Saturday, November 22, 2025
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व्यंग्य: तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग…

सुधाकर आशावादी

सुधाकर आशावादी
जिसे भी देखिए वह अपने अपने विमर्श लिए घूम रहा है। वह समझता है कि उससे अधिक ज्ञानी ध्यानी संसार में कोई दूसरा नहीं है। वह जिसका चाहे अपमान कर सकता है। जिसे चाहे चोर बोल सकता है, जिसे चाहे ईमानदार घोषित कर सकता है। वैसे एक अदद आदमी न्यूनतम दो चेहरे लेकर घूमता है। उसका एक चेहरा व्यक्तिगत होता है और दूसरा चेहरा सार्वजनिक होता है। लड़ाई बस यहीं से शुरू होती है, कि लोगों को उसका कौन सा चेहरा भाता है। उसका व्यक्तिगत चेहरा या सार्वजनिक चेहरा। सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति को नख से शीश तक पब्लिक की नज़रों में रहना होता है। पब्लिक उसके रहन सहन, जीवन शैली और उसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों का पल पल का हिसाब रखना चाहती है। बाकायदा उसके साक्षात्कार सुनती है। साक्षात्कार सुनकर उस व्यक्ति की जीवन चर्या से प्रभावित होकर उसे अपना नायक मानकर या तो उसका अनुसरण करना प्रारम्भ कर देती है या उसे खलनायक की संज्ञा देकर उससे दूरी बनाने लगती है। सार्वजनिक है तो उसका प्रत्येक आचरण भी सार्वजनिक होना सुनिश्चित होता है। ऐसे में अपनी छवि बनाने या बचाए रखने का बड़ा दायित्व सेलिब्रिटी का होता ही है। अपने एक मित्र हैं। अपनी भाषण कला से सभी को प्रभावित करते हैं। उनकी खासियत यही है कि वे सिर्फ अपनी अपनी ही कहते हैं, किसी दूसरे की नहीं सुनते। दूसरे की सुनेंगे तो उत्तर भी देना पड़ेगा। एक चुप सौ को हराए की तर्ज़ पर चुप रहते हैं। इसलिए वे किसी की नहीं सुनते। अलबत्ता जब अपनी बात कहनी होती है, तो विशिष्ट लोगों को ही साक्षात्कार देने के लिए न्यौता देते हैं। फिर अपनी जीवन यात्रा का खुलासा करते हैं, कि ज़िंदगी के सफ़र की शुरुआत उन्होंने कहाँ से की। उसके बाद कैसे कैसे कष्ट भोग कर वह वीर तुम बढ़े चलो की तर्ज़ पर आगे बढ़ते रहे। उन्हें आम खाने का शौक़ है, मगर वे आम काटकर नही खाते, चूस कर आम खाने में ही उन्हें आनंद की अनुभूति होती है। लोग उनकी जीवन यात्रा पर चर्चा करते हैं और अपने अपने तर्क कुतर्क करते हैं। यदि वे सार्वजनिक जीवन में मुखर न होते, तब भला कौन उनकी चर्चा करता। बहरहाल सार्वजनिक जीवन में किसी व्यक्ति का होना सर पर लटकती तलवार के नीचे खड़े होने जैसा है। अपुन के दूसरे मित्र हैं। उनका सार्वजनिक चरित्र ऐसा है जिस पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उनका चरित्र अनुकरण योग्य है भी अथवा नहीं। उनकी स्थिति बिन पेंदे के लोटे सरीखी रहती है। पता नहीं वे कब किसे चोर बताने लगे और कब किसे ईमानदार। एक मंदबुद्धि बालक की तरह उन्हें कुछ नारे याद करने होते हैं। कभी बच्चों के साथ सड़क पर नारे लगाते हैं कि गली गली में शोर है उनका साथी चारा चोर है, कभी नारा लगाते हैं कि उनके अलावा सभी चोर हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उन्हें किसी ने चोर का मतलब ही नहीं समझाया, कि चोर की परिभाषा क्या है? कभी चारा चोर से हाथ मिलाते हैं कभी किसी दूसरे चोर से। वह नारा लगाते हैं तो बुद्धिजीवी उनके अतीत को खंगालने लगते हैं। वे नारा लगाते हैं तो उनकी बुद्धि लब्धि से अधिक बुद्धिमान छह छह साल के बच्चे उनके कान में फुसफुसाते हैं कि मंदबुद्धि मित्र सही कह रहे हैं। यदि वे सार्वजनिक जीवन में न होते, तो लोग उनकी असलियत जानकर उनका मज़ाक़ न उड़ाते। वे मज़ाक़ प्रूफ़ हैं। कोई उनका कितना ही मज़ाक़ उड़ाए, उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। सार्वजनिक जीवन में निर्लज्ज आचरण अपनाना भी महत्वपूर्ण घटक है। भले ही कितनी बार माफी मांगनी पड़े, मगर मन की भड़ास निकालने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता। इसीलिए तो बरसों पहले गोस्वामी तुलसीदास जी कह गए हैं-तुलसी इस संसार में भांति-भांति के लोग…

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