Monday, December 15, 2025
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सरकार का गुलाम! एक शराबी लोकतंत्र की कहानी!

लेखक- इंद्र यादव

भारत का लोकतंत्र! वह महान प्रणाली जहां हर नागरिक स्वतंत्र है– स्वतंत्र रूप से टैक्स भरने के लिए, स्वतंत्र रूप से कतारों में लगने के लिए, और सबसे महत्वपूर्ण, स्वतंत्र रूप से सरकार की दया पर जीने के लिए। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस लोकतंत्र में नागरिक क्या है! एक वोटर! एक करदाता! नहीं, जी नहीं। वह तो महज एक गुलाम है– सरकार का प्यारा, आज्ञाकारी गुलाम, जो हर सुबह उठकर सोचता है, “आज सरकार मुझे किस नए तरीके से लूटेगी! और शाम तक उसका जवाब मिल जाता है, शराब के बहाने! सरकार, वह दयालु मां-बाप की तरह, पहले तो शराब की दुकानें खोलती है। “पीयो बेटा, पीयो!” कहकर वह सरकारी ठेके पर शराब बेचती है। राजस्व आता है, अर्थव्यवस्था चमकती है, और मंत्री जी की जेबें भरती हैं। जनता, वह बेचारी मासूम जनता, जो सुबह से शाम तक मेहनत करती है, थककर घर लौटती है और सोचती है, “एक घूंट पी लूं, जीवन की थकान मिट जाएगी। वह पैसा जोड़कर शराब खरीदती है– वही पैसा जो टैक्स से आता है, जो सरकार को पहले ही मिल चुका है। यह तो दोहरा लाभ है! सरकार बेचती है, जनता खरीदती है, और सब खुश। लेकिन रुकिए, कहानी यहां खत्म नहीं होती।
अब आता है असली मोड़– जो इस लोकतंत्र को “लोक” से “लूट” में बदल देता है। जनता पीती है, और कभी-कभी ज्यादा पी लेती है। तब क्या! सरकार का पुलिस वाला भाई आता है, गाड़ी रोकता है, और कहता है, “भाई साहब, शराब पीकर गाड़ी चला रहे हो! फाइन! हजारों रुपये!” जनता सोचती है, “अरे, लेकिन शराब तो तुम्हारी सरकार ने बेची थी! मैंने तो बस खरीदी थी।” लेकिन सरकार मुस्कुराती है, “हां, बेची तो मैंने, लेकिन पीने का जिम्मा तुम्हारा। अब फाइन दो, ताकि मैं और शराब बेच सकूं।” यह चक्र है – बेचो, खरीदो, पीयो, पकड़ो, फाइन मारो। और इस चक्र में फंसकर जनता घूमती रहती है, जैसे कोई चूहा पहिए पर।
गहराई से देखें तो यह सिर्फ शराब की बात नहीं है। यह उस बड़े सिस्टम की कहानी है जहां नागरिक सरकार का गुलाम है। सरकार रोड बनाती है, टोल वसूलती है! अस्पताल बनाती है, दवा महंगी बेचती है! शिक्षा देती है, फिर नौकरी नहीं देती। जनता हर कदम पर लुटती है, और ऊपर से सुनती है, “यह सब तुम्हारे भले के लिए है।” भले के लिए! हां, सरकार के भले के लिए! जनता को तो आज तक यह समझ नहीं आया कि “मैं हूं कौन! वह सोचती है, “क्या मैं वोटर हूं! करदाता हूं! या बस एक एटीएम हूं, जो सरकार जब चाहे निकाल ले!” फिलॉसफरों ने कहा था, मैं सोचता हूं, इसलिए हूं। लेकिन यहां जनता सोचती है, “मैं टैक्स भरता हूं, इसलिए हूं।” और सरकार कहती है, “तुम हो, ताकि मैं तुम्हें लूट सकूं। यह गुलामी स्वैच्छिक लगती है। चुनाव आते हैं, जनता वोट डालती है, नई सरकार चुनती है – लेकिन सिस्टम वही रहता है। पुरानी सरकार जाती है, नई आती है, और शराब की दुकानें और बढ़ जाती हैं। फाइन और ऊंचे हो जाते हैं। जनता फिर पीती है, भूलने के लिए। लेकिन भूलती नहीं, बस सहती है। क्योंकि अगर वह पूछे, “मैं हूं कौन!” तो जवाब मिलेगा, “तुम सरकार के गुलाम हो, और हमेशा रहोगे। तो, प्रिय पिनें वाले माताओं, बहनों, बापाओं, भाइयों, अगली बार जब आप शराब की बोतल उठाएं, तो सोचिए– यह सिर्फ शराब नहीं, सरकार का जहर है। पीजिए, लेकिन याद रखिए! फाइन तैयार रखना। क्योंकि लोकतंत्र में स्वतंत्रता मुफ्त नहीं आती– उसका फाइन हजारों में है!

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