Tuesday, October 21, 2025
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साक्षात् श्रीकृष्ण भगवान का दर्शन है गोवर्धन परिक्रमा


डॉ. दौलतराज थानवी
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म होने से ब्रजभूमि की रज को आज भी कृष्णमयी मानकर लोग मस्तक पर लगाते हैं। कहते हैं यह तो रमण देती है। बड़े-बड़े लक्ष्मी के लाल और सुदामा मंडल के निर्धन भी यहां आकर अपने को धन्य मानते हैं। उनका भक्त हृदय यहां के टुकड़ों के लिए तरसता है। ओड़छे के व्यास बाबा गिड़गिड़ा कर कहते हैं- ऐसो कब करिहौ मन मेरो। कर करवा हरवा गुंजन की कुंजन माहि बसेरो॥
भूख लगै तब मांगि खाउंगो, गिनौ न सांझ सवेरो।
ब्रज बासिन के टूक-जूंठ अरू घर-घर छाछ महेरो।
ब्रजभूमि को भगवान कृष्ण गौ लोक से साथ लाए थे। ब्रज में आते ही ब्रजभूमि की शान बढ़ गई। गोपी गीत में गोपियां कहते हैं- जयति ते अधिकं जन्मना व्रज: श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि।
दयति दृश्यता दिक्षुतावकास् तवयि धृता सवम् तवां विचिन्वते। जिस प्रकार देवी-देवता, ऋषि-मुनि, श्रुतियों आदि ने आकर गोप-गोपिकाओं का जन्म ग्रहण किया, उसी प्रकार पुराणों और वेदों में इस भूमि को सृष्टि और प्रलय से मुक्त बताया है। यह वह भूमि है जिस पर उद्धवजी ने लोट-पोट होकर रमण रेती को मस्तक लगा दिया। ऐसा इसलिए है कि यहां पर बड़े-बड़े देवता यहां के निवासियों की जूठन खाना, प्रसाद ग्रहण करने की तरह समझते थे। सूरदासजी ने तभी तो लिखा है- ब्रजवासी पट तर कोउ नाहि
ब्रह्म सनक सिवध्यान न पावत, इनकी जूठनि लै लै खाहि।
हलधर कहयौ, छाक जेंवत संग, मीठो लगत सराहत जाहि।
सूरदास प्रभु जो विश्वम्भर, तो ग्वाल के कौर अधाहि।
ब्रजभूमि को मथुरा और वृन्दावन में आसपास 84 कोस में फैली बताया है। वाराह पुराण के अनुसार भगवान ने कहा कि मथुरा मण्डल 20 योजन में है। यहां के तीर्थ स्थल पर स्नान करना मनुष्यों के लिए अपने पापों का नाश करना है-
विशतिर् योज नानां च माथुरं मम मण्डलम्।
यत्र-तत्र न: स्नात्वा मुच्यते सर्व पात कै:।।
इस 90 कोस में 12 महावन और 24 उपवन थे। सात सरिताएं थीं। 5 सरोवर थे। पांच पर्वत थे, जिसमें गोवर्धन सर्वाधिक पूजनीय माना गया है। भगवान कृष्ण ने जब गोवर्धन की पूजा का प्रस्ताव रखा तो समस्त देवता, अप्सराएं, नाग, कन्याएं और ब्रजवासियों के झुण्ड आने लगे। गंगाधर शिवजी भी पधारे। राजर्षि, ब्रह्यर्षि, देवर्षि, सिद्धेश्वर, हंस आदि मांगेश्वर तथा हजारों ब्राह्मण वृन्द गिरिराज के दर्शन को पधारे। (गर्ग संहिता)।
भगवान की बताई विधि से गिरिराज की पूजा प्रारंभ की गई। नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोपी वृन्द तथा गोप गण नाचने, गाने और बाजे बजाने लगे। उन सबके साथ हर्ष से भरे हुए श्रीकृष्ण ने गिरिराज की परिक्रमा की।
श्रीकृष्ण ब्रज स्थित शैल गोवर्धन के बीच से एक दूसरा विशाल रूप धारण करके निकले और ‘मैं गिरिराज गोवर्धन हूं’ यह कहते हुए वहां का सारा अन्नकूट का भोग लगा गए। कुछ समय बाद अन्तर्ध्यान हो गये।
देवराज इन्द्र इससे क्रोधित हो गए। उन्होंने सांवतर्क, मेघगणकों को पानी बरसाने को कहा। घबराये गोपों ने कृष्ण भगवान से कहा- ब्रजेश्वर कृष्ण, तुम्हारे कहने से हम लोगों ने इन्द्र योग छोड़कर गोवर्धन पूजा का उत्सव मनाया, इन्द्र का कोप बहुत बढ़ गया। अब शीघ्र बताओ, हमें क्या करना चाहिए। भगवान कृष्ण ने विश्वास दिलाया कि डटे रहें। समस्त परिकरों के साथ गिरिराज तट पर चलें। जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। भगवान ने गोवर्धन पर्वत को उखाड़कर एक ही हाथ की एक अंगुली पर खेल-खेल में ही धारण कर लिया। इन्द्र देव ने माफी मांगी। भगवान ने पुन: पर्वत गिरिराज को धरती पर रख दिया। इसी से गोवर्धन गिरिराज पवित्र तीर्थ हो गया है। भगवान ने अपना हाथ गिरिराज पर रखा वहां का स्थान हस्तचिन्ह- उनके साथ चरण चिन्ह से पवित्र हो गया। आकाश गंगा ने भगवान का अभिषेक किया। इसी से यहीं पर मानसी गंगा प्रकट हो गई जो सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है। दुग्ध से भगवान का अभिषेक हुआ, जिसमें वहां गोविन्द कुण्ड प्रकट हो गया। यहां पर भी भक्तजन स्नान करते हैं। भण्डारी वन में ब्रह्माजी ने वृषभानुवन में पुत्री राधिका और श्रीकृष्ण का विवाह सम्पन्न कराया। समीप में ही नन्द नन्दन श्री हरि ने राधा पर मोती न्यौछावर किए थे, जिससे वहां मुक्ता (मोती) सरोवर प्रकट हो गया। यह सरोवर भोग और मोक्ष का दाता है। इस तरह गिरिराज सम्पूर्ण जगत में शिखरों के मुकुट का दर्जा पा सका। गिरिराज पर भगवान के मुकुट से स्पर्श पाई शिला मुकुट है। जहां की शिला पर बालपन के चित्र बनाए वह चित्र शिला है। जहां बालकों के साथ खेल किया और शिला को बजाया वो वादिनी शिला के रूप में पूजनीय है। साथ में ही कन्दुक क्षेत्र (खेल क्षेत्र) है। यहीं पर शक्रपद और ब्रह्मपद के चिन्ह भी हैं। यहीं पर सभी गोपों की पगडिय़ां चुराई थीं वह स्थान औष्णीष नाम से प्रसिद्ध हो गया। जहां गोपियों से दही लूटा था और गोवर्धन की घाटी में कदम्ब और पलाश के पेड़ों के पत्तों से दोने बनाए थे, वह द्रौण स्थान भी नमस्कार करने पर फल देने वाला हो गया। कदम्ब खण्ड, श्रृंगार मंडल में श्री नाथ जी सदा लीला करते हैं। श्री रंगनाथ, श्री द्वारकानाथ और श्री बद्रीनाथ प्रसिद्ध पांच नाथ देवताओं के पांच स्तम्भ। चार स्तम्भों की परिक्रमा होती है। पर्वत बने चिन्ह, कुण्ड और मंदिर तो गिरिराज के जीवित स्वरूप हैं। इस प्रकार श्री गोवर्धन तो भगवान के मुख हैं। मानसी गंगा, भगवान के दो नेत्र हैं। चन्द्रसरोवर नासिका है। गोविन्द कुण्ड अधर हैं। श्रीकृष्ण कुण्ड भगवान का चिबुक है। राधाकुण्ड भगवान की जिव्हा है, ललिता सरोवर, भगवान के कपोल हैं, गोपाल कुण्ड, भगवान के कान हैं, कुसुम सरोवर, भगवान के कर्णान्त भाग हैं। पर्वत पर चित्रशिला भगवान का मस्तक है। वादिनी शिखा उनकी गर्दन है। कुन्दक तीर्थ भगवान का पार्श्व भाग (पीठ) है। उष्णीष तीर्थ भगवान का कटि भाग है। द्रौण तीर्थ पिछली पसलियां हैं। लौकिक तीर्थ भगवान का पेट है। कदम्ब खण्ड भगवान का हृदय है। श्रृंगार मण्डप में जीवात्मा बसती है। श्रीकृष्ण चरण चिन्ह भगवान का मन है। हस्त चिन्ह तीर्थ बुद्धि है। ऐरावत चरणचिन्ह भगवान के चरण हैं। सुरभि के चरण गोवर्धन के पंख है। पुच्द कुण्ड उस पर्वत राज की पूंछ है। वत्सकुण्ड उसका बल है। रूद्र कुण्ड क्रोध है। इन्द्र सरोवर काम वासना है। कुबेर तीर्थ उद्योग स्थल कर्म क्षेत्र है। ब्रह्म तीर्थ प्रसन्नता का प्रतीक है। यम तीर्थ गोवर्धन का अहंकार है। यह गोवर्धन पर्वत श्री हरि के वक्ष स्थल से प्रकट हुआ है। पुलस्तय मुनि के तेज से यह ब्रज मण्डल में स्थित हो गया। यह साक्षात् श्रीकृष्ण ही है। इसकी परिक्रमा साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परिक्रमा है। यहां यह भी संदेश मिलता है कि जीवन का तथ्य जल है। पहाड़ों-पहाडिय़ों पर सरोवर और कुण्ड बनाना, कदम्ब जैसे वृक्षों से उन पर्वतों को श्रृंगार करना जीवन को जल से तृप्त करता है तथा भगवान की छाया का अनुभव होता है। वर्तमान में हजारों श्रद्धालु इस तीर्थ की परिक्रमा करते हैं। भगवत कृपा से यहां पर चोरी-चकारी, लूट-खसोट और अन्य वारदातें नहीं सुनी हैं। हां कुछ स्वार्थी धन लोलुप यहां पर पर्वतराज के पास खनन कार्य की चेष्टा करते हैं। इस तरह गिरिराज भगवान की परिक्रमा मात्र एक पर्वत खण्ड की परिक्रमा नहीं है, साक्षात् भगवान की परिक्रमा है जो कहते हैं गौरक्षा करो, जल संग्रहण करो, पेड़-पौधे लगाकर हरा-भरा क्षेत्र बनाओ, जहां राधा कृष्ण का विहार हो। अन्न क्षेत्र खोलकर भगवान को भोग लगाने का प्रबंध हो।

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