Tuesday, December 23, 2025
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गुरु द्रोणाचार्य की तपोभूमि देहरादून का टपकेश्वर महादेव

रमाकान्त पन्त
देवभूमि उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून केवल प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए ही नहीं, बल्कि अपने विराट पौराणिक वैभव के लिए भी जगत विख्यात है। यही वह पावन धरा है जिसे पुराणों में द्रोणाश्रम के नाम से स्मरण किया गया है, महाभारतकालीन महान गुरु, कौरवों और पाण्डवों के आचार्य, महर्षि भारद्वाज के तेजस्वी पुत्र गुरु द्रोणाचार्य की तपोभूमि। देहरादून स्थित टपकेश्वर महादेव मंदिर सदियों से आस्था, तपस्या और शिवभक्ति का अलौकिक केन्द्र रहा है। यह वही भूमि है जहाँ गुरु द्रोणाचार्य ने भगवान शिव की घोर आराधना कर धनुर्वेद का दिव्य ज्ञान प्राप्त किया और महायोद्धा के रूप में ख्याति प्राप्त की।
पुराणों में वर्णित द्रोणाश्रम की महिमा
स्कंदपुराण में द्रोणाश्रम का विस्तृत और दिव्य वर्णन मिलता है। शिवपुत्र कार्तिकेय (स्कंद) देवर्षि नारद को द्रोणक्षेत्र की महिमा बताते हुए कहते हैं कि यह क्षेत्र मायाक्षेत्र से पश्चिम यमुना तक तीन योजन चौड़ा और आठ योजन लम्बा है। इसके दर्शन मात्र से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। देहरादून की यह पवित्र घाटी गुरु द्रोणाचार्य की तपोभूमि के कारण ही जगत में विख्यात हुई। स्कंदपुराण में इस क्षेत्र को देवधाराचल कहा गया है एक ऐसा स्थान जहाँ देवताओं की धाराएँ प्रवाहित होती हैं।
बारह वर्षों की तपस्या और शिव साक्षात्कार
गुरु द्रोणाचार्य ने इसी देवधाराचल क्षेत्र में बारह वर्षों तक निराहार रहकर शिवमंत्रों का जप किया। इन्द्रियों, परिग्रहों और शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर वे तपस्या में लीन रहे। उनकी घोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने विप्रवेश धारण कर देवधार पर्वत पर उन्हें दर्शन दिए, जहाँ से पौराणिक देवजन्या नदी का उद्गम हुआ। भगवान शिव को पहचानकर गुरु द्रोणाचार्य ने भावविभोर होकर जो स्तुति की, वह आज “द्रोण की शिव वंदना” के नाम से प्रसिद्ध है
निराकाराय शुद्धाय निर्द्वन्द्वाय दयावते।
निरीहाय समीहाय निर्गुणाय गुणाकृते।।
इस अनुपम स्तुति से प्रसन्न होकर महादेव ने द्रोणाचार्य को वर माँगने को कहा। द्रोण ने विनम्रतापूर्वक धनुर्वेद के ज्ञान की कामना की। शिवकृपा से वे महान धनुर्धर बने और तब भगवान शिव ने वरदान दिया कि यह भूमि द्रोण के नाम से युगों-युगों तक प्रसिद्ध होगी।
धनुर्वेद का दिव्य केन्द्र
स्कंदपुराण के केदारखण्ड में वर्णित है कि धनुर्वेद के श्रवण मात्र से पापों का नाश हो जाता है। इस वेद की रचना ब्रह्मा जी ने की और इसके चार पद रथ, हाथी, घोड़ा और पदाति, युद्ध विद्या के आधार बने। ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, वायव्यास्त्र, आग्नेयास्त्र सहित अनेक दिव्य अस्त्रों का रहस्य गुरु द्रोणाचार्य ने इसी भूमि पर प्राप्त किया। मंत्रमुक्त, कर्ममुक्त, बाहुयुद्ध, मल्लयुद्ध और धनुर्वेद की समस्त विधाएँ द्रोणनगरी की तपस्या से ही विकसित हुईं।
तीर्थ, नदियाँ और दिव्य कथाएँ
द्रोणाश्रम क्षेत्र में देवजन्या नदी, धेनुगंगा, चन्द्रवती नदी, पुष्पेश्वर महादेव, जबालीश्वर, नागेश्वर, नानाचल तीर्थ, चन्द्रेश्वर जैसे अनेक पवित्र स्थल वर्णित हैं। पुराणों के अनुसार यहाँ स्नान का फल अश्वमेध यज्ञ के समान है।
बालखिल्य मुनियों का यज्ञ, गरुड़ की उत्पत्ति, गणकुजर पर्वत पर भैरव का वास ये सभी प्रसंग इस क्षेत्र की दिव्यता को और भी विराट बनाते हैं।
टपकेश्वर महादेव: प्रकृति द्वारा स्वयं किया गया अभिषेक
देहरादून शहर से लगभग पाँच किलोमीटर दूर, सेना की गढ़ी छावनी क्षेत्र में स्थित टपकेश्वर महादेव मंदिर एक प्राकृतिक गुफा मंदिर है। गुफा की छत से शिवलिंग पर निरंतर टपकता जल ही इस मंदिर को टपकेश्वर नाम प्रदान करता है। यहाँ दो शिवलिंग विराजमान हैं और मान्यता है कि अश्वत्थामा का जन्म भी इसी गुफा में हुआ था। सावन मास और महाशिवरात्रि पर यहाँ श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ती है।
आस्था, इतिहास और अध्यात्म का संगम
द्रोणाचार्य की तपोभूमि होने के कारण देहरादून महाभारतकाल से ही विशेष महत्व रखता है। आज भी टपकेश्वर महादेव में दर्शन मात्र से भक्त स्वयं को द्रोणाश्रम की उसी दिव्य चेतना से जुड़ा अनुभव करता है। देवभूमि उत्तराखण्ड का यह पावन स्थल न केवल पर्यटन का केन्द्र है, बल्कि भारतीय सनातन परंपरा, शिवभक्ति और धनुर्वेद की अमर विरासत का सजीव प्रमाण भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि टपकेश्वर महादेव में आज भी शिव की कृपा टपकती है।

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