
अंजनी सक्सेना
भगवान आशुतोष शशांक शेखर हिमालय पर्वत पर अनेक स्थानों पर एवं विभिन्न देवालयों में विराजमान हैं। हिमालय पर उत्तराखंड में चार धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ (बद्रीनारायण या बद्रीविशाल) गंगोत्री व यमुनोत्री प्रतिष्ठित हैं। इन सबके कपाट लगभग एक ही समय में खुलते व बंद होते हैं। केदारनाथ अपने संपूर्ण स्वरुप में पंच केदार कहे जाते हैं जो हिमाचल पर्वत पर अलग अलग स्थानों पर स्थापित हैं। इन्हीं पंच केदार में से एक हैं मदमहेश्वर या मध्यमहेश्वर। हिन्दू पंचाग के अनुसार वैशाख से कार्तिक तक यहां के मंदिर श्रद्धालुओं के दर्शनों के लिए खुले रहते हैं। केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मदमहेश्वर और कल्पेश्वर, ये पंच केदार माने जाते हैं। जिनके दर्शन के लिए यात्रा भी इसी क्रम से की जाती है। हिमालय पर्वत की कठिन राह पर जो पैदल चलने में सक्षम होते हैं,वे ही इनके दर्शन कर पाते हैं। मदमहेश्वर मंदिर समुद्र तल से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह रांसी गांव से लगभग 20 किमी दूर है। उखीमठ से रांसी लगभग 30 किमी है। उखीमठ में उस ओंकारेश्वर मंदिर के दर्शन होते हैं, जहां शीतकाल में भगवान केदारनाथ की प्रतिमा पूजा के लिए रखी जाती है। सभी केदार स्थान वास्तव में भगवान महादेव शिव के बैल स्वरूप की पीठ के पूजन-स्थल है। बैल (नंदी) के शरीर पर गर्दन के बाद और पीठ के पहले जो संरचना बनती है वह शिवलिंग की तरह होती है, यहां इसी को शिव का प्रतीक रूप माना गया है। शिव का वाहन नंदी है। केदार का अर्थ ही शिव के बैल स्वरूप की पीठ है। महाभारत में पाण्डवों ने कौरवों एवं द्रोणाचार्य, कृपाचार्य सहित अनेक ब्राह्मणों का वध कर दिया था, फलस्वरूप उन्हें ‘ब्रह्महत्या’ का दोष लगा, जब इससे मुक्त हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं, जानकर इसके निवारण की राह उन्होंने योगीराज श्रीकृष्ण ने जाननी चाही तो उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा, तब वे हिमालय गए परंतु शिव पाण्डवों से कुपित थे। अतः उन्हें दर्शन देना नहीं चाहते थे। इसलिए वे अपने निर्धारित स्थानों से छिपकर अपना स्वरूप नंदी का बनाकर ‘गुप्तकाशी’ क्षेत्र में विचरण करने लगे परंतु आस्था,श्रद्धा व भक्ति के साथ उनकी खोज में लगे पाण्डवों को उनका स्थान ज्ञात हो गया और उन्होंने नंदी स्वरूप में केदार (शिवलिंग) के उठान को देखकर उन्हें पहचान लिया। तब शिव वहीं पर्वत श्रृंखला में पृथ्वी में समाने लगे। पाण्डव भीम ने उन्हें पूरी शक्ति से पकड़ना चाहा और अन्ततः पूंछ भी उसके हाथों से सरक गई। तब पाण्डवों की विनती पर शिव ने अपने शरीर के पांच अंगों को पांच स्थान पर प्रकट कर उन्हें इसका ज्ञान कराया। उत्तराखंड के पांच स्थानों पर शिव वास्तविक रूप में प्रकट हुए, तब पाण्डव इन पंच केदार स्थानों पर पहुंचकर और उनकी आराधना कर दोषमुक्त हुए। भगवान शिव ने अपना जो स्वरूप पांडवों को दिखाया उसके अनुसार उनका धड़ केदारनाथ में, भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, मध्यमभाग यानी नाभि और उदर मदमहेश्वर (मध्यमहेश्वर) में तथा जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुई थीं। पाण्डवों ने इन पांचों स्थान पर भगवान शंकर के मंदिर बनवाए और यहां पूजा-आराधना कर मोक्ष का अपना मार्ग प्राप्त किया। मदमहेश्वर की समुद्र तट से 3500 मीटर की ऊंचाई पर है। मदमहेश्वर मंदिर के भीतर श्रीविग्रह साकार स्वरूप में है। काले प्रस्तर की एक ही शिला को तराशकर उसमें पृष्ठ भाग व सामने भगवान शिव व पार्वती विराजित किए गए हैं। शिव बैठे हुए विशेष मुद्रा में हैं, जिनकी बायीं जंघा पर पार्वती विराजमान है और दोनों एक-दूसरे को देख रहे हैं। दोनों के मस्तक पर मुकुट शोभायमान है। पार्वती जी के शरीर पर वस्त्र व अलंकरण है। वहीं शिव मात्र कोपीनधारी हैं, मस्तक पर चंद्रमा व गंगा है, गले में सर्प है। एक ओर त्रिशूल भी शोभायमान है, नीचे भी संरचनाएं हैं तथा हाथों में डमरू व अन्य अस्त्र भी हैं। छवि बड़ी ही मनमोहक है। यहां शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है। इस मदमहेश्वर मंदिर से लगभग 3 किमी दूर और समुद्र तट से लगभग 3700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, ‘बूढ़ा मदमहेश्वर मंदिर’ जहां तक लोग सारी कठिनाई झेलकर भी जाना चाहते हैं।