
डॉ.गिरिजा किशोर पाठक
1954 में एक पिक्चर आयी थी -आर-पार। उसमें मजरुह सुल्तानपुरी का लिखा एक गीत गीता दत्त ने गाया था।
“बाबूजी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना
हाँ बड़े धोखे हैं, बड़े धोखे हैं इस राह में “!!!
भारत चीन के बीच पिछले 8 दशकों से चले आ रहे सम्बन्धों पर विशेष रूप से भारत के लिए इस गाने को उद्धरित करना बहुत सटीक है। भारत दुनियाँ का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। तकनीकी दृष्टि से भारत के संबन्ध अमेरिका तथा पश्चिम के मजबूत लोकतांत्रिक देशों के ज्यादा मजबूत होने चाहिए। जबकि चीन, रुस, में भारत जैसा लोकतंत्र नहीं है। एक क्लोज सोसाइटी है। कठिन समय में गुटनिरपेक्ष देश होने के वावजूद अमेरिका चीन नहीं अपितु सोवियत संघ भारत के साथ खड़ा रहा लेकिन 30 सालों से भारत अमेरिका संबन्ध सही दिशा में चल रहे थे। रिपब्लिकन हो या डिमोक्रेट,डीप स्टेट की अनिच्छा के बावजूद हिन्द प्रशान्त क्षेत्र की कूटनीतिक अपरिहार्यता के कारण अमेरिका ने भारत के साथ सौहार्द्र पूर्ण संबन्ध बनाये रखें। लेकिन 2025 जनवरी में ट्रंप की दूसरी बार ताजपोशी के बाद अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के सारे ट्रेंड ट्रंप की टैरिफ नीति और अस्थिर विदेश नीति ने बदल दिये हैं। आंतरिक रुप से नाटों में भी दो धड़े हैं सब ट्रंप के समर्थक नहीं है लेकिन खुलकर सामने नहीं आते। भारत पर अतार्किक दबाव में 50 प्रतिशत टेरिफ का बोझ लादने के बाद अमेरिका ने भारत को चीन के ज्यादा करीब जाने के लिए मजबूर कर दिया। विगत 60-70 वर्षों की विदेश नीति की समीक्षा की जाये तो अमेरिका और चीन दोनों किसी के भी बहुत भरोसेमंद मित्र नहीं रहे हैं। अमेरिका तो डीप स्टेट और हथियार लाबी के नियंत्रण में व्यापार और सामरिक नियंत्रण के अड्डे दुनियां भर में खोजता है। शीत युद्ध के दौर में सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक उसका इनिमी नंबर 1 था। 1991 में यह रिपब्लिक 15 टुकड़ों में बिखर गया। लेकिन कम्युनिस्ट चीन विज्ञान, तकनीकी के साथ सैन्य तकनीक में नं 2 के रुप में उभरने लगा। अब चीन अमेरिका के लिए इनिमी नंबर 1 बन गया। 1947 के बाद चीन और पाकिस्तान द्वारा लगातार भारत को धोखा दिया गया। नतीजा रहा तनाव, अविश्वास, झड़प और युद्ध। पंचशील फेल हो गया। हिंदी चीनी भाई-भाई के नारों के बीच चीन ने 1962 में एक तरफा हमला कर दिया। भारत हमेशा चीन के विस्तारवाद से परेशान रहा है। हमारी चीन के साथ 3488 किमी की सीमा है। चीन सीमा रेखा मेकमोहन लाइन को नहीं मानता। एलएसी पर सन् 1962,1967,1987,2020 के बीच युद्ध और झड़पों ने संबंधों में तनाव बढ़ाया है। पाकिस्तान चीन का स्ट्रेटिजिक पार्टनर है। तिब्बत का चीन में विलय करने के बाद 1962 से आज तक भारत ने चीन के साथ मैत्री में हमेशा धोखा ही खाया है। भारत की आवाम की नजर में चीन और पाकिस्तान हमारे इनिमी नं. वन हैं। 2025 में अमेरिका में ट्रंप के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद दुनियां ही नहीं अमेरिकन भी उसकी आंतरिक और बाह्य नीतियों से हतप्रभ हैं। अगस्त 25 में बदले हालात में भारत के प्रधान मंत्री मोदी शंघाई गये हैं। वे सात साल बाद शी जिन पिंग से मिले । दोनों नेताओं की बाडीलेंग्वेज में कोई प्रफुल्लित भाव नजर नहीं आ रहा था। वैसे भी शी जिंन पिंग को मैंने कभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुस्कराते नहीं देखा है। दोनों मिल तो रहे हैं लेकिन भीतर बहुत दर्द स्वाभाविक रुप से होगा। ऐसी स्थिति में भारत चीन से किस हद तक अपने संबंध प्रगाढ़ करें यह लाख टके का सवाल है। तो इसका साफ और स्पष्ट पहला उत्तर तो यही है कि भारत-चीन रिश्ते “ज़्यादा-गर्माहट नहीं, ज़्यादा-स्मार्टनेस” वाले होने चाहिए।यानी सीमित, चरणबद्ध और शर्तों के साथ गहराने चाहिए।
दूसरा लेकिन एलएसी पर शांति-स्थिरता बरकरार रहे अर्थात् हर हाल में सीमा-पहले, शेष सब कुछ बाद में।। एलएसी पर सत्यापनीय डी-एस्केलेशन/पेट्रोलिंग-राइट्स की पुनर्बहाली को किसी भी बड़े आर्थिक कदम की “पूर्व-शर्त” रखना चाहिए। वार्ता चलती रहे, पर कंसैशन्स “फेज़-वाईज़, फॉर-फेज़” हों। तीसरा, वित्तीय वर्ष 2024-25 की व्यापार हक़ीक़त यह है कि चीन के साथ भारत का व्यापार-घाटा रिकॉर्ड 99.2 अरब डालर पहुँचा गया है। अतः: निर्भरता बड़ी है, असंतुलन भी। इसे घटाए बिना “गहरे” आर्थिक रिश्ते जोखिम बढ़ाएँगे। भारत को सौर-विंड आपूर्ति-श्रृंखला, बैटरी-ईवी, एपीआई/फ़ार्मा इनपुट, इलेक्ट्रॉनिक्स-मशीनरी-वहाँ सप्लाई विविधीकरण के साथ सीमित चीनी भागीदारी स्वीकार्य करना चाहिए पर एकल-स्रोत निर्भरता से बचना चाहिए। व्यापार-घाटा घटाने के लिये टैरिफ-नहीं, बाज़ार-एक्सेस/नॉन-टैरिफ अड़चनों पर ठोस रियायतें लेनी चाहिए। चौथा एससीओ/ब्रिक्स में रचनात्मक समन्वय रखते हुए क्वाड/ईयू -इंडो-पैसिफ़िक साझेदारियों से बहुपक्षीय संतुलन भारत के लिए जरुरी है। इसे हम यही “स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी कह सकते हैं। चीन को पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, मालदीप की क्षेत्रीय समस्याओं में भारत को उलझाये रखने की नीति छोड़ कर खुले मन से संबंधों की प्रगाढ़ता पर सोचना होगा। जो उसके वाणिज्यीय हितों से कितना मेल खायेगा कहा नहीं जा सकता। ब्रिक्स और शंघाई सहयोग की सफलता बिना भारत के संभव नहीं है इस कारण वह कुछ त्याग कर सकता है। समीक्षा के रुप में हम कह सकते हैं कि यह पूर्ण सामान्यीकरण” नहीं, “शर्तबद्ध, चरणबद्ध, सत्यापनीय” प्रगाढ़ता का दौर है। सीमा-शांति, व्यापार-घाटा घटाने के ठोस उपाय और सुरक्षा-गार्डरेइल्स ही चीन के साथ संबंधों का व्यावहारिक रास्ता है। ट्रंप, ट्रेंड और उसका टैरिफ भारत के लिए अन्यायपूर्ण चुनौती हैं। सत्य यह भी है कि अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति में कोई किसी का स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता परिस्थितियां बदलती हैं तो नीति भी बदलनी पड़ती है। एक दरवाजा बंद हो जाये तो दूसरा खोलना पड़ता है। नये रास्ते बनाना सफलता के लिए जरूरी है परन्तु संभल के। (लेखक, सेवानिवृत्त आईपीएस और मध्य प्रदेश पुलिस के पूर्व डीआईजी हैं)