
मुंबई। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि वैवाहिक मुकदमेबाजी के दौरान पत्नी द्वारा पति के खिलाफ लगाए गए नपुंसकता जैसे आरोपों को मानहानि नहीं माना जा सकता, यदि वे सद्भावनापूर्वक और कानूनी संरक्षण की दृष्टि से लगाए गए हों। न्यायमूर्ति एस. एम. मोदक की एकलपीठ ने यह निर्णय उस मामले में दिया जिसमें पति ने अपनी पत्नी और उसके परिवार के खिलाफ नपुंसकता जैसे आरोप लगाने पर मानहानि का मामला दायर किया था। पति की ओर से दायर याचिका में कहा गया था कि पत्नी द्वारा पारिवारिक अदालत में दायर तलाक और भरण-पोषण याचिका तथा प्राथमिकी में लगाए गए आरोप उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाले हैं। साथ ही, उसने इस आरोप का खंडन करते हुए बेटे का जन्म प्रमाण पत्र भी साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया था। हालाँकि, न्यायालय ने यह तर्क खारिज कर दिया और कहा कि जब पत्नी वैवाहिक मुकदमेबाजी के दौरान आरोप लगाती है कि पति की नपुंसकता के कारण उसे मानसिक क्रूरता का सामना करना पड़ा, तो यह आरोप वैवाहिक याचिका की दृष्टि से पूरी तरह प्रासंगिक और न्यायसंगत है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस सुनवाई का उद्देश्य न तो नपुंसकता के आरोप की सच्चाई का निर्धारण करना है और न ही पति की यौन क्षमता पर कोई निर्णय देना, बल्कि यह देखना है कि आरोप सद्भावनापूर्वक लगाए गए थे या दुर्भावनावश।
आईपीसी की धारा 499 के नौवें अपवाद का हवाला
न्यायाधीश मोदक ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के नौवें अपवाद का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई बयान किसी व्यक्ति के अपने कानूनी हित की रक्षा के लिए दिया गया हो और वह सद्भावना से प्रेरित हो, तो वह मानहानि नहीं मानी जाती। उन्होंने यह भी कहा कि नपुंसकता जैसे आरोप, जब वैवाहिक मुकदमों के कानूनी दस्तावेजों में लगाए जाएं, तो वे अभियोजन की रक्षा के लिए प्रासंगिक होते हैं।
सत्र न्यायालय के आदेश को किया निरस्त
यह मामला तब न्यायालय में आया जब पत्नी, उसके पिता और भाई ने अप्रैल 2024 में सत्र न्यायालय द्वारा मजिस्ट्रेट को दिए गए उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें पति की मानहानि शिकायत पर पुनर्विचार का निर्देश दिया गया था। मजिस्ट्रेट ने पहले अप्रैल 2023 में उक्त शिकायत यह कहकर खारिज कर दी थी कि विवादित आरोप तलाक की प्रक्रिया के संदर्भ में दिए गए थे और वे वैवाहिक विवाद से जुड़े मुद्दे थे। इस फैसले को वैवाहिक मुकदमों में लगाए जाने वाले आरोपों की प्रकृति और कानूनी मान्यताओं के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में देखा जा रहा है। यह निर्णय न्यायिक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है कि विवाह जैसे निजी संबंधों में उत्पन्न विवादों में लगाए गए आरोपों का मूल्यांकन उनके कानूनी प्रासंगिकता, सद्भावना और उद्देश्य की कसौटी पर किया जाना चाहिए न कि सामाजिक प्रभाव की आशंका पर।