
मनोज कुमार अग्रवाल
देश के अधिकांश हिस्सों में हिन्दू समाज के कुछ वर्गों खासकर एलीट और सम्पन्न समझे जाने वाले लोगों द्वारा विवाह आयोजन में जिस तरह का वैभव प्रदर्शन किया जा रहा है उन सबके बीच विवाह का संस्कार यानि परंपरागत सप्तपदी के फेरे की रस्में गौण बनती जा रही है। जबकि सबसे महत्वपूर्ण अग्नि के समक्ष वर वधू के फेरे और जन्म जन्मांतर साथ निभाने के वचन ही हैं जिनके लिए यह सारा समारोह आयोजित किया जाता है। इन दिनों दक्षिण में विवाह की रस्म कराते कर्म कांडी पुरोहित के साथ अभद्र मजाक बनाने का विडियो वायरल हुआ। यह वायरल वीडियो तो सिर्फ आइना है वास्तव में कुछ लोग विवाह के संस्कार को बहुत हल्के और बेहद गैर गंभीर तरीके से लेने लगे हैं। उनका सारा जोर ही डांस और पार्टी हल्ला-गुल्ला पर रहने लगा है। इतना ही नहीं वरमाला पर वर वधू का आचरण भी विवाह संस्कार की मर्यादा का हनन ही है। हाल ही में देश की शीर्ष अदालत को यदि विवाह जैसे बेहद व्यक्तिगत मामले में परामर्श देना पड़ा है, तो इसका साफ संदेश यही है कि इसके मूल स्वरूप से तेजी से खिलवाड़ हुआ है। कोर्ट को सख्त लहजे में यहां तक कहना पड़ा कि विवाह यदि सप्तपदी यानी फेरे जैसे उचित संस्कार और जरूरी समारोह के बिना होता है तो वह अमान्य ही होगा। निश्चित रूप से अदालत ने यह बताने का प्रयास किया कि इन जरूरी परंपराओं के निर्वहन से ही विवाह की पवित्रता और कानूनी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। दरअसल, पिछले कुछ सालों में लिव-इन का प्रचलन विवाह संस्था के वजूद को हिला रहा है बिन फेरे हम तेरे के चलन ने तमाम सामाजिक वर्जनाओं के ताने बाने को तहस नहस कर दिया है। तिस पर विवाह से पूर्व प्री वेडिंग शूट के नए प्रचलन ने तमाम संस्कार और मर्यादा मान्यताओं का बेड़ा गर्क कर दिया है। हाल के वर्षों में विवाह समारोहों के आयोजन में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन व तमाम तरह के आडंबरों को तो प्राथमिकता दी जा रही है, लेकिन परंपरागत हिंदू विवाह के तौर-तरीकों को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। आज से कुछ दशक पूर्व हिंदी फिल्मों में हास्य पैदा करने के लिये विवाह से जुड़ी परंपराओं का जिस तरह का मजाक बनाया जाता था, आज कमोबेश वैसी स्थिति समाज में भी बनती जा रही है। वर-वधू द्वारा अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय को शुरू करने के वक्त विवाह के आयोजन में जो शालीनता, गरिमा व पवित्रता होनी चाहिए, उसे खारिज करने की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं। यही वजह है कि अदालत को याद दिलाना पड़ा कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत विवाह की कानूनी जरूरतों तथा पवित्रता को गंभीरता से लेने की जरूरत है। जिसके लिये पवित्र अग्नि के चारों ओर लगाये जाने वाले सात फेरे जैसे संस्कारों व सामाजिक समारोह से ही विवाह को मान्यता मिल सकती है। निश्चित रूप से आज विवाह संस्कार की गरिमा को प्रतिष्ठा दिये जाने की जरूरत है। यानी विवाह सिर्फ प्रदर्शन नहीं है। विवाह मजबूरी का समझौता या करार भी नहीं हो सकता। निश्चित रूप से भारतीय जीवन पद्धति में विवाह महज महत्वपूर्ण संस्कार ही नहीं है बल्कि नवदंपति के जीवन के नये अध्याय की शुरुआत भी है। जिसे हमारे पूर्वजों ने बेहद गरिमा व सम्मान के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया है। आज हम भले ही कितने आधुनिक हो जाएं, विवाह से जुड़ी अपरिहार्य परंपराओं को नजरअंदाज कदापि नहीं कर सकते। सनातन वैदिक परम्परा में विवाह को एक बहुत पवित्र संस्कार माना गया है इस संस्कार के समय वर को विष्णु और वधू को साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। इस संस्कार में विष्णु स्वरूप को एक पिता आदर भाव से पूजा कर उसे लक्ष्मी स्वरूप कन्या सौंपता है। इतना ही नहीं दूसरे धर्मावलंबियों की तरह हिन्दू समाज में विवाह एक समझौता नहीं है वरन जन्म जन्मांतर तक साथ निभाने का वचन है। हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह = वि + वाह,है। इसका शाब्दिक अर्थ
है वहन करना यानि विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना । पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे ले कर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया है। निश्चित रूप से विवाह को औपचारिक रूप से मान्यता देने के लिये पंजीकरण आदि के उपाय इस रिश्ते को अपेक्षित गरिमा देने में विफल ही रहे हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत में न्यायाधीश को कहना पड़ा कि सात फेरों का अर्थ समझे बिना हिंदू विवाह की गरिमा को नहीं समझा जा सकता। यह भी कि हिंदू विवाह सिर्फ नाचने-गाने तथा पार्टीबाजी की ही चीज नहीं है, यह एक गरिमामय संस्कार है। उसके लिये सामाजिक भागीदारी वाला जरूरी विवाह समारोह भी होना चाहिए। यानी महज पंजीकरण से विवाह की वैधता पर मोहर नहीं लग जाती। निस्संदेह, निष्कर्ष यही है कि पैसा पानी की तरह बहाकर तमाम तरह के आडंबरों को आयोजित करने के बजाय विवाह के मर्म को समझना होगा। इसके बावजूद देशकाल व परिस्थितियों के अनुरूप विवाह पंजीकरण की जरूरत को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हमें यह भी स्वीकारना होगा कि 21वीं सदी का भारतीय समाज बदलते वक्त के साथ नई चाल में ढला है। नई पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं और अपनी शर्तों पर विवाह की परंपराओं को निभाने की बात करती हैं। जिसके चलते विवाह संस्था को लेकर कई अदालतों के फैसले सामने आए हैं, जिनकी तार्किकता को लेकर समाज में बहस चलती रहती है। जिसमें कई कर्मकांडों पर नये सिरे से विचार-विमर्श की जरूरत बतायी जाती रही है। मसलन कुछ कथित प्रगतिशील लोग कन्यादान व सिंदूर लगाने की अनिवार्यता को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद हमें न्यायालय की चिंताओं पर चिंतन तो करना ही चाहिए। यह सवाल रूढ़िवादिता का नहीं है बल्कि अपनी परंपराओं के गरिमापूर्ण पालन का है। दुनिया के तमाम धर्मों में सदियों से चली आ रही वैवाहिक परंपराओं का आदर के साथ अनुपालन किया जाता है। यह हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित रीति-रिवाजों का सम्मान करने जैसा ही होता है। जो नया जीवन शुरू करने वाले वर-वधू को एक आशीष जैसा ही होता है। जाहिर है कि प्रगति का पैमाना संस्कृति और संस्कारों के साथ खिलवाड़ या फूहड़ता दर्शाना नहीं होता है। हमें अपने संस्कारों की पवित्रता बनाए रखने के लिए अपने व्यवहार में आ रही मर्यादा हीनता को त्यागना होगा। (विनायक फीचर्स)