
संसद जो राष्ट्र के गंभीर मुद्दों पर गंभीर विमर्श के लिए है, आज कुरुक्षेत्र बना दिया गया है। पिछले दस वर्षों से कभी भी गंभीर चिंतन देखा नहीं गया। एडीआर की रिपोर्ट कहती है, पंद्रह वर्षों में अपराधी सांसदों की संख्या में 55 प्रतिशत वृद्धि हुई है। 543 सांसदों में 251 पर आपराधिक मामले चल रहे। 40 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले, जिनमें 25 प्रतिशत पर गंभीर अपराध के मामले हैं। 151 वर्तमान सांसदों, विधायकों के खिलाफ महिला अपराध के मामले हैं, जिनमें बीजेपी के 54 सांसद हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 4809 में से 4693 सांसदों, विधायकों के द्वारा दिए गए हलफनामे में 775 में से 755 सांसद और 4693 विधायकों में से 4033 विधायक शामिल हैं। 16 मौजूदा सांसदों और विधायकों पर बलात्कार के आरोप हैं, जिनमें दो सांसद हैं। महिलाओं से जुड़े अपराध के दर्ज मामलों में 16 सांसद और 135 मौजूदा विधायक हैं। आपराधिक मामले बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण के हैं। मौजूदा लोकसभा और राज्यसभा के प्रत्येक सांसद की संपत्ति का औसत 38.33 करोड़ है, जबकि 53 यानी 7 प्रतिशत अरबपति सांसद हैं। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 8 और 9 को चुनौती देते हुए, अपराधी प्रवृत्ति वाले लोगों पर आजीवन चुनाव लड़ने का प्रतिबंध लगाने की मांग की है, जिसके जवाब में बीजेपी की केंद्र सरकार ने अपराधी सांसदों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने को कठोरता कहा है। हलफनामे में दोषी सांसदों और विधायकों के छह साल तक सीमित रखने के प्रावधान को आनुपातिक और तर्कसंगत बताते हुए, अपराधी सांसदों और विधायकों का बचाव करने की कोशिश की है। बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को अप्रत्यक्ष रूप से धमकी देते हुए, कुतर्क किया है कि संसद को सजा की अवधि तय करने का अधिकार है। यानी अगर सुप्रीम कोर्ट आजीवन प्रतिबंध लगाती है, तो संसद इस फैसले के खिलाफ कानून बना देगी, जैसे दिल्ली सरकार के प्रशासनिक अधिकार और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सीजेआई, प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष की कमेटी के आदेश को पलटकर, प्रधानमंत्री उनके द्वारा नियुक्त मंत्री और नेता प्रतिपक्ष को चुनने का अधिकार देने वाले कानून बनवा लिए थे। उसी तरह अब भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का सम्मान नहीं किए जाने की चेतावनी दी है। समझना होगा कि अपराधियों से भरी संसद अपने विरुद्ध लगाए गए आजीवन प्रतिबंध क्यों स्वीकार करेगी? वास्तविकता तो यह है कि राजनीति का योजनाबद्ध तरीके से अपराधीकरण किया जा चुका है। लगभग सभी दलों में आपराधिक प्रवृत्ति के लोग शामिल हैं। आज स्वच्छ राजनीति करना नहीं, सत्ता की कुराजनीति करना शगल बन गया है। आज की राजनीति में धन बल और बाहुबल अपरिहार्य हो गया है। चुनाव लड़ने के लिए सैकड़ों करोड़ खर्च करने पड़ते हैं। अब सज्जन लोग इतना महंगा चुनाव लड़ने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं? सबसे अहम बात, अपराधियों के चुनाव जीतने की सौ प्रतिशत गारंटी होती है। अगर सत्ता से जुड़े धनवान और बाहुबली हों, तो उनके लिए प्रशासन भी सहयोग करने लगता है। अभी-अभी उत्तर प्रदेश के मध्यावधि चुनाव में प्रशासन और शासन का नग्न नाच स्पष्ट दिखा, जिसमें पुलिस खुद मुसलमानों के आईडी देखकर, उनको या तो बूथ तक आने ही नहीं दिया गया या फिर उनकी अंगुलियों पर स्याही लगाकर लौटा दिया गया। चुनाव आयोग द्वारा लाखों वोटर बढ़ाए जाने और अंतिम घंटे में लाखों वोट डाले जाने, हर बूथ पर 25 प्रतिशत वोटर्स एकाएक बढ़ाया जाना क्या कहता है? यानी जब नेतृत्व तानाशाह हो जाता है, तो मनमाने ढंग से चुनाव जीतने की भी व्यवस्था करता है। अब चिंता की बात यह है कि जब संसद और विधानसभाओं में अपराधी ही अपराधी होंगे, तो कानून भी अपनी ही सुरक्षा के लिए बनाएंगे। जनहित के कानून बनाने के स्थान पर स्वहित के कानून ही बनाएंगे। सच तो यह है कि अपराधियों के बचाव के लिए सिर्फ दो ही क्षेत्र हैं। पहला, राजनीति और दूसरा, किसी मठ का महंत बन जाना, क्योंकि राजनेता बनने पर राजनीति के प्रभाव से पुलिस, एडवोकेट और न्यायाधीश जल्दी फैसला नहीं देते। जज भी दबाव में रहते हैं। उन्हें भी अपने और अपने परिवार की सुरक्षा की चिंता बनी रहती है। अगर वे अपराधी को जल्दी दंड देने की कोशिश भी करते हैं, तो बड़े-बड़े वकील तारीख पर तारीख मांगते चले जाते हैं। इसलिए आपराधिक मामले में निर्णय देना कोर्ट के लिए मुश्किल काम होता है। दूसरी तरह दौलत से भी जजों को खरीदा जाता है या फिर जजों को रिटायरमेंट के बाद मलाईदार पद देने का लोभ देकर, सरकार अपने पक्ष में लिखने को मजबूर कर देती है। जज भी सोचते हैं कि कौन मुसीबत मोल ले? इसलिए निर्णय लिखने में समय लगता रहता है और तब तक अपराधी सांसद और विधायक दूसरी बार फिर से चुनकर आ जाता है।