Monday, September 8, 2025
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राजनीति को स्वच्छ बनाने का साहस कौन दिखाएगा ?

मनोज कुमार अग्रवाल
एक ताजा रिपोर्ट ने भारतीय राजनीति की हकीकत को बेपर्दा कर दिया है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश के 643 मंत्रियों में से 302 (47 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले लगे होने की घोषिणा की हैं। इनमें से 174 मंत्री गंभीर अपराधों जैसे हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध में आरोपित हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की बात लंबे अरसे से हो रही है। चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट के तमाम प्रयासों के बावजूद देश की राजनीति में अपराधीकरण कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि राजनीति में अपराधी तत्वों की घुसपैठ कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन जिस पैमाने पर यह बढ़ा है, वह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की ताज़ा रिपोर्ट इस सच्चाई को बयान करती है कि देश के लगभग आधे मंत्री ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर मामले भी शामिल हैं। अब सवाल यह आता है कि जब कानून बनाने और उसे लागू कराने वाले ही दागी होंगे तो क्या वे सचमुच न्याय और निष्पक्ष शासन की रक्षा कर पाएंगे? एडीआर के एक विश्लेषण के अनुसार देश के लगभग 47 प्रतिशत मंत्रियों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज होने की घोषणा की है, जिनमें हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आरोप शामिल हैं। यह रिपोर्ट केंद्र सरकार द्वारा उन तीन विधेयकों को संसद में पेश किए जाने के कुछ दिन बाद आई है, जिनमें गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तारी के बाद 30 दिन तक हिरासत में रहने पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को पद से हटाने का प्रावधान है। हाल ही में एडीआर ने 27 राज्य विधानसभाओं, तीन केंद्रशासित प्रदेशों और केंद्रीय मंत्रिपरिषद के 643 मंत्रियों के हलफनामों का अध्ययन किया और पाया कि 302 मंत्रियों, यानी कुल मंत्रियों के 47 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन 302 मंत्रियों में से 174 पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। विश्लेषण के अनुसार भाजपा के 336 मंत्रियों में से 136 यानी 40 प्रतिशत ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज होने की घोषणा की है और 88 यानी 26 प्रतिशत पर गंभीर आरोप हैं। कांग्रेस शासित चार राज्यों में पार्टी के 45 मंत्रियों यानी 74 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 18 यानी 30 प्रतिशत के खिलाफ गंभीर अपराध दर्ज हैं। द्रमुक के 31 मंत्रियों में से 27 यानी लगभग 87 प्रतिशत पर आपराधिक आरोप हैं, जबकि 14 यानी 45 प्रतिशत पर गंभीर मामले दर्ज हैं। तृणमूल कांग्रेस के भी 40 में से 13 मंत्रियों यानी 33 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 8 वानी 20 प्रतिशत पर गंभीर आरोप हैं। तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) का अनुपात सबसे ज्यादा है, जिसके 23 में से 22 मंत्रियों यानी 96 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं और 13 यानी 57 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आप के 16 में से 11 यानी 69 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि पांच यानी 31 प्रतिशत पर गंभीर मामले दर्ज हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 72 केंद्रीय मंत्रियों में से 29 यानी 40 प्रतिशत ने अपने हलफनामों में आपराधिक मामले घोषित किए हैं। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और पुडुचेरी में 60 प्रतिशत से ज्यादा मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके विपरीत हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, नागालैंड और उत्तराखंड के मंत्रियों ने अपने खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं होने की सूचना दी है। देखा जाए तो सभी पार्टियों में दागी नेता है, जबकि देश के सभी दल अपराध मुक्त राजनीति की बात करते हैं। आंकड़ों को देखने के बाद साफ है कि हिंदुस्तान की सियासत आज जिस रास्ते पर चल रही है वह भ्रष्टाचार और अपराध से लबालब है। चुनाव में बढ़ता धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खा रहा है। जब कानून के निर्माता और रखवाले ही अपराध में सने होंगे तो उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि लोकतंत्र को स्वस्थ रख सकेंगे। पहले तो बिहार और उत्तर प्रदेश को ही आपराधिक राजनीति का गढ़ कहा जाता था, लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से सभी राज्यों में ऐसी प्रवृत्ति के नेताओं की संख्या में इजाफा हुआ है। आज नेताओं का उद्देश्य चुनाव जीतकर देश सेवा करना नहीं, बल्कि सत्ता हासिल कर हुकूमत करना है। कालेजियम व्यवस्था के रहते हमारी न्यायपालिका को भी पूर्ण पवित्र नहीं कहा जा सकता है। राजनीति का अपराधीकरण केवल संसद और विधानसभाओं को ही प्रभावित नहीं करता, वरन समाज और लोकतंत्र की जड़ें खोखली कर देता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि राजनीतिक पार्टियों के द्वारा चुनाव जीतने के लिए दागी उम्मीदवारों को टिकट देने में कोई परहेज नहीं किया जाता है। ‘हमाम में सभी नंगे हैं’ की तर्ज पर सभी राजनीतिक पार्टियों की गोद में ऐसे अनेक नेताओं की किलकारियां गूंजती हैं, जो अपराध में आकंठ डूबे हैं। चुनावों में अपराधीकरण बढ़ने का बड़ा कारण चुनावी व्यवस्था की खामियां हैं। चुनाव लड़ने के लिए अपार धन की जरूरत होती है, और यही धनबल राजनीति में अपराधियों के लिए रास्ता खोल देता है। अपराध से अर्जित धन चुनावी मैदान में खर्च होता है और उसके बदले सत्ता का संरक्षण अपराधियों को मिलता है। बाहुबल और धनबल के सहारे चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधि जनता के प्रति कम और अपने अपराधी गिरोह के प्रति ज्यादा जवाबदेह हो जाते हैं। हालांकि इस दिशा में पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की तरफ से कई कदम उठाए गए हैं, इनके भी हाथ बंधे हुए हैं। शीर्ष न्यायालय बार-बार कह चुका है कि गंभीर आपराधिक मामलों में फंसे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक दल वोट बैंक की मजबूरी में ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देने से बाज नहीं आते हैं। राजनीति में अपराध को रोकने के लिए निर्वाचन आयोग को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि वह ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव मैदान से बाहर कर सके। साथ ही चुनावी खर्च की सीमा का कड़ाई से पालन और पारदर्शी फंडिंग व्यवस्था भी जरूरी है। कानून से ज्यादा जरूरी है राजनीतिक दलों का आत्मसंयम और नैतिकता। यदि दल अपराधियों को टिकट न दें तो यह समस्या स्वतः कम हो जाएगी। लेकिन आज की राजनीति में सत्ता की लालसा इतनी प्रबल है कि दल अपराधियों को भी सिर-आंखों पर बिठाने से हिचकते नहीं। जब तक दल खुद यह संकल्प नहीं लेंगे कि वे स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को ही आगे बढ़ाएंगे, तब तक लोकतंत्र में शुचिता की उम्मीद करना व्यर्थ है। भारत का लोकतंत्र विश्व के लिए आदर्श माना जाता है, लेकिन यह तभी टिकेगा जब इसकी जड़ें मजबूत हों। अपराधीकरण और भ्रष्टाचार लोकतंत्र की नींव को खोखला कर रहे हैं। यदि आज ठोस कदम नहीं उठाए गए तो कल जनता का भरोसा इस व्यवस्था से पूरी तरह उठ जाएगा। लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का नाम नहीं है, बल्कि यह जनता के प्रति जवाबदेही, पारदर्शिता और नैतिकता का प्रतीक है। राजनीति से अपराधियों की सफाई ही लोकतंत्र को बचाने का सबसे बड़ा उपाय है। सवाल है कि क्या हमारे राजनीतिक दल और नेता इस सच्चाई को स्वीकार कर अपनी राजनीति को स्वच्छ बनाने का साहस दिखाएंगे, ऐसा तत्काल तो संभव नहीं दिख रहा है। ऐसे में राजनीति से अपराधीकरण को मुक्त करने की बात सिर्फ छलावा है।

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