है। देश की कोई भी जांच एजेंसी न स्वतंत्र है और न सत्पात्र। जैसा कि अभी आईटी, सीबीआई और ईडी की कार्यवाही में देखा जा सकता है। सारे भ्रष्ट केवल विपक्षी दलों में हैं और सत्ता दल में सारे के सारे हरिश्चंद्र हैं कैसे कहा जा सकता है? अपात्र नेता किसी भी दल में हों भ्रष्ट होंगे ही। यही कारण है कि जांच एजेंसियां भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाती हैं। फिर निष्पक्ष विवेचना कैसे होगी जब पक्षपात करने के आदेश दिए जाएंगे सरकार द्वारा? विभिन्न न्यायालयों में जजों की भी स्थिति यही है। जजों की नियुक्ति उनकी पात्रता के अनुसार यानी ई क्यू भावनात्मक क्षमता के अनुसार होनी अपरिहार्य है। निचले न्यायालयों में आरोपी को फांसी, आजीवन कारावास का दंड देने के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आरोपी को दोषमुक्त मानकर बरी कर दिया जाता है। जहां तक जमानत की बात है यदि आपकी जेब में दौलत है तो खड़े खड़े आपको जमानत मिल जाएगी जबकि गरीब हैं तो कोर्ट द्वारा जमानत मिलने के बावजूद जमानत राशि इकट्ठा नहीं कर पाने के कारण आपको जेल में सड़ना पड़ेगा जिसे हमारी राष्ट्रपति ने उठाया था मामला। एक ही साक्ष्य को लोवर कोर्ट अपराध संज्ञक मानती है तो उसी को अपर कोर्ट अपर्याप्त मानकर आरोपित को बाइज्जत बरी कर देती है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं देश में जिसे विसंगतियां कहा जाता है।
एक कहानी के माध्यम से इस विसंगति का कारण स्पष्ट हो जाएगा। सोलह वर्ष बाद कोर्ट ने एक बुजुर्ग को बरी कर दिया तब बुजुर्ग ने जज को दारोगा होने का आशीर्वाद दे डाला। जज ने कहा, बाबा, दरोगा का ओहदा मुझसे बहुत छोटा है। जिसपर बुजुर्ग ने कहा, जज साहब! यह बड़ा छोटा मुझे मालूम नहीं। जिस मामले में सोलह साल में सैकड़ों तारीख पर तारीख मिलने के बाद आज न्याय मिला है वह न्याय तो अगर मैं बीस हजार रूपए दारोगाजी को दे देता तो दो मिनट में न्याय मिल जाता मुझे। अर्थात जज जो न्याय सोलह साल की सुनवाई के बाद देता है वही न्याय थाने का दारोगा सिर्फ दो मिनट में दे सकता है जिसके खिलाफ कोई कोर्ट फैसला दे ही नहीं सकती क्योंकि साक्ष्य और सबूत तो दारोगा ही विवेचक के नाते इकट्ठा करेगा या मिटाएगा। आज बहुचर्चित नोएडा के निठारी कांड की चर्चा ए आम है जिसके आरोपियों को उच्च कोर्ट ने साफ साफ बरी कर दिया। जिस आधार पर मोनिंदर सिंह पैंथर जेल से रिहा हो गया। उसके मकान के बगल में बहने वाले नाले में तमाम बच्चों के कंकाल मिले थे जिनके विषय में तब बच्चों के साथ अप्राकृतिक व्यवहार कर उनकी हत्या कर नाले में फेक देने की बात कही गई थी। बरी सिर्फ इसलिए हो गया कि जांच एजेंसी ने साक्ष्य एकत्र करने का बुनियादी काम तय मापदंडों के आधार पर किया ही नहीं। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि जांच एजेंसी ने आरोपी से दौलत लेकर जान बूझकर पक्के साक्ष्य एकत्र नहीं किए? कुछ ऐसा ही बहुचर्चित आरुषि हत्याकांड के साथ हुआ। तरूणी आरूषि का यौन संबंध अपने नौकर के साथ हत्या का कारण कहा जाता रहा। हत्या आरुषि के अपनी माता पिता ने मिलकर किया यह जांच एजेंसी ने बताया था। बहुत दिनों तक आरुषि हत्याकांड की जांच की खबरें अखबारों की सुर्खियों में छाई रही थी। हाईकोर्ट ने दोनों को रिहा कर दिया जबकि जांच एजेंसी सीबीआई कोर्ट ने राजेश तलवार और नूपुर तलवार को आरुषि हत्याकांड में दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। इसी तरह की एक लोमहर्षक घटना जिसमें गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में मात्र सात वर्षीय बालक प्रद्युम्न ठाकुर की हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने बस कंडक्टर अशोक कुमार को हत्या और यौन शोषण मामला बताकर गिरफ्तार किया था। 74 दिन जेल में रहने के बाद अशोक को जमानत मिली थी। विशेष अदालत ने आरोपी अशोक कुमार को बाइज़ात बरी कर दिया तब सी बी आई ने स्कूल के ही 16 वर्ष के छात्र को हत्या का आरोपी बनाया। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस एन ढींगरा सवाल पूछते हैं कि न्यायालयों के फैसलों में विसंगतियां के लिए गुनाहगार कौन है? जस्टिस ढींगरा पूछते हैं कि एक अदालत का अनुभवी न्यायाधीश किसी मामले में आरोपित को दोषी करार देता है तो दूसरी अदालत उसी मामले में बरी कर देता है तो इस तरह के फैसलों से अदालतों पर आम आदमी का भरोसा कमजोर हो रहा है। कमजोर और गरीब ऐसे मामलों असहाय महसूस करता है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ने तो यहां तक कह दिया कि गरीब व्यक्ति को तो न्याय की आशा ही करनी नहीं चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में भी जजों के तीन या पांच की बेंच में भी असहमति के स्वर उठते सुने जाते हैं। यहां सवाल यह है कि एक ही साक्ष्य के ऊपर जजों की राय विभिन्न क्यों और कैसे बनती है? मान्यता बहुमत को ही दी जाती है जबकि हमेशा बहुमत सही होता ही नहीं। अल्पमत की भी अपनी महत्ता है।असहमति के स्वर दबाना भी उचित नहीं है न्याय की दृष्टि में। इस विषय पर शोध किया जाना अपरिहार्य है। यहां प्रश्न यही है कि आईक्यू वाले जांच और विवेचनकर्ता और आईक्यू वाले ही जज होते हैं जिनसे न्याय की आशा की ही नहीं जा सकती। सबकी मानसिकता अलग अलग संभव है भले शिक्षा एक हो। आईक्यू वाले चाहे जांच एजेंसी वाले हों या किसी कोर्ट के जस्टिस उनसे शत प्रतिशत आशा नहीं की जा सकती न्याय की क्योंकि आई क्यू वाले व्यक्ति न्याय कर ही नहीं सकते। विवेचना से लेकर न्यायिक प्रक्रिया और उसमे विसंगतियां होती ही रहेंगी। सरकारी कर्मियों की नियुक्ति जब तक आई क्यू आधारित रहेगी। कोई भी कार्य ईमानदारी पूर्वक आईक्यू वाले करने में अक्षम हैं। जजों की कमी और पेंडिंग मुकदमों की संख्या का मानसिक बोझ भी न्याय में बाधक है। सबसे बड़ा प्रश्न है अन्याई व्यवस्था।घटना के बाद का न्याय,न्याय नहीं कहा जा सकता। अन्याई व्यवस्था में सब कुछ अन्याय ही होगा। घटना घटे नहीं। इसके लिए व्यवस्था न्यायशील बनानी होगी। पत्रानुसार पद नियोजन, डिजिटल करेंसी सिस्टम, केजीसेपीजी तक निशुल्क शिक्षा प्रशिक्षण, प्रति परिवार एक रोजगार अपरिहार्य है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है। यदि बेरोजगारी नहीं रहेगी तो लोग काम में लगे रहेंगे। फिर व्यर्थ की सोचने के लिए समय ही कहां रहेगा? एक बार व्यवस्था न्यायशील बना देने पर अपराध रुक जाएंगे। फिर पुलिस थाने, वकील जेल, जज, कोर्ट और किसी भी जांच एजेंसी, आईटी, ईडी, सीबीआई, सेल टैक्स किसी भी विभाग की जरूरत नहीं होगी। अपराधी यदि अपराध करता भी होगा तो स्वीकारोक्ति करेगा। सजा या दंड की व्यवस्था तो दैत्य व्यवस्था है। मानव व्यवस्था प्रायश्चित की है। प्रायश्चित से मनोविकार दूर होंगे। अपराध खत्म होंगे। पीड़ित को न्याय क्या अपराधी को दंड देने से मिलता है? गांधी जी ने भी कहा था, अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं।हत्या के बदले कोर्ट द्वारा फांसी या आजीवन कारावास सरकार द्वारा हत्या कही जाएगी।




