
आज हमारे देश में वास्तविक मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने, अपनी नाकामी छिपाने के लिए इंडिया बनाम भारत और सनातन धर्म की थोथी राजनीति की जा रही है। मुश्किल यह है कि जब भी चुनाव निकट होते हैं राजनीतिक दल जनता को भ्रमित करने के लिए बेवजह किसी भी बात को तूल देकर देश में विवाद पैदा करके वोट बैंक की कुराजनिती करने लग जाते हैं। बेसिरपैर की बातों में जनता को उलझा दिया जाता है। इंडिया बनाम भारत विवाद कुछ ऐसा ही है। दूसरी घटना डीएमके नेता के द्वारा सनातनधर्म को डेंगू मलेरिया जैसा रोग बताकर उसे खत्म करने की बात कहने पर राजनीतिक रंग देते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की जाने लगी है कि सनातन धर्म विरोधियों को दंडित किया जाना चाहिए। हिंदू मुस्लिम की तरह सनातनधर्म और विरोध का जहर बोकर वोट बैंक की राजनीति शुरू हो गई है। इस तुच्छ बात को तूल देकर हिंदू जनमानस में जहर फैलाकर सियासी फायदा उठाने का घृणित दुष्कर्म किया जा रहा ताकि वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके। ये लोग हिंदू होने पर गर्व करते हैं।सनातनधर्म के स्थान पर हिंदूधर्म बनाने वाले यह नहीं जानते कि हिंदू शब्द पारसी है। सिंधु की वर्तनी हिंदू पढ़ने से हिंदू शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। हिंदू शब्द उतना ही अपमान जनक है जितना इंडिया। इंडिया अंग्रेजों की देन बताया जाता है तो हिंदू को क्यों नहीं पर्सियन कहा जाता। सियासी लाभ के लिए गाली को भी सिने से लगाने वाले भला क्या जानें सनातनधर्म क्या है? वे बताएं हिंदू धर्म का स्रोत क्या है। जितनी गाली इंडिया लगती है उससे अधिक गाली हिंदू से लगनी चाहिए। सिंधु पार के निवासियों को हिंदू कहा गया। सनातनधर्म प्राचीनतम धर्म है जो सदा वैसा ही नवीन आज भी है। इसमें बदलाव किया ही नहीं जा सकता। पहले सारी दुनिया में सनातन धर्म ही प्रशस्त था। कुछ धूर्तो और दुष्टों के कारण सनातनधर्म में बुराइयां आने के कारण ही जैन, बौद्ध, सिख, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, बहावी पंथों की मनुष्यों द्वारा अलग अलग सोच के कारण प्रदुर्भाव हुआ या मनुष्यों द्वारा बनाया गया। जबकि सनातनधर्म किसने बनाया इसका रहस्य अज्ञात है। हां वेदों के संकलक ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों के आधार पर सनातन धर्म की व्याख्याएं की। अग्नि वरुण इंद्र पूसा पर्जन्य की पूजा आरंभ की। आध्यात्म त्रिदेव ब्रह्मा सर्जना करने वाले, विष्णु पालनकर्ता और शिव को संहारकर्ता बताता है परंतु ये तीन अलग अलग नहीं एक ही हैं।एकमात्र ब्रह्म ही है जिसने अपनी प्रकृति के साथ मिलकर सृष्टि की रचना की।ब्रह्म अद्वैत यानी निराकार है।साकार की कल्पना ध्यान के लिए ही की गई ताकि अवलंब मिलने से ध्यान में सरलता हो।ब्रह्म ही विस्तारित होकर ब्रह्मांड बना। वही परमात्मा आत्मा के रूप में समस्त चर अचर में स्थित है। इसीलिए कहा गया अहम ब्रह्मास्मी। हम सभी एक ही आत्मा हैं। जैसे सोने के विभिन्न आभूषण आकार, प्रकार में भले अलग अलग लगते हैं परंतु हैं तो एक ही सुवर्ण धातु से निर्मित।वैसे ही हमारी आत्मा एक ही है। इसमें अंतर करना ही द्वैत है। ब्रह्म और आत्मा अद्वैत होने से ही अजर अमर हैं। जिस तरह कहा जाता है ब्रह्म ही सत्य है तो सत्य ही ब्रह्म क्यों नहीं कहा जा सकता। जबकि सत्य है यह।
चार वेद, चार अवस्था, चार मूल दिशाएं, चार उपदिशाएं, चार वर्ण, चार आश्रम और चार पुरुषार्थ सभी चार ही क्यों हैं?
प्रायः कहा जाता है कि सनातनधर्म के चार पाए या स्तंभ हैं। चतुष्पाद धर्म। ये हैं सत्य, प्रेम, न्याय और पुण्य। अद्वैत ब्रह्म को प्रमाणित करते हुआ महाकवि लिखते हैं, बिनु पग चले, सुने बिनु काना, बिनु कर कर्म करे विधि नाना। अध्यात्म ने निराकार ब्रह्म को साकार यानी काल्पनिक रूप दिया। आदि शंकराचार्य ने देश के चारों दिशाओं में चार शिवमन्दिर स्थापित किए। द्वादश ज्योतिर्लिंग की मान्यता हुई। अध्यात्म में दो मतावलंबी हैं शेव मत और विष्णु मत वाले वैष्णव जिन्हें सम्रदाय कहा गया। संप्रदाय का अर्थ है एक सिद्धांत और कार्य करने वाले लोगों का समूह।
आइए,सनातनधर्म की चर्चा करें। पथ दो ही हैं संसार में सत्पथ, दुःपथ। सतपथ यानी सदाचार, सत्वचन क्या है? मुख में यथार्थ, श्रेष्ठ, प्रिय एवम मधुर वाणी का होना। सत्वृत्ति, हृदय में सरल, विनम्र, उदार और दयाभाव से ओतप्रोत होना।सद्बुद्धि, अर्थात न्याय, मसिष्क में सम, उचित, निष्पक्ष, निश्चल विचार का होना। सत्कर्म जिसे पुण्य कहा जाता है, करो में वैध, सुंदर, पवित्र और श्रेष्ठ कार्य का होना। इसके विपरित असत्पथ में दुराचार –दुर्वाचन यानी असत्य, मुंह में मिथ्या, विकृत, अप्रिय एवम कटु वाणी। दुर्बृत्ती अर्थात घृणा, कठोर, आक्रामक, संकीर्ण और क्रूर भाव का होना। दुर्बुद्धि या अन्याय, मस्तिष्क में विषम, अनुचित, पक्षपाती और छली विचार होना। दुष्कर्म या पाप, करो में अवैध, विकृत, अपवित्र और पतित कर्म करना। सद्व्यवहार या शुभ बर्ताव, सत्स्वरूप या सत्य, व्यक्ति में सर्वत्त्व ब्रह्मत्व, अखंडत्व, आत्मत्व जनित संबंध होते हैं। सत्संबंध या प्रेम, परिवार में मैत्री, बंधुत्व, श्रद्धा और समर्पण जनित संबंध होना। सतनियम यानी न्याय, समाज में सम, उचित, निष्पक्ष और निश्चल विधान होना। सत्प्रवाह या पुण्य, समष्टि में सुनियोजन, सुसंस्करण, संवर्धन और संरक्षण की प्रक्रिया होना। इसके विपरित दुर्व्यवहार या अशुभ बर्ताव, दुत्स्वरूप यानी व्यक्ति में स्वत्व, अहमत्व, खंडात्व और देहत्व का स्वरूप होना। दूत्समबंध यानी अन्याय, समाज में विषम, अनुचित पक्षपाती और छली विधान का होना। दुष्प्रवाह या पाप, समष्टि में कुनियोजन, कुसंस्करण, दमन और हनन प्रक्रिया चलती है। यह समूची सृष्टि ही चार आयामी है। यह समूची सृष्टि ही चार आयामी है। पांचवा आयाम सृष्टि से परे है। अतः चार ही आचातिक तत्व हैं। वाक, भाव, विचार और क्रिया। इनके केंद्र हैं मुख, हृदय, मस्तिष्क और कर। चार ही व्यवहारिक तत्व हैं, आत्मिक, भावनात्मक, वैचारिक और क्रियात्मक। इनके चार केंद्र व्यक्ति, परिवार, समाज और समष्टि हैं। व्यक्ति का अर्थ है एक मनुष्य ,परिवार का अर्थ है अनेक व्यक्तियों का समूह, समाज का अर्थ है अनेक परिवारों का संघ या देश या राष्ट्र। जबकि समष्टि का अर्थ है सृष्टि के चारों संवर्ग जड़ पदार्थ, वृक्ष वनस्पति, पशु पक्षी एवम मनुष्य वर्ग। सदाचार और सद्व्यवहार रूपी सतपथ ही धर्म है। दुराचार दुव्यवहार रूपी दुष्पथ ही अधर्म है। मुख में सत्य वचन, हृदय में प्रेमभाव, मस्तिष्क में न्यायबुद्धि ,करो में पुण्यकर्म ही सदाचार है। मुख में असत्य वचन, हृदय में घृणाभाव, मस्तिष्क में अन्यायबुद्धि और करो में पापकर्म ही दुराचार है।व्यक्ति में सत्यस्वरूप, परिवार में प्रेमसंबंध, समाज में न्यायविधान और समष्टि में पुण्यप्रवाह ही सद्व्यवहार है।व्यक्ति में असत्य स्वरूप, परिवार में घृणास्पद संबंध, समाज में अन्याय विधान एवम समष्टि में पाप प्रवाह ही दुर्व्यवहार है। वेद प्रतिपादित सत्सिद्धांत जिसे जिसे अद्वैत दर्शन कहते हैं ही सतपथ रूपी सदाचार और सद्व्यवहार के निर्धारण का आधार है। सतसिद्धांत द्वारा प्रणीत सतपथ ही शाश्वत सनातनधर्म है। इसके विपरित अज्ञान जनित दुत्सिद्धांत या द्वंद्व दर्शन ही दुष्पथ का आधार है। यह दुष्पथ ही दैत्यधार्म है। एक मार्ग ईश्वर की ओर तो दूसरा शैतान की ओर है। मनुष्य स्वतंत्र है कि वह क्या प्रिय करे, सद्गति या दुर्गति। प्रकाश या अंधकार, विकास या पतन, स्वर्ग या नर्क, सतयुग या कलियुग। यद्यपि वेदांत का आदेश है, असतोमा सद्गमय। अर्थात असत से सत की ओर चलें। युग चार सतयुग, त्रेता द्वापर और कलियुग कहे गए हैं। ये चारो युग व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र और समष्टि के कर्मों पर आधारित हैं। सतयुग जब था उस समय स्व नहीं सर्व था। सत्य, प्रेम, न्याय और पुण्य पूर्णांश में था। त्रेता में पचहत्तर प्रतिशत, द्वापर में पच्चास प्रतिशत और अब घटकर पच्चीस प्रतिशत यानी सत्य, प्रेम, न्याय का लोप होने से कलियुग कहा जाता है। वचन, कर्म व्यवहार, न्याय और पुण्य में वृद्धि होते ही सतयुग कहलाएगा। आज काल्पनिक भगवान की मूर्ति पूजा, दौलत का चढ़ावा पुण्य माना जाता है। सत्य प्रेम न्याय त्यागकर पुण्य करने लगा है और सोचता है मोक्ष मिलेगा। पाप कटेंगे जो असंभव है। कर्मफल सिद्धांत के अनुसार फल यहीं मिलेगा।पृथ्वी के अलावा स्वर्ग और नर्क और कहीं भी नहीं है। आओ असतो मा सद्दगमय करें।
लेखक- जितेंद्र पाण्डेय