Monday, July 8, 2024
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घटना के बाद न्याय, न्याय नहीं है!

वरिष्ठ लेखक- जितेंद्र पांडेय
बीजेपी की केंद्र सरकार ने तीन नए कानून शीत कालीन सत्र में तब पारित किए गए थे जब विपक्ष के 150 सांसदों का बेवजह निलंबन किया गया था। इसके बाद बिना बहस के दो मिनट में ध्वनि मत से पारित तीनों कानून असंवैधानिक तरीके से देश पर लादे गए हैं। तीनों आपराधिक कानून के नाम बड़े लोक लुभावन लगते हैं। यथा भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम। बड़े सुंदर और लुभावने नाम हैं ये तीनों। नाम से लगता है सब कुछ भारतीय ही है। ये तीनों कानून पहली जुलाई से लागू हो गए हैं। जो संविधान समिति द्वारा निर्मित आईपीसी की जगह लेंगे। पहले बलात्कार की धारा 375,376 की जगह अब बलात्कार की धारा 63 और सामूहिक बलात्कार की धारा 70 होगी। हत्या के लिए 302 के स्थान पर धारा 101 होगी। न्याय संहिता में 21 नए अपराध जोड़े गए हैं। मॉब लिचिंग को भी इसमें जोड़ा गया है। 41 अपराधों में सजा बढ़ाई गई है। जबकि 82 मामलों में जुर्माना बढ़ाया गया है। जब सजा और जुर्माना बढ़ाया गया है तो फिर न्याय कैसे होगा? यह तो दंडित करने के कानून बने हैं। किसी ने हत्या की चाहे आवेश में आ कर चाहे प्लानिंग करके।हत्या होने पर फांसी अथवा आजीवन कारावास तो दंड हुआ। फांसी की सजा तो सरकारी हत्या हुई फिर न्याय कहां हुआ?हत्या के बदले हत्या यह तो दैत्य कर्म है। मानव का धर्म नहीं। फांसी पर लटका देने से पीड़ित परिवार को न्याय कैसे मिल जायेगा यह सोचने और चिंतन करने का विषय है। फांसी देने से पीड़ित परिवार को क्या मिलेगा? मात्र आत्मसंतोष। इस दंड देने की प्रक्रिया को न्याय नहीं कहा जाएगा। इसके विपरित हत्यारे को आदेश हो कि वह पीड़ित परिवार की सेवा करे। देखभाल और जीविकोपार्जन का साधन बने। जहां तक जुर्माना बढ़ाने की बात है धनवान तो जुर्माना भरकर छूट जायेंगे।फिर न्याय कैसे हुआ? कोर्ट को अवश्य बंधन में डाला गया है। कोर्ट को 45 दिनों में फैसला करना अनिवार्य होगा। गवाहों की सुरक्षा का भार राज्य सरकारों पर होगा। बलात्कार पीड़िता का बयान उसके अभिभावक की उपस्थिति में महिला पुलिस अधिकारी लेगी। मेडिकल रिपोर्ट 7 दिनों के भीतर देनी होगी। यहां पर प्रश्न उठता है जैसा कि देखा भी गया है। पैसे के बलपर मेडिकल रिपोर्ट बदलवाई जाती हैं। इसमें खुद एस ओ की भूमिका महत्त्वपूर्ण होते देखा गया है। एसओ शव लेकर मेडिकल रिपोर्ट बनवाता है। व्यक्ति की मृत्यु हुई। साक्ष्य कहते हैं। उस पर नुकीले हथियार के कई निशान थे मगर मेडिकल रिपोर्ट में कोई निशान नहीं दिखाया जाता। जब मरने का कोई सबूत नहीं मिलता तो व्यक्ति मरा कैसे? सारा खेल पैसे का है। आप के पास पैसे हैं तो पुलिस और डॉक्टर को आप खरीद सकते हैं। सबूत मितवा सकते हैं। तमाम मामलों में पुलिस की भूमिका संदिग्ध मिली हैं। कोई चोट का निशान नहीं, गला दबाने का निशान नहीं, जहर भी विसरा में नहीं मिला तो आदमी मरा कैसे? एक वाकया है। एक बूढ़े व्यक्ति को 19 साल बाद बेकसूर पाकर जज ने रिहा कर दिया। इस पर बूढ़े व्यक्ति ने जज को आशीर्वाद देते हुए कहा, जज साहेब भगवान करे आप दारोगा हो जाएं। जज ने कहा, जज की कुर्सी दारोगा से बहुत ऊंची होती है।आपने दारोगा बनने का आशीष क्यों दिया। बूढ़े ने कहा, जज साहेब मुझे बेकसूर साबित करने में आपको 19 साल लग गए। दरोगा जी तो कह रहे थे कि बीस हजार रुपए दे दो, मैं दो मिनट में तुम्हे बेकसूर साबित कर दूंगा। तो दारोगा आप से बड़ा हुआ न जो दो मिनट में मुझे बेकसूर साबित कर देता।अब यह वाकया सही हो या न हो लेकिन पुलिस बहुत कुछ कर सकती है। बेकसूर को कुसुरावार ठहरा सकती है और अपराधी को सबूत के अभाव में रिहा कर सकती है। पुलिस के लिए गवाह और हथियार जुटाना मुश्किल नहीं है। आंकड़े के अनुसार अवैधानिक असलहे की खरीदी पुलिस 70 प्रतिशत करती है। एनकाउंटर का सच यह है कि आरोपी को रात के अंधेरे में पकड़कर किसी सुनी जगह ले जाती है।वहां गाड़ी रोककर आरोपी को जाने के लिए कहती है और आरोपी जैसे ही आगे बढ़ता है। पीछे से पुलिस उसे गोली मार देती है और अपने साथ लाए गैरकानूनी पिस्टल से हवाई फायर करके पिस्टल से अपने हाथ का निशान रूमाल द्वारा मिटाकर मृतक आरोपी के हाथ में पकड़ा देती है और प्रेस रिलीज में बताती है। आरोपी पुलिस पर गोली चलाने लगा तो पुलिस ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाई जिसमें एक गोली आरोपी को लगी और मुठभेड़ में मारा गया। कई मामले तो ऐसे आए हैं कि आरोपी के सीने में ही कई कई गोलियों के निशान देखे गए हैं। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है क्या आरोपी ने अपना बचाव नहीं किया। वह सामने आ खड़ा हो गया और कहा मारो गोलियां मेरे सीने में। छः इंच के घेरे में पिस्टल की छः गोलियां लगाना इत्तेफाक नहीं हो सकता बल्कि बांधकर नजदीक से पूरी पिस्टल की मैगजीन खाली कर दिया गया हो। वस्तुतः बीजेपी की केंद्र सरकार ने जीतने भी कानून बनाएं हैं देश की पुलिस को असीमित अधिकार मिल गए हैं नई संहिता से। पुलिस किसी को राष्ट्रद्रोही प्रमाणित कर सकती है। साक्ष्य और गवाह जुटाना उसके लिए बाएं हाथ का काम है। चरस गांजा या ड्रग्स पुलिस के पास रहती है। उसे बरामदगी बताकर बेकसूर को अपराधी सिद्ध कर सकती है। गवाह अनेक उसके पास होते हैं। इन तीनो संहिताओं के लागू होने पर पुलिसिया राज कायम हो जायेगा। निरंकुश हो जायेगी पुलिस। यह जो 90 दिन पुलिस हिरासत में रखने और कभी भी रिमांड लेने की छूट 15 दिनों के लिए मिलती है। इस बीच सक्ष्यौर गवाह जुटा पाना पुलिस के लिए बाएं हाथ का खेल है। दक्षिण भारत में विशेषकर गैर भाजपा राज्यों में कानूनों का विरोध किया जा रहा है। कोलकाता हाईकोर्ट अंडमान निकोबार द्वीप के एडवोकेट इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। दरअसल पुलिस, एडवोकेट्स जज सबके लिए नए और पहली जुलाई के पूर्व अपराधों में पुराने कानूनों के अनुसार चलाना होगा। संविधान के अनुसार कानूनों के नाम हिंदी नहीं अंग्रेजी में रखने चाहिए ऐसा विरोध करने वालों का कहना है।
ये बीजेपी सरकार द्वारा संसद में बिना बहस के पारित किए गए तीनों कानून देश पर थोपे जा रहे कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब विपक्ष के नहीं होने पर संसद द्वारा पारित कैसे माना जा सकता है? वास्तविकता यह है कि इन तीनों नए कानूनों के द्वारा न्याय संभव ही नहीं। ये तीनों कानून घटना के बाद लागू होंगे। होना तो यह चाहिए कि सर्वमान्य न्यायशील व्यवस्था बनाई जाए ताकि अपराध ही न हो। अपराध होने देना गलत और सरकार की असफलता ही कही जाएगी। बेहतर होता सर्वसम्मति से व्यवस्था सुधारने के लिए सोचा जाना चाहिए।

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