
इंद्र यादव
संभल, उत्तर प्रदेश। संभल से सामने आई यह घटना किसी अपराध कथा से कम नहीं, बल्कि हमारे समय के सामाजिक और नैतिक पतन का भयावह दस्तावेज़ है। जिस पत्नी को भारतीय परंपरा में जीवन-सहचरी और परिवार की रक्षक माना जाता है, उसी ने अवैध संबंधों के जाल में फँसकर अपने पति की न सिर्फ हत्या की, बल्कि उसके शव के टुकड़े कर दिए। इस जघन्य अपराध का सबसे मार्मिक और रूह कंपा देने वाला पहलू है। दस साल की मासूम बेटी की वह गवाही, जिसने पूरे सच से परदा उठा दिया। प्रारंभिक जांच के अनुसार, कारोबारी राहुल की हत्या सोते समय हथौड़े से सिर पर वार कर की गई। इसके बाद शव को बिजली के ग्राइंडर से काटकर ठिकाने लगाने की कोशिश की गई। यह कृत्य किसी क्षणिक उन्माद का नहीं, बल्कि सुनियोजित और ठंडे दिमाग से रची गई साजिश का परिणाम प्रतीत होता है। पुलिस को मिले साक्ष्य बताते हैं कि आरोपियों ने सीसीटीवी से बचने के लिए पहले रास्तों की रेकी की, खून के निशान साफ किए और कई दिनों तक ‘शोकग्रस्त पत्नी’ का नाटक चलता रहा। इस पूरे मामले में सबसे भयावह तथ्य यह है कि अपराध की प्रक्रिया में एक मासूम बच्ची को भी मानसिक रूप से शामिल किया गया। उसे चॉकलेट का लालच देकर यह यकीन दिलाने की कोशिश की गई कि ‘पापा रास्ते से हट जाएंगे।’ जिस उम्र में बच्चों को सुरक्षा, संवेदना और नैतिकता का पाठ मिलना चाहिए, उसी उम्र में वह अपने पिता की हत्या की गवाह बन गई। यह सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि बचपन और ममता—दोनों की निर्मम हत्या है। पुलिस सूत्रों के मुताबिक, जांच में एक घरेलू ग्राइंडर और आरोपी के हाथ पर बने टैटू जैसे छोटे लेकिन निर्णायक सुरागों ने पूरे अपराध को बेनकाब कर दिया। जिन औज़ारों से अपराध को छिपाने की कोशिश की गई, वही अंततः अपराधियों के खिलाफ सबसे बड़े सबूत बन गए। यह घटना समाज के उस गिरते हुए ग्राफ की ओर इशारा करती है, जहाँ ‘स्वतंत्रता’, ‘अफेयर’ और ‘लिव-इन’ जैसे शब्दों की आड़ में जिम्मेदारियों और नैतिक सीमाओं को तिलांजलि दी जा रही है। जब वासना विवेक पर हावी हो जाती है, तो घर- परिवार का सबसे सुरक्षित स्थान- अपराध स्थल में बदल जाता है। आज सबसे बड़ा प्रश्न उन दो बच्चों के भविष्य को लेकर है, जिनके पिता की नृशंस हत्या हो चुकी है और माँ जेल में है। कानून अपना काम करेगा, लेकिन जो मानसिक और भावनात्मक क्षति हुई है, उसकी भरपाई संभव नहीं। संभल की यह घटना चेतावनी है—यदि समाज ने अपने नैतिक मूल्यों, पारिवारिक संवाद और जिम्मेदारियों को गंभीरता से नहीं लिया, तो विश्वास की ऐसी ही हत्याएँ दोहराई जाती रहेंगी। मासूम बेटी की यह पीड़ा कि ‘मेरी माँ को फाँसी हो’—किसी एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आत्ममंथन का क्षण है। न्याय की प्रतीक्षा है, ताकि विश्वास के और टुकड़े न हों।



