
मुंबई। बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने गंभीर आपराधिक मामलों में आरोप-पत्र दाखिल करते समय गवाहों के बयानों की नकल करने की प्रवृत्ति को “खतरनाक संस्कृति” करार दिया है और महाराष्ट्र सरकार को इस पर रोक लगाने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने का आदेश दिया है। यह टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान आई, जिसमें पांच आरोपियों ने एक 17 वर्षीय किशोर को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की थी। पीठ ने पाया कि मामले में दाखिल आरोप-पत्र में गवाहों के बयान शब्दश: एक जैसे हैं। न्यायालय ने कहा कि “यहां तक कि पैराग्राफ भी एक ही शब्दों से शुरू होते हैं और एक ही शब्दों पर खत्म होते हैं। न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति संजय देशमुख की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि यदि पुलिस गंभीर अपराधों में भी इस तरह से टालमटोल करती है, तो यह आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए अच्छा संकेत नहीं है। पीठ ने पूछा, क्या वाकई पुलिस ने गवाहों को बुलाकर उनके बयान दर्ज किए हैं? अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में आरोपियों को अनावश्यक लाभ मिल सकता है, जिससे वास्तविक अपराध की गंभीरता कमजोर हो सकती है। हाईकोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल कुलकर्णी को न्यायालय सहायक (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया है और उनसे आग्रह किया है कि वे राज्य सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदमों की जानकारी एकत्र करें तथा भविष्य में इस तरह की स्थितियों से बचने के लिए उपाय सुझाएं। हालांकि कोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से इनकार करते हुए कहा कि यह “एक अत्यंत गंभीर मामला” है और इसकी गहराई से जांच की आवश्यकता है। मामले की अगली सुनवाई 27 जून को निर्धारित की गई है।