
समस्त न्यायाधीश संविधान की शपथ लेते हैं, तो संविधान की रक्षा करना उनका धर्म बन जाता है। बिना डरे निर्णय लिखना दायित्व होता है। इतनी हिम्मत तो होनी ही चाहिए जो सत्ता को आइना दिखा सकें। पिछले एक दशक से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने निहित स्वार्थ या सत्ता के दबाव में कई गलत और अधूरे फैसले लिखे। राम मंदिर के फैसले में पक्षपात कर न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाई गई। हद तो तब हुई कि पाँचवे जस्टिस रहे चंद्रचूड़ ने खुद ही कहा कि वे फैसला लिखने में हिचकिचा रहे थे, लेकिन ईश्वर पर छोड़ दिया और ईश्वर की इच्छा समझ राम मंदिर के पक्ष में फैसला लिख दिया। पुर्व सीजेआई चंद्रचूड़ को बताना था देश को कि संविधान की शपथ लेने के बाद क्या वे धार्मिक आधार पर फैसला लिखने के अधिकारी थे? न्यायपालिका का सम्मान घटा दिया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल भले किसी पार्टी के समर्थक रहे हों, लेकिन इन सर्वोच्च, सर्वाधिक पदों पर बैठने के बाद वे पूरे देश के निष्पक्ष राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बन जाते हैं। किसी खास दल के नहीं रह जाते। सरकार की गलत नीतियों को रोकना न्यायालय का दायित्व है, लेकिन चंद्रचूड़ ने बता दिया कि वे निष्पक्ष नहीं थे। पक्षपात किया था। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और पारदीवाला की बेंच ने गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की पक्षपाती भूमिका के लिए फटकार लगाई है। स्मरणीय होगा कि दिल्ली के एलजी पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कई बार आरोप लगाए थे कि एलजी उनकी सरकार को काम ही नहीं करने देते। एक तो तितलौकी, दूजे नीम चढ़ी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद से कानून पास कराकर तानाशाही का परिचय दिया। न्यायपालिका के आदेश को तिलांजलि देकर अपनी मनमाफिक कानून बनाने वाली पहली सरकार है जो हमेशा दंभ से सराबोर रहती है। बीजेपी द्वारा नियुक्त अनेक राज्यपालों ने पंजाब, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि गैर-बीजेपी राज्यों में राज्य सरकार द्वारा सदन से पारित प्रस्ताव पर हस्ताक्षर न करके रोक रखते थे, जिससे राज्य सरकारें जनहित में कानून बना नहीं सकती थीं। सरकार द्वारा पारित बिल को रोक रखना पक्षपात और अन्याय है। तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री ऐसी शिकायतें करते रहे हैं। सीजेआई और पारदीवाला की बेंच ने राज्यपाल को उनकी औकात दिखाई और कहा — दिल्ली का मुँह तकना और केंद्र के निर्देश पर राज्य सरकारों को काम करना राज्यपाल का दायित्व नहीं है। राज्यपाल किसी दल अथवा पार्टी का नहीं रह जाता, संवैधानिक पद है। राज्यपाल का पद पाने के बाद निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जानी चाहिए, न कि राज्यपाल केंद्र सरकार के इशारे पर चले। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाते हुए साफ शब्दों में कहा है — यूपी में गुंडा राज चल रहा है। बुलडोजर से न्याय करने का नतीजा है कि प्रशासन, विशेषकर पुलिस विभाग, निरंकुश और मनमाना हो गया है। किसी भी दीवानी केस को फौजदारी का केस बना दिया जाता है। पुलिस का सारा ध्यान हफ्ता वसूली में लगा रहता है। धनी और रसूख वालों की रखैल बन गई है पुलिस। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने दूसरे न्यायाधीशों, चाहे वे हाईकोर्ट के हों या निचले स्तर के, न्याय की मशाल जलाकर मार्ग दिखाने का काम किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समस्त न्यायाधीश सत्ता के भय से बाहर निकल कर फैसले लिखेंगे। पीएम मोदी के चुनाव क्षेत्र में ड्रग्स, सामूहिक रेप और मर्डर की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। यूपी का एक भी जिला ऐसा नहीं जहाँ अपराध कम होते हों। हाँ, अपराध कम होने का एक उपाय पुलिस ने ढूँढ़ लिया है- गरीबों की एफआईआर नहीं लिखने का। जब सरकार धर्म और राजनीति को गड्डमड्ड कर वोटबैंक की कु-राजनीति करेगी, तो कानून व्यवस्था और सरकारी लोगों में नैतिकता ढूँढना रेगिस्तान में सुई ढूँढने जैसा ही है।