
अब उत्तराखंड में प्रतियोगी परीक्षा का पेपर लीक कर 50 लाख में बेचे जाने की बात वहां के छात्र सड़क पर उतरकर खुद करने लगे हैं। यदि छात्रों की मानें तो सिर्फ पेपर लीक के साथ ही पेपर लिखवाए जा रहे और यह सब पुलिस के संरक्षण में किया कराया जा रहा। महामहिम राष्ट्रपति कहती हैं जजों की नियुक्ति के लिए परीक्षा जरूरी है। जिले स्तर पर जज बनने के लिए लॉ में डिग्री के बाद टेस्ट देना पड़ता है। वहां से हाईकोर्ट में प्रमोशन होना चाहिए, न कि डायरेक्ट कोई सरकार अपनी पार्टी प्रवक्ता को हाईकोर्ट का जज नियुक्त कर दे। और अगर कोई जज हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट का जस्टिस सरकार के खिलाफ कोई फैसला लेकिन संवैधानिक हो तो उस पर सरकार नाराज़ होकर न्यायपालिका पर ही सवाल उठाने लगती है। निर्बुद्धि नेता सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस को ही देश में समस्या पैदा करने का आरोपित बना देते हैं। सरकारें किस तरह न्यायालयों का दुरुपयोग करती रहती हैं इसे कहने की जरूरत ही नहीं है। भले अपने लोगों की नियुक्ति करती रहे सरकार लेकिन कोलेजियम द्वारा नियुक्ति को भाई-भतीजावाद कहकर निंदा करने लगती है। केंद्र सरकार द्वारा बिना आईएएस परीक्षा पास किए ही जॉइंट सेक्रेटरी और अध्यक्ष बनाना शायद सरकार की नजरों में सही है, लेकिन कोलेजियम द्वारा सरकार से संस्तुति के लिए भेजे गए नाम को अटकाए रखना शायद सरकार की दृष्टि में संवैधानिक है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में जजों की संख्या बेहद कम होने से मुकदमे पेंडिंग में पड़े रहते हैं वर्षों। शरजील के मामले में क्या हुआ? पांच साल से जेल में राजनीतिक बंदी बनाकर रखा गया है। आज तक ट्रायल ही शुरू नहीं हुई क्योंकि दिल्ली पुलिस ने एविडेंस भेजा ही नहीं। जांच ही रोक रखी है जिस पर सुप्रीमकोर्ट द्वारा दिल्ली पुलिस को शरजील की जमानत के लिए नोटिस भेजा गया तो बुरा लगेगा ही। सपा नेता को दो साल के बाद जमानत दी गई। कहा जा रहा है कि सपा छोड़कर बसपा में शामिल होने की शर्त पर उन्हें जमानत दी गई है ताकि मुस्लिम वोट बसपा की ओर मुड़े जिससे सपा की सीटें कम हों। न्यायालयों को स्वतंत्र कहा जाता है, लेकिन सुप्रीमकोर्ट के तमाम जस्टिसों के अनुसार उन पर प्रेशर डालकर फैसला प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। आखिर न्यायपालिका को स्वतंत्र क्यों रहने नहीं दिया जाता? न्यायालय आजाद होकर ही संविधान का पालन कर सकेंगे। महामहिम राष्ट्रपति के अनुसार जज बनने के लिए परीक्षा की बात कही गई, लेकिन शायद उनका ध्यान इस ओर नहीं जाएगा कि अनपढ़ मंत्रियों के सामने हाथ जोड़े आईएएस परीक्षा उत्तीर्ण होने वाले, डॉक्टर, आईआईटी, पीएचडी जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त कर सेक्रेटरी बनने वाले आईएएस क्यों हाथ बांधे खड़े रहने को बाध्य होते हैं। क्यों नहीं राष्ट्रपति स्वयं सरकार को आदेश देतीं कि चुनाव लड़ने के लिए भी योग्यता सुनिश्चित करने का कानून बनाया जाए? माफियाओं, बलात्कारियों, हत्यारों, लुटेरों को चुनाव लड़ने से रोकने का कानून क्यों नहीं बनने चाहिए? संसद हो या विधानसभाएं, कानून बनाने के लिए प्रस्ताव पर गंभीर बहस होनी चाहिए। अनपढ़ लोग क्या समझेंगे और कैसे बहस करेंगे? संविधान जब लिखा गया था तब भारत में गिनती के उच्च शिक्षित लोग थे। आज तो हर जाति-धर्म में उच्च शिक्षा प्राप्त लोग हैं। उन्हें संविधान की उद्देशिका में वर्णित राजनीतिक न्याय देने के लिए क्यों नहीं मौका दिया जाता? शिक्षित लोग सदन में होंगे तो किसी प्रस्ताव के औचित्य पर गंभीर चर्चा संभव होगी। हाथ उठाने वालों अशिक्षित जनों से कैसे अपेक्षा रखी जा सकती है कि वे सदन में गंभीर बहस का हिस्सा बन सकेंगे? देश में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अपराधों में वृद्धि इसलिए हो रही है कि संसद में 47 प्रतिशत आपराधिक मुकदमों में आरोपी खुद सांसद बन चुके हैं। तो वे अपराध पर अंकुश लगाने और दंडित करने के लिए कठोर सजा वाले कानून को समर्थन देंगे? शिक्षित और सुसभ्य सज्जनों के चुनाव लड़ने का मार्ग, चुनाव में बहुत अधिक खर्च ने बाधा खड़ी कर दी है। देश में एक भी पार्टी ऐसी नहीं जो सज्जनों और शिक्षित लोगों को ही टिकट दे। चूंकि अपराधियों की जीत की गारंटी दो सौ प्रतिशत होती है, इसलिए माफियाओं, डॉन, गुंडे, हत्यारे, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों को टिकट दिया जाता है ताकि धन और बल के आधार पर चुनाव जीतने की संभावना रहे। महामहिम राष्ट्रपति अगर देश में अच्छी व्यवस्था को लेकर चिंतित हैं तो संविधान उन्हें शक्ति देता है कि केंद्र सरकार और संसद को बर्खास्त कर फौजी शासन लागू करें और सेना के अधीन चुनाव आयोग रहकर निष्पक्ष पारदर्शी चुनाव कराए। वोटर लिस्ट में पूरी निष्पक्षता बरती जाए। चुनाव इलेक्ट्रॉनिक तरीके से मोबाइल द्वारा कराए जाने की व्यवस्था हो। चुनाव लड़ने के लिए ईमानदार, सत्यनिष्ठ और सत्यानुशासित लोगों को मौका मिले, इसलिए एसक्यू टेस्ट में साठ प्रतिशत अंक पाना अनिवार्य करें। चंद्रगुप्त मौर्य को सम्राट बनाने वाले आचार्य कौटिल्य जैसा जीवन जीने वाले लोग हों सदन में। सांसदों, विधायकों का चुनाव लड़ने के लिए अपनी समस्त प्रॉपर्टी राष्ट्र को दान करना अनिवार्य बनाया जाए। सांसदों, विधायकों को पारिवारिक गुजारा भत्ता देने की व्यवस्था की जाए। इसके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं। मुफ्तखोरी खत्म करनी होगी। पारिवारिक गुजारा भत्ता, मुफ्तखोरी और अपनी प्रॉपर्टी राष्ट्र को दान करने की अनिवार्यता ही रखकर देख लें कितने असली जनता के सेवक सामने राजनीति करने आते हैं। आज जितने भी सांसद-विधायक हैं, उनमें से शायद ही पांच प्रतिशत लोग ही दोबारा नेता बनकर जनता की सेवा के लिए सामने आएंगे। सवाल मंशा का है। यदि मंशा सही हो तो महामहिम राष्ट्रपति को सामने आना ही पड़ेगा। कहने और करने में बहुत अंतर होता है। डिजिटल चुनाव प्रणाली और डिजिटल काउंटिंग व्यवस्था लागू कर दें तो चुनाव व्यय जीरो हो जाएगा। रोज़ी-रोटी के लिए दूसरे प्रांतों और नगरों में गए लोग भी मोबाइल के माध्यम से वोट दे सकेंगे। तब प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार हेतु स्थानीय रेडियो और न्यूज चैनलों पर वक्त देने की व्यवस्था करनी होगी। फिर संसद, विधानसभा में सज्जन लोग ही प्रतिनिधि होंगे, जो ईमानदारी से देश की प्रगति के लिए कार्य करेंगे।